Saturday, 19 April 2014

Kaam Vasna

 कामवासना


    उस दिन मौसम अपेक्षाकृत शान्त था । पर आकाश में घने काले बादल छाये हुये थे । जिनकी वजह से सुरमई अंधेरा सा फ़ैल चुका था । अभी 4 ही बजे होंगे । पर गहराती शाम का आभास हो रहा था । उस एकान्त वीराने स्थान पर एक अजीव सी डरावनी खामोशी छायी हुयी थी । किसी सोच विचार में मगन चुपचाप खङे वृक्ष भी किसी रहस्यमय प्रेत की भांति मालूम होते थे ।
    नितिन ने एक सिगरेट सुलगाई । और वृक्ष की जङ के पास मोटे तने से टिक कर बैठ गया । सिगरेट । एक अजीव चीज । अकेलेपन की बेहतर साथी । दिलो दिमाग को सुकून देने वाली । एक सुन्दर समर्पित प्रेमिका सी । जो अन्त तक सुलगती हुयी सी प्रेमी को उसके होठों से चिपकी सुख देती है । उसने एक हल्का सा कश लगाया । और उदास निगाहों से सामने देखा । सामने । जहाँ टेङी मेङी अजीव से बल खाती हुयी नदी उससे कुछ ही दूरी पर बह रही थी ।
कभी कभी कितना अजीव सा लगता है सब कुछ । उसने सोचा - जिन्दगी भी क्या ठीक ऐसी ही नहीं है । जैसा दृश्य अभी है । टेङी मेङी होकर बहती उद्देश्य रहित जिन्दगी । दुनियाँ के कोलाहल में भी छुपा अजीव सा सन्नाटा । प्रेत जैसा जीवन । इंसान का जीवन और प्रेत का जीवन समान ही है । दोनों ही अतृप्त । बस तलाश वासना तृप्ति की ।
- उफ़्फ़ोह ! ये लङका भी अजीव ही है । उसके कानों में दूर माँ की आवाज गूँजी - फ़िर से अकेले में बैठा बैठा क्या सोच रहा है ? इतना बङा हो गया । पर समझ नहीं आता । ये किस समझ का है । आखिर क्या सोचता रहता है । इस तरह ।
- क्या सोचता है । इस तरह ? उसने फ़िर से सोचा - उसे खुद ही समझ नहीं आता । वह क्या सोचता है ।
क्यों सोचता है ? या कुछ भी नहीं सोचता है ? जिसे लोग सोचना कहते हैं । वह शायद उसके अन्दर है ही नहीं । वह तो जैसा भी है है ।
उसने एक नजर पास ही खङे स्कूटर पर डाली । और छोटा सा कंकर उठाकर नदी की ओर उछाल दिया ।
नितिन B.A का छात्र था । और मध्य प्रदेश के एक छोटे से शहर का रहने वाला था । उसके पिता शहर में ही मध्य स्तर के सरकारी अफ़सर थे । और उसकी माँ साधारण सी घरेलू महिला थी । उसकी 1 बडी बहन थी । जिसकी मध्य प्रदेश में ही दूर किसी अच्छे गाँव मे शादी हो चुकी थी । उसका कद 5 फ़ुट 9 इंच था ।
वह साधारण शक्ल सूरत वाला । सामान्य से पैन्ट शर्ट पहनने वाला । एक कसरती युवा था । उसके बालों का स्टायल साधारण था । और वाहन के रूप में उसका अपना स्कूटर ही था ।
वह शुरु से ही अकेला और तनहाई पसन्द था । शायद इसीलिये उसकी कभी कोई प्रेमिका नही रही । और न ही उसका कोई खास दोस्त ही था । दुनियाँ के लोगों की भीङ में भी वह खुद को बेहद अकेला महसूस करता था । वो हमेशा चुप और खोया खोया रहता । यहाँ तक कि काम भाव भी उसे स्पर्श नही करता ।
तब इसी अकेलेपन और ऐसी आदतों ने उसे 16 साल की उमर मे ही गुप्त रूप से तन्त्र मन्त्र और योग की रहस्यमयी दुनिया की तरफ़ धकेल दिया । लेकिन उसके जीवन के इस पहलू को कोई नही जानता था ।
अंतर्मुखी स्वभाव का ये लङका स्वभाव से शिष्ट और बेहद सरल था । बस उसे एक ही शौक था । कसरत करना ।
कसरत । वह उठकर खङा हो गया । उसने खत्म होती सिगरेट में आखिरी कश लगाया । और सिगरेट को दूर उछाल दिया । स्कूटर की तरफ़ बढते ही उसकी निगाह साइड में कुछ दूर खङे बङे पीपल पर गयी । और वह हैरानी से उस तरफ़ देखने लगा । कोई नवयुवक पीपल की जङ से दीपक जला रहा था । उसने घङी पर निगाह डाली । ठीक छह बज चुके थे । अंधेरा तेजी से बङता जा रहा था । उसने एक पल के लिये कुछ सोचा । फ़िर तेजी से उधर ही जाने लगा ।
- क्या बताऊँ दोस्त ? वह गम्भीरता से दूर तक देखता हुआ बोला - शायद तुम कुछ न समझोगे । ये बङी अजीव कहानी ही है । भूत प्रेत जैसी कोई चीज क्या होती है ? तुम कहोगे । बिलकुल नहीं । मैं भी कहता हूँ । बिलकुल नहीं । लेकिन कहने से क्या हो जाता है । फ़िर क्या भूत प्रेत नहीं ही होते ।
ये दीपक ? नितिन हैरानी से बोला - ये दीपक आप यहाँ क्यों ..मतलब ?
- मेरा नाम मनोज है । लङके ने एक निगाह दीपक पर डाली - मनोज पालीवाल । ये दीपक क्यों ? दरअसल मुझे खुद पता नहीं । ये दीपक क्यों ? इस पीपल के नीचे ये दीपक जलाने से क्या हो सकता है । मेरी समझ के बाहर है । लेकिन फ़िर भी जलाता हूँ ।
- पर कोई तो वजह ..वजह ? नितिन हिचकता हुआ सा बोला - जब आप ही..आप ही तो जलाते हैं ।
- बङे भाई ! वह गहरी सांस लेकर बोला - मुझे एक बात बताओ । घङे में ऊँट घुस सकता है । नहीं ना । मगर कहावत है । जब अपना ऊँट खो जाता है । तो वह घङे में भी खोजा जाता है । शायद इसका मतलब यही है कि समस्या का जब कोई हल नजर नहीं आता । तव हम वह काम भी करते हैं । जो देखने सुनने में हास्यास्पद लगते हैं । जिनका कोई सुर ताल ही नहीं होता ।
उसने बङे अजीव भाव से एक उपेक्षित निगाह दीपक पर डाली । और यूँ ही चुपचाप सूने मैदानी रास्ते को देखने लगा । उस बूङे पुराने पीपल के पत्तों की अजीव सी रहस्यमय सरसराहट उन्हें सुनाई दे रही थी । अंधेरा फ़ैल चुका था । वे दोनों एक दूसरे को साये की तरह देख पा रहे थे । मरघट के पास का मैदान । उसके पास प्रेत स्थान युक्त ये पीपल । और ये तन्त्र दीप । नितिन के रोंगटे खङे होने लगे । उसके बदन में एक तेज झुरझुरी सी दौङ गयी । उसकी समस्त इन्द्रियाँ सजग हो उठी । वह मनोज के पीछे भासित उस आकृति को देखने लगा । जो उस कालिमा में काली छाया सी ही उसके पीछे खङी थी । और मानों उस तन्त्र दीप का उपहास उङा रही हो ।
मनसा जोगी ! वह मन में बोला - रक्षा करें । क्या मामला है । क्या होने वाला है ?
- कुछ..सिगरेट वगैरह..। मनोज हिचकिचाता हुआ सा बोला - रखते हो । वैसे अब तक कब का चला जाता । पर तुम्हारी वजह से रुक गया । तुमने दुखती रग को छेङ दिया । इसलिये कभी सोचता हूँ । तुम्हें सब बता डालूँ
दिल का बोझ कम होगा । पर तुरन्त ही सोचता हूँ । उसका क्या फ़ायदा । कुछ होने वाला नहीं है ।
- कितना शान्त होता है ये मरघट । फ़िर वह एक गहरा कश लगाकर दोबारा बोला - ओशो कहते हैं । दरअसल मरघट ठीक बस्ती के बीच होना चाहिये । जिससे आदमी अपने अन्तिम परिणाम को हमेशा याद रखें ।
मनोज को देने के बाद उसने भी एक सिगरेट सुलगा ली थी । और जमीन पर ही बैठ गया था । लेकिन मनोज ने सिगरेट को सादा नहीं पिया था । उसने एक पुङिया में से चरस निकाला था । उसने वह नशा नितिन को भी आफ़र किया । लेकिन उसने शालीनता से मना कर दिया
तेल से लबालब भरे उस बङे दिये की पीली रोशनी में वे दोनों शान्त बैठे थे । नितिन ने एक निगाह ऊपर पीपल की तरफ़ डाली । और उत्सुकता से उसके अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगा । उसे हैरानी हो रही थी । वह काली अशरीरी छाया उन दोनों से थोङा दूर ही शान्ति से बैठी थी । और कभी कभी एक उङती निगाह मरघट की तरफ़ डाल लेती थी । नितिन की जिन्दगी में यह पहला वास्ता था । जब उसे ऐसी कोई छाया नजर आ रही थी । रह रह कर उसके शरीर में प्रेत की मौजूदगी के लक्षण बन रहे थे । उसे वायु रूहों का पूर्ण अहसास हो रहा था । और एकबारगी तो वह वहाँ से चला जाना ही चाहता था । पर किन्हीं अदृश्य जंजीरों ने जैसे उसके पैर जकङ दिये थे ।
- मनसा जोगी ! वह हल्का सा भयभीत हुआ - रक्षा करें ।
मनोज पर चरसी सिगरेट का नशा चढने लगा । उसकी आँखें सुर्ख हो उठी ।
- ये जिन्दगी बङी अजीव है मेरे दोस्त । वह किसी कथावाचक की तरह गम्भीरता से बोला - कब किसको बना दे । कब किसको उजाङ दे । कब किसको मार दे । कब किसको जिला दे ।
- आपको । नितिन सरल स्वर में बोला - घर नहीं जाना । रात बढती जा रही है । मेरे पास स्कूटर है । मैं आपको छोङ देता हूँ ।
- एक सिगरेट..सिगरेट और दोगे । वह प्रार्थना सी करता हुआ बोला - प्लीज प्लीज बङे भाई ।
उसने बङे अजीव ढंग से फ़िर उस काली छाया को देखा । और पैकेट उसे थमा दिया । थोङी थोङी हवा चलने लगी थी । दिये की लौ लपलपा उठती थी । मनोज ने उसे जङ की आङ में कर दिया । और दोबारा पुङिया निकाल ली ।
- बताऊँ । वह फ़िर से उसकी तरफ़ देखता हुआ बोला - या ना बताऊँ ?
वह उसे फ़िर से सिगरेट में चरस भरते हुये देखता रहा । उसे इस बात पर हैरानी हो रही थी कि जो प्रेतक उपस्थिति के अनुभव उसे हो रहे हैं । क्या उसे नहीं हो रहे । या फ़िर नशे की वजह से वह उन्हें महसूस नहीं कर पा रहा । या
फ़िर अपने किसी गम की वजह से वह उसे महसूस नहीं कर पा रहा । या या..उसके दिमाग में एक विस्फ़ोट सा हुआ - या वह ऐसे अनुभवों का अभ्यस्त तो नहीं है । उसकी निगाह तुरन्त तन्त्र दीप पर गयी । और स्वयं ही उस काली छाया पर गयी । छाया जो किसी औरत की थी । और पीली मुर्दार आँखों से उन दोनों को ही देख रही थी ।
एकाएक जैसे उसके दिमाग में सब तस्वीर साफ़ हो गयी । वह निश्चित ही प्रेत वायु का लम्बा अभ्यस्त था । साधारण इंसान किसी हालत में इतनी देर प्रेत के पास नहीं ठहर सकता था ।
- मेरा बस चले तो साली की माँ ही...। उसने भरपूर सुट्टा लगाया । और घोर नफ़रत से बोला - पर कोई सामने तो हो । कोई नजर तो आये । अदृश्य को कैसे क्या करूँ । बोलो । तुम बोलो । गलत कह रहा हूँ मैं ।
- लेकिन मनोज जी ?
- बताता हूँ । सब बताता हूँ । बङे भाई । जाने क्यों अन्दर से आवाज आ रही है । तुम्हें सब बताऊँ । जाने क्यों । जाने क्यों । मेरे गाली बकने को गलत मत समझना । आदमी जब वेवश हो जाता है । तो फ़िर उसे और कुछ नहीं सूझता । सिवाय गाली देने के ।
पदमा ने धुले हुये कपङों से भरी बाल्टी उठाई । और बाथरूम से बाहर आ गयी । उसके बङे से आंगन में धूप खिली हुयी थी । वह फ़टकारते हुये एक एक कपङे को तार पर डालने लगी । उसकी लटें बार बार उसके चेहरे पर झूल जाती थी । जिन्हें वह नजाकत से पीछे झटक देती थी । विवाह के चार सालों में ही उसके यौवन में भरपूर निखार आया था । उसका अंग अंग खिल सा उठा था । अपने ही सौन्दर्य को देखकर वह मुग्ध हो जाती थी । उसकी छातियों में एक अजीव सा रोमांच भर उठता था । वाकई पुरुष के हाथ में कोई जादू होता है । उसकी समीपता में एक विचित्र ऊर्जा सी होती है । जो लङकी की जवानी को फ़ूल की तरह से महका देती है ।
विवाह के बाद उसका शरीर तेजी से भरा था । उसके एकदम गोल उन्नत स्तन और भी विकसित हुये थे । ये सोचते ही उसके चेहरे पर शर्म की लाली दौङ गयी । कितने बेशर्म और लालची होते हैं सब पुरुष । सब यहीं ताकते हैं । बूढी हो या जवान । इन्हें एक ही काम । इसके लिये शायद औरत कहीं भी सेफ़ नहीं । शायद अपने ही घर में भी नहीं ।
उसने एक गहरी सांस ली । और उदास नजरों से नितिन को देखा । उसकी आँखें हल्की हल्की नम हो चली थी ।
नितिन जी ! वह फ़िर से बोला - कैसा अजीव बनाया है । दुनियाँ का ये सामाजिक ढांचा भी । और कैसा अजीव बनाया है । देवर भाभी का सम्बन्ध भी । दरअसल..मेरे दोस्त । ये समाज समाज नहीं । पाखण्डी लोगों का समूह मात्र है । हम ऊपर से कुछ और बरताव करते हैं । हमारे अन्दर कुछ और ही मचल रहा होता है । हम सब पाखण्डी हैं । तुम । मैं । और सब ।
मेरी भाभी ने मुझे माँ के समान प्यार दिया था । मैं पुत्रवत ही उसके सीने से लिपट जाता था । कहीं भी छू लेता था । क्योंकि तब उस स्पर्श में काम वासना नहीं थी । इसलिये मुझे कहीं भी छूने में झिझक नहीं थी । और फ़िर वही भाभी कुछ समय बाद मुझे एक स्त्री नजर आने लगी । सिर्फ़ एक भरपूर जवान स्त्री । मेरे अन्दर का पुत्र लगभग मर गया । और उसकी जगह सिर्फ़ पुरुष बचा रह गया । अपनी भाभी के ही स्तन मुझे अच्छे लगने लगे । चुपके चुपके उन्हें देखना । और झिझकते हुये छूने को जी सा ललचाने लगा । जिस भाभी को मैं कभी भी गोद में ऊँचा उठा लेता था । भाभी मैं नहीं मैं नहीं.. कहता उनके सीने से लग जाता ।
अब उसी को छूने में एक अजीव सी झिझक होने लगी । इस काम वासना ने हमारे पवित्र माँ बेटे जैसे प्यार को गन्दगी का कीचङ सा लपेट दिया । लेकिन शायद ये बात सिर्फ़ मेरे अन्दर ही थी । भाभी के अन्दर नहीं । उसे पता भी नहीं कि मेरी निगाहों में क्या रस पैदा हो गया ? मैं यही सोचता था ।
बाल्टी से निकालकर कपङे निचोङती हुयी पदमा की निगाह अचानक सामने बैठे मनोज पर गयी । फ़िर अपने ब्लाउज पर गयी । आँचल रहित सीना । साङी का आँचल उसने कमर में खोंस लिया था । वह चोर नजरों से उसके ब्लाउज से बाहर छलकते सुडौल स्तनों को देख रहा था ।
- क्या गलती है इसकी ? पदमा ने सोचा - कुछ भी तो नहीं । ये होने जा रहा मर्द है । कौन ऐसा शरीफ़ है । जो स्त्री कुचों का दीवाना नहीं । बूढा । जवान । बच्चा । अधेङ । शादीशुदा । या फ़िर कुंवारा । भूत प्रेत । या देवता भी । सच तो ये है । स्त्री भी स्त्री के स्तनों को देखती है । स्वयं से तुलनात्मक या फ़िर वासनात्मक भी । शायद ईश्वर की कुछ खास रचना हैं । नारी स्तन । नारी का सौन्दर्य है । नारी स्तन ।
उसने अपने आँचल को ठीक करने का कोई उपकृम नहीं किया । और सीधे ही तपाक से पूछा - सच बता । क्या देख रहा था ?
मनोज एकदम हङबङा गया । उसने झेंप कर मुँह फ़ेर लिया । उसके चेहरे पर ग्लानि के भाव थे । पदमा ने आखिरी कपङा तार पर डाला । और उसके पास ही सामने चारपाई पर बैठ गयी । उसने अपने आँचल को अभी भी ज्यों का त्यों ही रखा । उसके मन में एक अजीव सा भाव था । शायद एक शाश्वत प्रश्न जैसा ।
औरत । पुरुष की कामना । औरत ।.. औरत । पुरुष की वासना । औरत ।.. औरत । पुरुष की भावना । औरत ।
फ़िर वह मनोज के स्वाभाविक भावों को कौन से नजरिये से गलत समझे । उसकी जगह उसका कोई दूर दराज का चाचा ताऊ भी निश्चित ही उसके लिये यही आंतरिक भाव रखता । क्योंकिं वह एक सम्पूर्ण लौकिक औरत थी ।
भांति भांति के कुदरती सुन्दर फ़ूलों की तरह ही सृष्टि कर्ता ने औरत को भी विशेष सांचे में ढाल कर बनाया । जहाँ उसके अंगों में फ़लों का सा मधुर रस भर दिया । वहीं उसके सौन्दर्य में फ़ूलों की अनुपम महक भी डाल दी । जहाँ उसके मादक अंगों से सुरा के पैमाने छलका दिये । वहीं उसकी सादगी में एक शान्त धीर गम्भीर देवी नजर आयी ।
कुछ ऐसी ही थी पदमा भी । उसकी बङी बङी काली आँखों में एक अजीव सा सम्मोहन था । जो साधारण दृष्टि से देखने पर भी यौन आमन्त्रण जैसा मालूम होता था । पदमिनी स्त्री प्रकार की ये नायिका मानों धरा के फ़लक पर कयामत बनकर उतरी थी । उसके लहराते लम्बे रेशमी बाल उसके कन्धों पर फ़ैले रहते थे । वह नये नये स्टायल का जूङा बनाने और इत्र लगाने की बेहद शौकीन थी ।
पदमा की लम्बाई 5 फ़ीट 8 इंच थी । और उसका फ़िगर 34-26-34 की मनमोहक बनाबट में खूबसूरती से गढा गया था । अपनी 5 फ़ीट 8 इंच की लम्बाई के बाद भी वह 2 इंच ऊँची हील वाली सेंडल पहनती थी । और अपनी मदमस्त चाल से पुरुषों के दिल में उथल पुथल मचा कर रख देती थी । उसके लचकते मांसल नितम्बों की थिरकन कब्र में पैर लटकाये बूङों में जोश की तरंग पैदा कर देती थी ।
- मनोज ! वह सम्मोहनी आँखों से देखती हुयी बोली - मैं जानना चाहती हूँ । तुम चोरी चोरी अभी क्या देख रहे थे । डरो मत । सच बताओ । मैं किसी को बोलूँगी नहीं । शायद मेरे तुम्हारे मन में एक ही बात हो ।
- भाभी ! वह कठिनता से कांपती आवाज में बोला - आपने कभी किसी से प्यार किया है ?
- प्यार..प्यार ? हाँ किया है ना । वह सहजता से सरल स्वर में बोली - देख मनोज । हर लङका लङकी किशोरावस्था में किसी न किसी विपरीत लिंगी से प्यार करते ही हैं । भले ही वो प्यार एक तरफ़ा हो । दो तरफ़ा हो । सफ़ल हो । असफ़ल हो । मैंने भी अपने गाँव में एक लङके राजीव से प्यार किया । पर वो ऐसा पागल निकला । मुझ रूप की रानी के प्यार की परवाह न कर साधु बाबा हो गया । हाँ मनोज । उसका मानना था । ईश्वर से प्यार ही सच्चा प्यार है । बाकी मेरी जैसी सुन्दर रसीली रस भरी औरत तो जीती जागती माया है । माया ।
माया । उसने एक गहरी सांस ली । वह चुप ही रहा । पर रह रह कर भाभी के सीने का आकर्षण उसे वहीं देखने को विवश कर देता । और पदमा उसे इसका भरपूर मौका दे रही थी । इसीलिये वह अपनी नजरें उससे मिलाने के बजाये इधर उधर कर लेती ।
- बस । कुछ देर बाद वह बोली - एक बार तुम बिलकुल सच बताओ । तुम चोरी चोरी क्या देख रहे थे । फ़िर मैं भी तुम्हें कुछ बताऊँगी । शायद जिस सौन्दर्य की झलक मात्र से तुम बैचेन हो । वह सम्पूर्ण सौन्दर्य खुल कर तुम्हारे सामने हो । क्योंकि..कहते कहते वह रुकी - मैं भी एक औरत हूँ । और मैं अपने सौन्दर्य प्रेमी को अतृप्त नहीं रहने दे सकती । कभी नहीं ।
- नहीं । वह तेजी से बोला - ऐसा कुछ नहीं । ऐसा कुछ नहीं है भाभी माँ । मैं ऐसा कुछ नहीं चाहता । पर मैं सच कहूँगा । ये..ये आपके ब्लाउज के अन्दर जो हैं । बस ना जाने क्यों । इन्हें देखने को दिल सा करता है ।..भाभी.वो गाना है ना - तेरे दो अनमोल रतन । एक है राम । और एक लखन । जाने क्यों मुझे ये गाना आपके इनके लिये गाना अच्छा लगता है । जब भी मुझे आपकी बाहर कहीं याद आती है । मैं इन्हीं को याद कर लेता हूँ - तेरे दो अनमोल रतन । एक है राम । और एक लखन ।
उसकी साफ़ सरल सीधी सच्ची स्पष्ट बात और मासूमियत पर पदमा हँसते हँसते पागल हो उठी । यकायक उसके मोतियों जैसे चमकते दाँतों की बिजली सी कौंधती । और उसके हँसने की मादक मधुर स्वर लहरी वातावरण में काम रस सा घोल देती । वह भी मूर्खों की भांति उसके साथ हँसने लगा ।
एक मिनट एक मिनट यार । वह अपने को संयमित करती हुयी बोली - क्या बात कही । मनोज मुझे तेरी बात पर अपनी एक सहेली की याद आ गयी । उसकी नयी नयी शादी हुयी थी । पहली विदाई में जब वह पीहर आने लगी । तो उसका पति बहुत उदास हो गया । वह बोली - ऐसे क्यों मुँह लटका लिया । मैं मर थोङे ना गयी । सिर्फ़ 8 दिन को ही तो जा रही हूँ । तब उसका पति बोला - मुझे तेरे जाने का दुख नहीं । तू जाती हो तो जा । पर मुझे इन दोनों
की बहुत याद आयेगी । ऐसा कर इन्हें काट कर मुझे दे जा ।
अचानक अब तक गम्भीर बैठे नितिन ने जोरदार ठहाका लगाया । ऐसी अजीव बात उसने पहली बार ही सुनी थी । माहौल की मनहूसियत एकाएक छँट सी गयी । मनोज हल्के नशे में था । वह भी उसके साथ हँसा ।
- तेरे दो अनमोल रतन । एक है राम । और एक लखन । फ़िर वह धीमे धीमे सुबकने लगा ।
अजीव सस्पेंस फ़ैलाया था । इस लङके ने । वह सिर्फ़ इस जिज्ञासा के चलते उसके पास आया था कि वो ये तन्त्र दीप क्यों जला रहा था ? कौन सी प्रेत बाधा का शिकार हुआ था । और अभी इस साधारण से प्रश्न का उत्तर मिल पाता । वह काली अशरीरी छाया एक बङे अनसुलझे रहस्य की तरह वहाँ प्रकट हुयी । एक और प्रश्न ?
- मनसा जोगी ! वह मन में बोला - रक्षा करें ।
वह काली छाया अभी भी बूङे पीपल के आसपास ही टहल सी रही थी । वह शहर से बाहर स्थानीय उजाङ और खुला शमशान ही था । सो अशरीरी रूहों के आसपास होने का अहसास उसे बारबार हो रहा था । पर मनोज इस सबसे बिलकुल बेपरवाह बैठा था ।
दरअसल नितिन ने प्रत्यक्ष अशरीरी भासित रूह को पहली बार ही देखा था । पर वह तन्त्र क्रियाओं से जुङा होने के कारण ऐसे अनुभवों का कुछ हद अभ्यस्त था । लेकिन वह युवक तो उपचार के लिये आया था । फ़िर वह कैसे ये सब महसूस नहीं कर रहा था ? और उसके ख्याल में कारण दो ही हो सकते थे । उसका भी प्रेतों के सामीप्य का अभ्यस्त होना । या फ़िर नशे में होना । या उसकी निडरता अजानता का कारण वह भी हो सकता था । या फ़िर वह अपने ख्याली गम में इस तरह डूबा था कि उसे माहौल की भयंकरता पता ही नहीं चल रही थी । उसकी निगाह फ़िर एक बार काली छाया पर गयी ।
- मैं सोचता हूँ । वह कुछ अजीव से स्वर में बोला - हमें अब घर चलना चाहिये ।
- अरे बैठो दोस्त ! मनोज फ़िर से गहरी सांस भरता हुआ बोला - कैसा घर । कहाँ का घर । सब मायाजाल है साला । चिङा चिङी के घोंसले । चिङा चिङी..अरे हाँ ..मुझे एक बात बताओ । तुमने औरत को कभी वैसे देखा है । बिना वस्त्रों में । एक खूबसूरत जवान औरत । पदमिनी नायिका । रूपसी । रूप की रानी जैसी । एक नंग्न औरत ।
- सुनो ! वह हङबङा कर बोला - तुम बहकने लगे हो । हमें अब चलना चाहिये ।
ठ ठ ठहरो भाई ! तुम गलत समझे । वह उदास हँसी हँसता हुआ बोला - शायद फ़िर तुमने ओशो को नहीं पढा । मैं आंतरिक भावों से नग्न औरत की बात कर रहा हूँ । और इस तरह औरत को कोई नग्न नहीं कर पाता । शायद उसका पति भी नहीं । शायद उसका पति । यानी मेरा सगा भाई । भाई । भाई मुझे समझ नहीं आता । मैं कसूरवार हूँ या नहीं । याद रखो ।.. वह दार्शनिकता दिखाता हुआ बोला - औरत को नग्न करना आसान नहीं । वस्त्र रहित नग्नता नग्नता नहीं है ।
- ठीक है मनोज । पदमा जबरदस्त मादक अंगङाई लेकर अपनी बङी बङी आँखों से सीधी उसकी आँखों में झांकती हुयी सी बोली - तुमने बिलकुल सही और सच बोला । हाँ ये सच है । किसी भी लङकी में जैसे ही यौवन सुन्दरता के ये पुष्प खिलना शुरू होते हैं । वह सबके आकर्षण का केन्द्र बन जाती है । एक सादा सी लङकी मोहक मोहिनी में रूपांतरित होने लगती है । तुमने कभी इस तरह सोचा ।..मैं जानती हूँ । तुम मुझे पूरी तरह देखना चाहते हो । छूना चाहते हो । खेलना चाहते हो । क्योंकि ये सब सोचते समय तुम्हारे अन्दर मैं तुम्हारी भाभी नहीं । सिर्फ़ एक खूबसूरत औरत होती हूँ । उस समय भाभी मर जाती है । सिर्फ़ औरत । सिर्फ़ औरत ही रह जाती है । बताओ मैंने सच कहा ना ?
- गलत । वह कठिन स्वर में बोला - एकदम गलत । ऐसा तो मैंने कभी सोचा भी नहीं । बस सच इतना ही है कि जब भी इस घर में तुम्हें चलते फ़िरते देखता हूँ । तो मैं तुम्हें पहले पूरा ही देखता हूँ । लेकिन फ़िर न जाने क्यों मेरी निगाह इधर हो जाती है । यहाँ देखना क्यों आकर्षित करता है । मैं समझ नहीं पाता ।
क्या । वह हैरत से बोली - तुम्हें मुझे पूरी तरह से देखने की इच्छा नहीं करती ?
- कभी नहीं । वह एक झटके से सख्त स्वर में बोला - क्योंकि साथ ही मुझे ये भी पता है । तुम मेरी भाभी हो । भाभी माँ । और एक बच्चा भी अपने माँ के आँचल से प्यार करता है । सम्मोहित होता है । उसे भी उन स्तनों से लगाव होता है । जिनसे वह पोषण पाता है । वह ठीक पति की तरह माँ के शरीर को कहीं भी स्पर्श करता है । उसके पूर्ण शरीर पर जननी भूमि की तरह खेलता है । पर आप बताओ । उसकी ऐसी इच्छा कभी हो सकती है कि मैं अपनी माँ को नंगा देखूँ ।
पदमा की बङी बङी काली आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयी । उसका सौन्दर्य अभिमान पल में चूर चूर हो गया । मनोज जितना बोल रहा था । एकदम सच बोल रहा था ।
क्या अजीव झमेला सा था । नितिन बङी हैरत में था । वह कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था । यहाँ रुके । या घर चला जाये । इसको साथ ले जाये । या इसके हाल पर छोङ जाये । कौन था ये लङका ? कैसी अजीव सी थी इसकी कहानी । और वह काली स्त्री छाया ।
उसने फ़िर से उधर देखा । वह भी मानों थक कर जमीन पर बैठ गयी थी । और अचानक वह चौंका । मनोज ने जेब से देशी तमंचा निकाला । और उसकी ओर बङाया ।
- मेरे अजनबी दोस्त । वह डूबे स्वर में बोला - आज तुम मेरी कहानी सुन लो । मुझे कसूरवार पाओ । तो बे झिझक मुझे शूट कर देना । और यदि तुम मेरी कहानी नहीं सुनते । बीच में ही चले जाते हो । फ़िर मैं ही अपने आपको शूट कर लूँगा । और इसके जिम्मेदार तुम होगे । सिर्फ़ तुम ।
उसने उँगली नितिन की तरफ़ उठाई । वह कुछ न बोला । और चुप बैठा हुआ उसके अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगा ।मध्य प्रदेश । यानी मध्य भारत का 1 राज्य । राजधानी भोपाल । यह प्रदेश 1 NOV 2000 तक क्षेत्रफल के आधार पर भारत का सबसे बडा राज्य था । लेकिन 1 NOV 2000 के दिन इस राज्य के कई नगर उससे हटा कर छत्तीसगढ़ बना दिया गया । इस प्रदेश की सीमायें - महाराष्ट्र । गुजरात । उत्तर प्रदेश । छत्तीसगढ़ । और राजस्थान से मिलती है ।
भारत की गौरवशाली संस्कृति में मध्य प्रदेश किसी जगमगाते दीप के जैसा है । जिसकी रोशनी की अलग ही चमक और अलग प्रभाव है । विभिन्न संस्कृतियों की अनेकता में एकता के आकर्षक गुलदस्ता जैसा । जिसे प्रकृति ने स्वयं अपने हाथों से सजाया हो । और जिसका सौन्दर्य और सुगन्ध चारों ओर फैल रहे हों । यहाँ की आबोहवा में कला । साहित्य । संस्कृति की मधुर गन्ध सी बहती है । यहाँ के लोक समूहों और जन जाति समूहों में प्रतिदिन नृत्य । संगीत । गीत की रसधार सहज प्रवाहित होती है । इसलिये हर दिन ही उत्सव जैसा होकर जीवन में आनन्द रस घोल देता है । मध्य प्रदेश के तुंग उतुंग पर्वत शिखर । विन्ध्य सतपुड़ा । मैकल कैमूर की उपत्यिकाओं के अन्तर से गूँजती अनेक पौराणिक कथायें । नर्मदा । सोन । सिन्ध । चम्बल । बेतवा । केन । धसान । तवा । ताप्ती आदि नदियों के उदगम और मिलन की कथाओं से फूटती हजारों धारायें यहाँ के जीवन को हरा भरा कर तृप्त करती हैं ।
इस राज्य में 5 लोक संस्कृतियों का समावेश है । ये 5 साँस्कृतिक क्षेत्र है - निमाड़ । मालवा । बुन्देलखण्ड । बघेलखण्ड । ग्वालियर ( चंबल ) प्रत्येक भू भाग का अलग जीवंत लोक जीवन । साहित्य । संस्कृति । इतिहास । कला । बोली और परिवेश है ।
इस राज्य की संस्कृति बहुरंगी है । महाराष्ट्र । गुजरात । उड़ीसा की तरह मध्य प्रदेश को खास भाषाई संस्कृति से नहीं पहचाना जाता । बल्कि यहाँ विभिन्न लोक और जन जातीय संस्कृतियों का समागम है । इसलिये कोई एक लोक संस्कृति नहीं है । एक तरफ़ यहाँ 5 लोक संस्कृतियों का आपसी समावेश है । दूसरी ओर अनेक जन जातियों की आदिम संस्कृतियों का सुखद नजारा है ।
मध्य प्रदेश के 5 सांस्कृतिक क्षेत्र - निमाड़ । मालवा । बुन्देलखण्ड । बघेलखण्ड । ग्वालियर और धार - झाबुआ । मंडला - बालाघाट । छिन्दवाड़ा । होशंगाबाद । खण्डवा - बुरहानपुर । बैतूल । रीवा - सीधी । शहडोल आदि जन जातीय क्षेत्रों में विभक्त है ।
निमाड़ मध्य प्रदेश के पश्चिमी अंचल में आता है । इसकी भौगोलिक सीमाओं में एक तरफ़ विन्ध्य की उतुंग पर्वत श्रृंखला । और दूसरी तरफ़ सतपुड़ा की सात उपत्यिकाएँ हैं । और मध्य में बहती है । नर्मदा की जल धार । पौराणिक काल में निमाड़ अनूप जनपद कहलाता था । बाद में इसे निमाड़ कहा गया ।
महाकवि कालीदास की धरती मालवा हरी भरी धन धान्य से भरपूर रही है । यहाँ के लोगों ने कभी अकाल नहीं देखा । विन्ध्याचल के पठार पर प्रसरित मालवा की भूमि सस्य । श्यामल । सुन्दर और उर्वर तो है ही । ये धरती पश्चिम भारत की सबसे अधिक स्वर्णमयी और गौरवमयी भूमि रही है ।
उत्तर में यमुना । दक्षिण में विंध्य प्लेटों की श्रेणियों । उत्तर - पश्चिम में चंबल । और दक्षिण पूर्व में पन्ना । आजमगढ़ श्रेणियों से घिरे भू भाग को बुंदेलखंड नाम से जाना जाता है । कनिंघम ने बुंदेलखंड के अधिकतम विस्तार के समय इसमें गंगा और यमुना का समस्त दक्षिणी प्रदेश जो पश्चिम में बेतवा नदी से पूर्व में चन्देरी और सागर के जिलों सहित विंध्यवासिनी देवी के मन्दिर तक तथा दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने के निकट बिल्हारी तक प्रसरित था
बघेलखण्ड का सम्बन्ध भी अति प्राचीन भारतीय संस्कृति से है । यह भू भाग रामायण काल में कोसल प्रान्त के अन्तर्गत था । महाभारत काल में विराट नगर बघेलखण्ड भूमि पर ही था । जिसका नाम आजकल सोहागपुर है । भगवान राम की वनवास यात्रा इसी क्षेत्र से हुई थी । यहाँ के लोगों में शिव । शाक्त । वैष्णव सम्प्रदाय की परम्परा विद्यमान है । नाथ पंथी योगियो का भी खासा प्रभाव है । पर कबीर पंथ का प्रभाव सर्वाधिक है । कबीर के खास शिष्य धर्मदास बाँदवगढ़ निवासी ही थे ।
ग्वालियर मध्य प्रदेश का चंबल क्षेत्र । भारत का मध्य भाग । यहाँ भारतीय इतिहास की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनायें हुई हैं । इस क्षेत्र का सांस्कृतिक आर्थिक केंद्र ग्वालियर शहर है । सांस्कृतिक रुप से भी यहाँ अनेक संस्कृतियों का आवागमन और संगम हुआ है । 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम झाँसी की वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई ने इसी भूमि पर लड़ा था ।
इसी मध्य प्रदेश के निमाङ की अमराइयो में कोयल की कूक गूंजने लगी थी । पलाश के फूलो की लाली फ़ैल रही थी । होली का खुमार सिर चढकर बोल रहा था । मधुर गीतों की गूँज से निमाङ चहक रहा था ।
दिल में ढेरों रंग बिरंगे अरमान लिये रंग बिरंगे ही वस्त्रों में सजी सुन्दर युवतियों के होंठ गुनगुना रहे थे - म्हारा हरिया ज्वारा हो कि । गहुआ लहलहे मोठा हीरा भाई वर बोया जाग । कि लाड़ी बहू सींच लिया रानी सिंची न जाण्य हो कि ज्वारा पेला पडया । उनकी सरस क्थो लाई हो । हीरा भाई ढकी लिया ।
इसी रंग बिरंगी धरती पर वह रूप की रंगीली रानी आँखों में रंग बिरंगे ही सपने सजाये जैसे सब बन्धन तोङ देने को मचल रही थी । उसकी छातियों में मीठी मीठी कसक सी होती थी । उसके दिल में कोई अनजान सी हूक उठती थी । हाय वो कौन होगा । जो उसे बाँहों में भींच कर रख देगा ।
सासु न बहू गौर पूजा ही रना देव । अडोसन पड़ोसन गौर पूजा हो रना देव । पड़ोसन पर तुटयो गरबो भान हो रना देव । कसी पट तुटयो गरबो भान हो रना देव । दूध केरी दवनी मङ घेर हो रना देव । पूत करो पालनों पटसल हो रना देव । स्वामी सुत सुख लड़ी सेज हो रना देव । असी पट तुटयो गरबो भान हो रना देव ।
आज की रात । उसने सोचा । इसी वीराने में बीतने वाली थी । कहाँ का फ़ालतू लफ़ङा उसे आ लगा था । साँप के मुँह छछूँदर । न निगलते बने । न उगलते ।
- पर पर मेरे दोस्त । वह फ़िर से बोला - जिन्दगी किसी हसीन ख्वाव जैसी नहीं होती । कभी नहीं होती । जिन्दगी की ठोस हकीकत कुछ और ही होती है ? कुछ और ही ।
यकायक वह उकता सा उठा । वह उठ खङा हुआ । और फ़िर बिना बोले ही चलने को हुआ । मनोज ने उसे कुछ नहीं कहा । और तमंचा कनपटी से लगा लिया - ओ के मेरे अजनबी दोस्त अलबिदा ।
आ वैल मुझे मार । जबरदस्ती गले लग जा । शायद इसी के लिये कहा गया है । हारे हुये जुआरी की तरह वह फ़िर से बैठ गया । उसने एक सिगरेट निकाली । और सुलगा ली । लेकिन नितिन खामोशी से उस छाया को ही देखता रहा ।
- लेकिन मैं शर्मिन्दा नहीं हूँ । पदमा सहजता से बोली - अभी भी नहीं हूँ । अभी अभी तुमने कहा । तुम्हें मुझे यहाँ देखना भाता है । फ़िर बताओ । क्यों । बोलो बोलो । ऐसे ही मैं भी तुमको बहुत निगाहों से देखती हूँ । अगर तुम्हारे दिल में कुछ काम रस सा जागता है । फ़िर मेरे दिल में क्यों नहीं ? और वैसे भी देवर भाभी का सम्बन्ध अनैतिक नहीं है । देवर को द्वय वर कहा गया है । दूसरा वर । यह एक तरह से समाज का अलिखित कानून है । देवर भाभी के शरीरों का मिलन हो सकता है ।
मनोज शायद तुम्हें मालूम न हो । अभी तुम दुनियादारी के मामले में बच्चे हो । अगर किसी स्त्री को उसके पति की कमी से औलाद ना होती हो । तो उसकी अतृप्त जमीन में देवर ही बीजारोपण का प्रथम अधिकारी होता है । उसके बाद । कुछ परिस्थितियों में जेठ भी । और जानते हो । ऐसा हमेशा घर वालों की मर्जी से उनकी जानकारी में होता है । वे कुँवारे और शादीशुदा देवर को प्रेरित करते हैं कि वह भाभी की उजाङ जमीन पर खुशियों की फ़सल लहलहा दे ।
नितिन के दिमाग में एक विस्फ़ोट सा हुआ । कैसा अजीव संसार है यह । शायद यहाँ बहुत कुछ ऐसा विचित्र है । जिसको उस जैसे लोग कभी नहीं जान पाते । तन्त्र दीप से शुरू हुयी उसकी मामूली प्रेतक जिज्ञासा इस लङके के दिल में घुमङते कैसे तूफ़ान को सामने ला रही थी । उसने सोचा तक न था । सोच भी न सकता था ।
- शब्द । शब्द । वह तमंचा जमीन पर रखता हुआ बोला - और शब्द । शब्दों का कमाल । कितनी हैरानी की बात थी । भाभी के शब्द आज मुझे जहर से लग रहे थे । उसके चुलवुले पन में मुझे एक नागिन नजर आ रही थी । उसके बेमिसाल सौन्दर्य में मुझे काली नागिन नजर आ रही थी । एक खतरनाक चुङैल । खतरनाक चुङैल । मुझे..अचानक उसे कुछ याद सा आया - एक बात बताओ । तुम भूत प्रेतों में विश्वास करते हो । मेरा मतलब । भूत होते हैं । या नहीं होते हैं ?
नितिन ने एक सिहरती सी निगाह काली छाया पर डाली । उसका ध्यान सरसराते पीपल के पत्तों पर गया ।
निरन्तर कभी कभी आसपास महसूस होती अदृश्य रूहों पर गया । उसने गौर से मनोज को देखा ।
और बोला - पता नहीं । कह नहीं सकता । शायद होते हों । शायद न होते हों ।
अब वह बङी उलझन में था । उसने सोचा । ये अपने दिल का गम हल्का करना चाहता है । क्या वह स्वयं इससे प्रश्न पूछे । और जल्दी जल्दी ये बताता चला जाये । और बात खत्म हो । पर तुरन्त ही उसका दिमाग रियेक्ट करता । इसके अन्दर कोई बहुत बङा रहस्य । कोई बहुत बङी आग जल रही है । जिसका निकल जाना जरूरी है । वरना शायद ये खुद को गोली भी मार ले । मार सकता था । इसलिये एक जिन्दगी की खातिर उसमें स्वयं जो क्रिया हो रही थी । वही तरीका अधिक उचित था । और तब उसे सिर्फ़ सुनना था । देखना था ।
- मनसा जोगी । वह भाव से बे स्वर बोला - रक्षा करें ।
- लेकिन मैं जानता हूँ । वह फ़िर से बोला - मैंने उन्हें कभी देखा तो नहीं । पर मुझे 100% पता है । होते हैं । और तुम जानते हो । इनके भूत प्रेत होने का जो मुख्य कारण है । बस एक ही । सेक्स । काम वासना । व्यक्ति में निरन्तर सुलगती काम वासना । काम वासना से पीङित । काम वासना से अतृप्त रहा । इंसान निश्चय ही भूत प्रेत के अंजाम को प्राप्त होता है ।
ये अचानक से क्या हो गया था । पदमिनी नायिका पदमा भावहीन चेहरे से आंगन में खिलते गमलों को देख रही थी । उसे लग रहा था । कुछ असामान्य सा था । जो एकदम घटित हुआ था । वह इतना अनुभवी भी नहीं था कि इन बातों का कोई ठीक अर्थ निकाल सके । बस यार दोस्तों के अनुभव के चलते उसे कुछ जानकारी थी ।
- भाभी ! तब अचानक वह उसकी ओर देखता हुआ बोला - एक बात बोलूँ । सच सच बताना । क्या तुम भैया से खुश नहीं हो ? क्या तुम्हें तृप्ति नहीं होती ।
दूसरी तरफ़ देखती पदमा ने यकायक झटके से मुँह घुमाया । उसने तेजी से ब्लाउज के ऊपरी तीन हुक खोल दिये । और नागिन सी चमकती आँखों से उसकी तरफ़ देखा ।
- देखो इधर । वह सख्त स्वर में बोली - ये दो बङे बङे माँस के गोले । सिर्फ़ चर्बी माँस के गोले । अगर एक सुन्दर जवान मरी औरत का शरीर लावारिस फ़ेंक दिया जाये । तो फ़िर इस शरीर को कौवे कुत्ते ही खायेंगे । मेरी ये मृगनयनी आँखें किसी प्यासी चुङैल के समान भयानक हो जायेंगी । मेरे इस सुन्दर शरीर से बदबू और घिन आयेगी । बताओ । इसमें ऐसा क्या है ? जो किसी स्त्री को नहीं पता । जो किसी पुरुष को नहीं पता । फ़िर भी कोई तृप्त हुआ आज तक । अन्तिम अंजाम । जानते हुये भी ।
- नितिन जी ! वह ठहरे स्वर में बोला - बङे ही अजीव पल थे वो । वक्त जैसे थम गया था । उस पर काम देवी सवार थी । और मुझे ये भी नहीं पता । उस वक्त उसकी मुझसे क्या ख्वाहिश थी । सच ये है कि मैं किसी सम्मोहन सी स्थिति में था । लेकिन उसका सौन्दर्य । उसके अंग । सभी मुझे विषैले नाग बिच्छू जैसे लग रहे थे । और जैसे कोई अज्ञात शक्ति मेरी रक्षा कर रही थी । मुझे सही गलत का बोध करा रही थी । शब्द जैसे अपने आप मेरे मुँह से निकल रहे थे । जैसे शायद अभी भी निकल रहे हैं । शब्द ।
लेकिन भाभी ! मेरा ये मतलब नहीं था । मैंने सावधानी से कहा - औरत की काम वासना को यदि उसके लिये नियुक्त पुरुष मौजूद हो । तब ऐसी बात कुछ अजीब सी लगती है ना । इसीलिये मैंने कहा । शायद आप अतृप्त तो नहीं हो ।
- अतृप्तऽऽऽ । अतृप्तऽऽ । अतृप्तऽऽ । अतृप्तऽऽ । अतृप्त । अतृप्त । अतृप्त । मनोज का यह शब्द रह रह कर उसके दिमाग में हथौङे सी चोट करने लगा । एकाएक उसकी मुखाकृति बिगङने लगी । उसका बदन ऐंठने लगा । उसका सुन्दर चेहरा बेहद कुरूप हो उठा । उसके चेहरे पर राख सी पुती नजर आने लगी । वह बङी जोर से हँसी । और
- हाँ ! हाँ ! उसने ब्लाउज के पल्ले पकङकर एक झटका मारा । एक झटके से ब्लाउज दूर जा गिरा - हाँ मैं अतृप्त ही हूँ । सदियों से प्यासी । एक अतृप्त औरत । एक प्यासी आत्मा । जिसकी प्यास आज तक कोई दूर न कर सका । कोई भी ।
अब तक उकताहट महसूस कर रहा नितिन एकाएक सजग हो गया । उसकी निगाह स्वतः ही काली छाया पर गयी । जो बैचेनी से पहलू बदलने लगी थी । पर मनोज उन दोनों की अपेक्षा शान्त था ।
- फ़िर क्या हुआ ? बेहद उत्सुकता में उसके मुँह से निकला ।
- कुछ नहीं । उसने भावहीन स्वर में उत्तर दिया - कुछ नहीं हुआ । वह बेहोश हो गयी ।
रात के दस बजने वाले थे । बादलों से फ़ैला अंधेरा कब का छँट चुका था । नीले आसमान में चाँद निकल आया था । उस शमशान में दूर दूर तक कोई रात्रिचर जीव भी नजर नहीं आ रहा था । सिर्फ़ सिर के ऊपर उङते चमगादङों की सर्र सर्र कभी कभी उन्हें सुनाई दे जाती थी । बाकी भयानक सन्नाटा ही सांय सांय कर रहा था । पर मनोज अब काफ़ी सामान्य हो चुका था । और बिलकुल शान्त था ।
लेकिन अब उसके मन में भयंकर तूफ़ान उठ रहा था । क्या बात को यूँ ही छोङ दिया जाये । इसके घर या अपने घर चला जाये । या घर चला ही नहीं जाये । यहीं । या फ़िर और कहीं । वह सब जाना जाये । जो इस लङके के दिल में दफ़न था । यदि वह मनोज को यूँ ही छोङ देता । तो फ़िर पता नहीं । वह कहाँ मिलता । मिलता भी या नहीं मिलता । आगे क्या कुछ होने वाला था । ऐसे ढेरों सवाल उसके दिलोदिमाग में हलचल कर रहे थे ।
- बस हम तीन लोग ही हैं घर में । वह बिलकुल सामान्य होकर बोला - मैं । मेरा भाई । और मेरी भाभी ।
वे दोनों वापस पुल पर आ गये थे । और पुल की रेलिंग से टिके बैठे थे । यह वही स्थान था । जहाँ नीचे बहती नदी से नितिन उठकर उसके पास गया था । और जहाँ उसका वेस्पा स्कूटर भी खङा था । आज क्या ही अजीव सी बात हुयी थी । उन्हें यहाँ आये कुछ ही देर हुयी थी । और ये बहुत अच्छा था । वह काली छाया यहाँ उनके साथ नहीं आयी थी । बस कुछ दूर पीछे चलकर अंधेरे में चली गयी थी । यहाँ बारबार आसपास ही महसूस होती अदृश्य रूहें भी नहीं थी । और सबसे बङी बात । जो उसे राहत पहुँचा रही थी । मनोज यहाँ एकदम सामान्य व्यवहार कर रहा था । उसके बोलने का लहजा शब्द आदि भी सामान्य थे । फ़िर वहाँ क्या बात थी ? क्या वह किसी अदृश्य प्रभाव में था । किसी जादू टोने । किसी सम्मोहन । या ऐसा ही और कुछ अलग सा ।
- फ़िर क्या हुआ ? अचानक जब देर तक नितिन अपनी उत्सुकता रोक न सका । तो स्वतः ही उसके मुँह से निकला - उसके बाद क्या हुआ ?
- कब ? मनोज हैरानी से बोला - कब क्या हुआ ? मतलब ?
नितिन के छक्के छूट गये । क्या वह किसी ड्र्ग्स आदि का आदी था । या कोई प्रेत रूह । या कोई शातिर इंसान । अब उसके इस कब का वह क्या उत्तर देता । सो चुप ही रह गया ।
- मुझे अब चलना चाहिये । अचानक वह उठता हुआ बोला - रात बहुत हो रही है । तुम्हें भी घर जाना होगा । कह कर वह तेजी से एक तरफ़ बढ गया ।
- अरे सुनो सुनो । वह हङबङा कर जल्दी से बोला - कहाँ रहते हो आप । मैं छोङ देता हूँ । सुनो भाई । एक मिनट..मनोज । तुम्हारा एड्रेस क्या है ?
- बन्द गली । उसे दूर से आते मनोज के शब्द सुनाई दिये - बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा ।
- हा हा हा । जोगी ने भरपूर ठहाका लगाया
बन्द गली । बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । हा हा हा । एकदम सही पता ।
वह एकदम हैरान रह गया । हमेशा गम्भीर सा रहने वाला उसका तांत्रिक गुरु खुल कर हँस रहा था । उसके चेहरे पर रहस्यमय मुस्कान खेल रही थी । मनसा जोगी कुछ कुछ काले से रंग का विशालकाय काले पहाङ जैसा भारी भरकम इंसान था । और कोई भी उसको देखने सुनने वाला धोखे से गोगा कपूर समझ सकता था । बस उसकी एक आँख छोटी और सिकुङी हुयी थी । जो उसकी भयानकता में वृद्धि करती थी । मनसा बहुत समय तक अघोरियों के सम्पर्क में उनकी शिष्यता में रहा था । और मुर्दा शरीरों पर शव साधना करता था । पहले उसका झुकाव पूरी तरह तामसिक शक्तियों के प्रति था । लेकिन भाग्यवश उसके जीवन में यकायक बदलाव आया । और वह उसके साथ साथ द्वैत की छोटी सिद्धियों में हाथ आजमाने लगा । अघोर के उस अनुभवी को उम्मीद से पहले सफ़लता मिलने लगी । और उसके अन्दर का सोया इंसान जागने लगा । तब ऐसे ही किन्ही क्षणों में नितिन से उसकी मुलाकात हुयी । जो एकान्त स्थानों पर घूमने की आदत से हुआ महज संयोग भर था ।
मनसा जोगी शहर से बाहर थाने के पीछे टयूब वैल के पास घने पेङों के झुरमुट में एक कच्चे से बङे कमरे में रहता था । कमरे के आगे पङा बङा सा छप्पर उसके दालान का काम करता था । जिसमें अक्सर दूसरे साधु बैठे रहते थे ।
नितिन को रात भर ठीक से नींद नहीं आयी थी । तब वह सुबह इसी आशा में चला आया था कि मनसा शायद कुटिया पर ही हो । और संयोग । वह उसे मिल भी गया था । वह भी बिलकुल अकेला । इससे नितिन के उलझे दिमाग को बङी राहत मिली थी । पूरा विवरण सुनने के बाद जब मनसा एड्रेस को लेकर बेतहाशा हँसा । तो वह सिर्फ़ भौंचक्का सा उसे देखता ही रह गया ।
- भाग जा बच्चे । मनसा रहस्यमय अन्दाज में उसको देखता हुआ बोला - ये साधना सिद्धि तन्त्र मन्त्र बच्चों के खेल नहीं । इनमें दिन रात ऐसे ही झमेले हैं । इसलिये अभी भी समय है । दरअसल ये वो मार्ग है । जिस पर जाना तो आसान है । पर लौटने का कोई विकल्प ही नहीं है ।
- मेरी ऐसी कोई खास ख्वाहिश भी नहीं । वह साधारण स्वर में बोला - पर इस दुनियाँ में कुछ चीजें लोगों को इस तरह भी प्रभावित कर सकती हैं क्या ? कि जीवन उनके लिये एक उलझी हुयी पहेली बनकर रह जाये । उनका जीना ही दुश्वार हो जाये । मैं उसे बुलाने नहीं गया था । उससे मिलना एक संयोग भर था ।
जिस मुसीवत में वो आज था । उसमें कल मैं भी हो सकता हूँ । अन्य भी हो सकते हैं । तब क्या हम हाथ पर हाथ रखकर ऐसे ही बैठे देखते रहें ।
शायद यही होता है । एक पढे लिखे इंसान । और लगभग अनपढ साधुओं में फ़र्क । मनसा इन थोङे ही शब्दों से बेहद प्रभावित हुआ । उसे इस सरल मासूम लङके में जगमगाते हीरे सी चमक नजर आयी । शायद वह एक सच्चा इंसान था । त्यागी था । और उसके हौंसलों में शक्ति का उत्साह था । सो वह तुरन्त ही खुद भी सरल हो गया ।
वही उस दिन वाला स्थान आज भी था । नदी के पुल से नीचे उतरकर । बहती नदी के पास ही बङा सा पेङ । पिछले तीन दिन से वह यहीं मनोज का इंतजार कर रहा था । पर वह नहीं आया था । मनसा ने उसे - बन्द गली । बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । का मतलब भी समझा दिया था । और भी बहुत कुछ समझा दिया था । बस रही बात मनोज को फ़िर से तलाशने की । तो मनसा ने जो उपाय बताया । वो कोई गुरु ज्ञान जैसा नहीं था । बल्कि एक साधारण बात ही थी । जो अपनी हालिया उलझन के चलते यकायक उसे नहीं सूझी थी कि - वो निश्चित ही उपचार के लिये तन्त्र दीप जलाने उसी स्थान पर आयेगा ।
सो वह पिछले तीन दिन से उसे देख रहा था । पर वह नहीं आया था । उसने एक सिगरेट सुलगायी । और यूँ ही कंकङ उठाकर नदी की तरफ़ उछालने लगा ।
- कमाल के आदमी हो भाई । मनोज उसे हैरानी से देखता हुआ बोला - क्या करने आते हो । इस मनहूस शमशान में । जहाँ कोई मरने के बाद भी आना पसन्द न करे । पर आना उसकी मजबूरी है । क्योंकि आगे जाने के लिये गाङी यहीं से मिलेगी ।
- यही बात । अबकी वह सतर्कता से बोला - मैं आपसे भी पूछ सकता हूँ । क्या करने आते हो । इस मनहूस शमशान में । जहाँ कोई मरने के बाद भी आना पसन्द न करे ।
ये चोट मानों सीधी उसके दिल पर लगी । वह बैचेन सा हो गया । और कसमसाता हुआ पहलू बदलने लगा ।
- दरअसल मेरी समझ में नहीं आता । आखिर वह सोचता हुआ सा बोला - क्या बताऊँ । और कैसे बताऊँ । मेरे परिवार में मैं मेरी भाभी और मेरे भाई हैं । हमने कुछ साल पहले एक नया घर खरीदा है । सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि अचानक कुछ अजीव सा घटने लगा । और उसी के लिये मुझे समझ नहीं आता कि मैं किस तरह के शब्दों का प्रयोग करूँ । जो अपनी बात ठीक उसी तरह कह सकूँ । जैसे वह होती है । पर मैं कह ही नहीं पाता । ये दीपक..उसने दीप की तरफ़ इशारा किया - एक उपचार जैसा बताया गया है । मुझे नहीं पता कि इसका सत्य क्या है ? यहाँ शमशान में । खास इस पीपल के वृक्ष के नीचे । कोई दीपक जला देने से भला क्या हो सकता है । मेरी समझ से बाहर है । पर आश्वासन यही दिया है । इससे हमारे घर का अजीव सा माहौल खत्म हो जायेगा ।
- क्या अजीव सा ? वह दूर देखता हुआ बोला ।
- कुछ सिगरेट वगैरह पीते हो ? वह बैचेनी से बोला ।
उसने आज एक बात अलग की थी । वह अपना स्कूटर ही यहीं ले आया था । और उसी की सीट पर आराम से बैठा था । शायद कोई रात उसे पूरी तरह वहीं बितानी पङ जाये । इस हेतु उसने बैटरी से छोटा बल्ब जलाने का खास इंतजाम अपने पास कर रखा था । और सिगरेट के एक्स्ट्रा पैकेट भी ।
सुबह के ग्यारह बजने वाले थे । पदमा काम से फ़ारिग हो चुकी थी । वह अनुराग के आफ़िस चले जाने के बाद सारा काम जल्दी से निबटाकर तब नहाती थी । उतने समय तक मनोज पढता रहता । और उसके घरेलू कार्यों में भी हाथ बँटा देता । भाभी के नहाने के बाद दोनों साथ खाना खाते ।
दोनों के बीच एक अजीव सा रिश्ता था । अजीव सी सहमति थी । अजीव सा प्यार था । अजीव सी भावना थी । जो काम वासना थी भी । और बिलकुल भी नहीं थी ।
पदमा ने बाथरूम में घुसते घुसते कनखियों से मनोज को देखा । एक चंचल शोख रहस्यमय मुस्कान उसके होठों पर तैर उठी । उसने बाथरूम का दरवाजा बन्द नहीं किया । और सिर्फ़ हलका सा परदा ही डाल दिया । परदा । जो मामूली हवा के झोंके से उङने लगता था ।
आंगन में कुर्सी पर पढते मनोज का ध्यान अचानक भाभी की मधुर गुनगुनाहट हु हु हु हूँ हूँ आऽऽ आऽऽ । पर गया । वह किताब में इस कदर खोया हुआ था कि उसे पता ही नहीं था कि भाभी कहाँ है । और क्या कर रही है ? तब उसकी दृष्टि ने आवाज का तार पकङा । और उसका दिल धक्क से रह गया । उसके कुंवारे शरीर में एक गर्माहट सी दौङ गयी ।
बाथरूम का पर्दा रह रह कर हवा से उङ जाता था । पदमा ऊपरी हिस्से से निर्वस्त्र थी । उसके पुष्ट तने दूधिया उरोज उठे हुये थे । और वह आँखें बन्द किये अपने ऊपर पानी उङेल रही थी ।
- मेरे दो अनमोल रतन । वह मादक स्वर में गुनगुना रही थी - एक है ...हु हु हु हूँ हूँ
नैतिकता अनैतिकता के मिले जुले संस्कार उस किशोर लङके के अंतर्मन को बारबार थप्पङ से मारने लगे ।
नैतिकता बारबार उसका मुँह विपरीत ले जाती थी । और प्रबल अनैतिकता का वासना संस्कार उसकी निगाहों को सीधा बहीं ले जाता था । लेकिन ये अच्छा था कि भाभी की आँखें बन्द थी । और वह उसे देखते हुये नहीं देख रही थी । फ़िर अट्टाहास करती हुयी अनैतिकता ही विजयी हुयी । और न चाहते हुये भी वह कामुक भाव से लगातार पदमा को देखने लगा ।
- औरत..औरत .एक .नग्न औरत । वह चरस के नशे में झूमता हुआ सा बोला - मैंने सुना है । शास्त्रों में ऐसा लिखा है । औरत को उसका बनाने वाला भगवान भी नहीं समझ पाया कि - आखिर ये चीज क्या बन गयी ? फ़िर मैं तो एक सीधा सादा सामान्य लङका ही था । मगर ..?
उस दिन से विपरीत आज नितिन के चेहरे पर एक अदृश्य आंतरिक खुशी सी दौङ गयी । ठीक आज भी बही स्थिति बन गयी थी । जो उस दिन खुद ब खुद थी । और बकौल मनोज के हकीकत ज्यों की त्यों उसी स्थिति में उसके मुँह से निकलती थी ।
- और उसी के लिये । उसे मनोज के शब्द याद आये - मुझे समझ नहीं आता कि मैं किस तरह के शब्दों का प्रयोग करूँ । जो अपनी बात ठीक उसी तरह कह सकूँ । जैसे वह होती है । पर मैं कह ही नहीं पाता ।
फ़िर अभी तो बहुत समय था । रात के नौ बजने में भी अभी बीस मिनट बाकी थे ।
- मनोज भाई । पदमा उसके सामने चारपाई पर बैठते हुये बोली - तुम्हें कैसी लङकियाँ अच्छी लगती हैं ? दुबली । मोटी । लम्बी । नाटी । गोरी । काली । पढी । अनपढ । शहरी । ग्रामीण ।
- क्यों पूछा ? वह हैरानी से बोला - ऐसा प्रश्न आपने ।
- क्यूँ पूछा । मतलब ? वह आँखें निकाल कर बोली - मैं तेरी भाभी हूँ । सुबह सुबह जब मैं उठती हूँ । मुझे तम्बू में बम्बू तना दिखाई नहीं देता क्या । देख मेरी आँखें कितनी बङी बङी हैं । ये अन्दर तक देख सकती हैं । पर ओ डवल्यू एल तूने पूछा ही है । क्यूँ पूछा । तो बता देती हूँ । उसमें कौन सी कोई चोरी वाली बात है । बता तेरे लिये लङकी कौन तलाश करेगा ? बोल । बोल । फ़िर अपना बम्बू किस तम्बू में..?
- लगता है ना । सब कुछ अश्लील सा । वह फ़िर से बोला - मगर सोचो । तो वास्तव में है नहीं । ये सिर्फ़ पढने सुनने में अश्लील लग सकता है । किसी पोर्न चीप स्टोरी जैसा । पर ठीक से सोचो । भाभियों को इससे भी गहरे और खुले मजाक करने का सामाजिक अधिकार हासिल है । प्रायः ऐसे खुले शब्दों वाक्यों का प्रयोग उस समय होता है । जिनको कहीं लिखा भी नहीं जा सकता । और मैं तुमसे कह भी नहीं सकता । बताओ इसमें कुछ गलत है क्या ?
नितिन ने पहली बार सहमति में सिर हिलाया । वह सच्चाई के धरातल पर बिलकुल सत्य ही बोल रहा था । यकायक फ़िर उसकी निगाह पीछे से चलकर आती उसी काली छाया पर गयी । शायद आज वह देर से आयी थी । उसने एक नजर शमशान के उस हिस्से पर डाली । जहाँ चिता सजायी जाती थी । वह गौर से उधर देखती रही । फ़िर चुपचाप उनसे कुछ ही दूर बैठ गयी ।
कहते हैं । सौन्दर्य और कुरूपता । नग्नता और वस्त्र आदि आवरण । देखने वाले की आँखों में होते हैं । दिमाग में होते हैं । न कि उस व्यक्ति में । जिसमें ये दिखाई दे रहा है । हम किसी को जब बेहद प्यार करते हैं । तो साधारण शक्ल सूरत वाला वह व्यक्ति भी हमें खास नजर आता है । बहुत सुन्दर नजर आता है । और लाखों में एक नजर आता है । क्योंकि हम अपने भावों की गहनता के आधार पर उसका चित्रण कर रहे होते हैं ।
- नितिन जी ! वह फ़िर से बोला - ये ठीक है कि मेरी भाभी एक आम स्त्री के चलते वाकई सुन्दर थी । और सर्वांग सुन्दर थी । इतनी सुन्दर । इतनी मादक । इतनी नशीली कि खुद शराब की बोतल अपने अन्दर भरी सुरा से मदहोश होकर झूमने लगे ।
पर मेरे लिये वह एक साधारण स्त्री थी । एक मातृवत औरत । जो पूर्ण ममता से मेरे भोजन आदि का ख्याल रखती थी । वह हमारे छोटे से घर की शोभा थी । मैं उसकी सुन्दरता पर गर्वित तो था । पर मोहित नहीं । उसकी सुन्दरता उस दृष्टिकोण से मेरे लिये आकर्षण हीन थी कि मैं उसे अपनी बाँहों में मचलने वाली रूप अप्सरा की ही कल्पनायें करने लगता । मुझे ठीक समझने की कोशिश करना भाई । मैं उसके स्तन नितम्ब आदि काम अंगों को कभी कभी खुद को सुख पहुँचाने वाले भाव से अवश्य देख लेता था । पर इससे आगे मेरा भाव कभी न बढा था । और ये भाव शायद मेरा नहीं । सबका होता है । एक सामान्य स्त्री पुरुष आकर्षण भाव । क्योंकि मैं ये भी अच्छी तरह जानता था कि वह मेरी भाभी है । और भाभी माँ समान भी होती है । होती है । क्या वो थी । मेरी माँ । भाभी माँ । बोलो कुछ गलत कहा मैंने ?
नितिन एक अजीव से मनोबैज्ञानिक झमेले में फ़ँस गया । उसका इंट्रेस्ट सिर्फ़ इस बात में था कि उसके घर में ऐसी क्या परेशानी है । जिसके चलते वह शमशान में तंत्र दीप जलाता है । ये काली औरत की अशरीरी छाया से इस लङके का क्या सम्बन्ध है ? और वो उसको मनुष्य के काम सम्बन्धों काम भावनाओं का मनोबिज्ञान पूरी दार्शनिकता से समझा रहा था । शायद । उसने सोचा । अपनी बात पूरी करते करते ये गलत को सही सिद्ध कर दे । और कर क्या दे । बराबर करे ही जा रहा था ।
- लेकिन । उसने उकता कर बात का रुख मोङने की कोशिश की ।
- हाँ लेकिन । वह फ़िर से जैसे दूर से आते स्वर में बोला - ठीक यही कहा था मैंने । लेकिन भाभी किसी और लङकी की जरूरत ही क्या है ? तुम मेरे लिये खाना बना देती हो । कपङे धो देती हो । फ़िर दूसरी और लङकी क्यों ?
पदमा वाकई पदमिनी नायिका थी । अंग अंग से छलकती मदिरा । बंधन तोङने को मचलता सा उन्मुक्त यौवन । नहाने के बाद उसने आरेंज कलर की ब्रा रहित मैक्सी पहनी थी । और लगभग पारदर्शी उस झिंगोले में आरेंज फ़्लेवर सी ही गमक रही थी । रूप की रानी । स्वर्ग से प्रथ्वी पर उतर आयी अप्सरा ।
उसने मैक्सी के बन्द ऊपर नीचे अजीव आङे टेङे अन्दाज में लगाये थे कि उसे चोरी चोरी देखने की इच्छा का सुख ही समाप्त हो गया । उसका अंग अंग खिङकी से झांकती सुन्दरी की तरह नजर आ रहा था । उसके सामने भाभी नहीं । सिर्फ़ एक कामिनी औरत ही थी ।
- मनोज ! उसने भेदती निगाहों से उसे देखा - अभी शायद तुम उतना न समझो । पर हर आदमी में दो आदमी होते हैं । और हर औरत में दो औरत । एक जो बाहर से नजर आता है । और एक जो अन्दर होता है । अन्दर..उसने एक निगाह उसके शरीर पर खास डाली - इस अन्दर के आदमी की हर औरत दीवानी है । और क्योंकि अन्दर से तुम पूर्ण पुरुष हो । पूर्ण पुरुष । छोटे स्केल से दो इंच बङे । और बङे स्केल से चार इंच छोटे ।
नितिन हैरान रह गया । यकायक तो उसकी समझ में नहीं आया कि ये क्या कह रहा है । फ़िर वह ठहाका लगा उठा । नशे मे हुआ बेहद गम्भीर मनोज भी सब कुछ भूलकर उसके साथ ही हँसने लगा ।
- हाँ बङे भाई ! वह फ़िर से बोला - ठीक यही भाव मेरे मन में आया । जो सामान्यतः इस वक्त तुम्हारे मन में आया । पहले तो मैं समझा ही नहीं कि भाभी क्या बोल रही है । और कहाँ बोल रही है ? शब्द । इसलिये कमाल के होते है ना शब्द भी । पवित्र । अपवित्र । द्वेष । कामुक । अश्लील । राग । वैराग । सब शब्द ही तो हैं ।..सोचो मेरे भाई । कोई भी हमारे बारे में जाने क्या क्या सोच रहा है । क्या देख रहा है ? हम कभी जान सकते हैं क्या ? बोलो कभी जान सकते हैं क्या ?
- अरे पगले राजा ! पदमा फ़िर इठला कर बोली - इन सब बातों को इतना सीरियस भी मत ले । ये देवर भाभी की कहानी है । एक ऐसा रोमांस है । जिसको रोमांस नहीं कह सकते । फ़िर भी होता रोमांस जैसा ही है ।.देख मैं ही बताती हूँ । मेरी सोच क्या है ? मैं रूप कला । रूप की रानी । रूपसी । रूप स्वरूपा । फ़िर यदि लोग मुझे देख कर आहें ना भरें । तब इस रूप के रूप का क्या मतलब ? हर रूपवती चाहती है कि लोगों पर उसक्के रूप का यही असर हो । रूप का रूप जाल । और निसंदेह तब मैं भी ऐसा ही चाहती हूँ । क्योंकि मेरा रूप अच्छी अच्छों का रूप फ़ीका कर देता है ।
फ़िर एक बात और । अभी तुम आयु के जिस दौर से गुजर रहे हो । तुम्हें औरत को सिर्फ़ इसी रूप में देखना अच्छा लगेगा । न कोई माँ । न कोई बहन । न भाभी बुआ मौसी आदि । सिर्फ़ औरत । औरत । जो पहले कभी लङकी होती है । फ़िर औरत । औरत । तव हम दोनों की ये नयन सुख वासना पूर्ति घर में ही हो जायेगी । क्यों मुझे कोई और ताके । और क्यों तुम बाहर ललचाओ ।
काफ़ी एक्सपर्ट लगती है आपकी भाभी । नितिन भी थोङा थोङा रस सा लेता हुआ बोला - मेरे ख्याल में ऐसी गुणवान रूपवती स्त्री का कोई विवरण न मैंने आज तक सुना । न कभी पढा ।
- एक बात बताओ । अचानक मनोज उसे गौर से देखता हुआ बोला - तुमने कभी किसी लङकी किसी औरत से प्यार किया है ?
उसने ना में सिर हिलाया । और बोला - इस तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं गया । शायद मेरे स्वभाव में एक रूखापन है । और इससे उत्पन्न चेहरे की रिजर्वनेस से किसी लङकी की हिम्मत नहीं पङी होगी । मनोज जैसे सब कुछ समझ गया ।
- एक बात बताओ भाभी ! मनोज हैरानी से बोला - ऐसी जबरदस्त लङकी । मीन यू । मनचले लफ़ंगों से किस तरह बची रही । और खुद तुम कभी किसी से प्यार नहीं कर पायीं । ऐसा कैसे सम्भव हो सका ?
पदमिनी पदमा ने एक गहरी सांस ली । जैसे उसकी दुखती रग को किसी ने छेङ दिया हो ।
- अभी क्या बोलूँ मैं । वह माथे पर हाथ रख कर बोली - पहले बताया तो था । उसकी वजह से तो ये पूरा लफ़ङा ही बना है । वरना आज कहानी कुछ और ही होती । फ़िर उसे या मुझे रोज रोज नयी नयी कहानी क्यों लिखनी होती ? अजीव पागल था । मुझ साक्षात रूप की रानी में उसकी कोई दिलचस्पी ही न थी । अदृश्य के चक्करों में ही पङा रहता ।.. हाय राजीव ! तुमने ऐसा क्यों किया ? मेरा रूप जवानी एक बार तो देखा होता ।..अब मैं क्या करती । वो फ़िर साधु हो गया ।
- ले लेकिन । वह बोला - किसी एक के न होने से क्या होता है । बहुत से सुन्दर हेल्दी छोरे आपके आगे पीछे घूमते ।
- मनोज ! एकाएक वह सामान्य स्वर में बोली - तुम किसी लङकी का दिल नहीं समझ सकते । कोई भी लङकी अपने पहले प्यार को कभी नहीं भूल पाती । उसका तिरस्कार करने उपेक्षा करने वाले प्रेमी के लिये फ़िर उसकी एक जिद सी बन जाती है । तब मेरी भी ये जिद बन गयी कि मैं उसे अपना प्यार मानने पर मजबूर कर दूँगी । पर करती तो तब ना । जब वह सामान्य आदमी रहता । वह तो साधु ही बन गया । तब बताओ । मैं क्या करती । साधुओं के आगे पीछे घूमती क्या ? फ़िर भी वो मेरे दिल से आज तक नहीं निकला ।
कैसी अजीव उलझन थी । अगर वह इसको कोई केस मानता । कोई अशरीरी रूह प्रयोग मानता । तो फ़िर उसकी शुरूआत भी नहीं हुयी थी । देवर भाभी सम्बन्ध पर मनोबैज्ञानिक मामला मानता । तो भी बात ठीक ठीक समझ में नहीं आ रही थी । उसे अब तक यही लगा था कि एक भरपूर सुन्दर और जवान युवती देवर में अपने वांछित प्रेमी को खोज रही है । अब कोई आम देवर होता । तो उसने देवर दूसरा वर का सिद्धांत सत्य कर दिया होता । लेकिन मामला कुछ ऐसा था । भाभी डाल डाल तो देवर पात पात । पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है ।
एक बात और भी थी । ये भाभी देवर की लोलिता टायप सेक्स स्टोरी होती । तो भी वह उसे उसके हाल पर छोङकर कब का चला गया होता । पर उसका अजीवोगरीब व्यवहार । उसके पास रहती काली छाया । उसका एड्रेस बताने का अजीब स्टायल । वह इनमें आपस में कोई मिलान नहीं कर पा रहा था । और सबसे बङी प्राब्लम ये थी कि वह शायद किसी सहायता का इच्छुक ही न था । वह किसी प्रेत बाधा को लेकर परेशान था भी या नहीं । तय करना मुश्किल था । उससे सीधे सीधे कुछ पूछा नहीं जा सकता था । और जब वह बोलता था । तो भाभी पुराण शुरू कर देता । यहाँ तक कि नितिन की इच्छा अपने बाल नोचने की होने लगी । या तो ये लङका खुद पागल था । या उसे पागल करने वाला था । उसने एक नजर फ़िर उस काली छाया पर डाली । वो भी बङी शान्ति से किसी जासूस की तरह बस उनकी बातें ही सुन रही थी । अचानक ही उसे ख्याल आया । कहीं ऐसा तो नहीं कि वह किसी चक्र व्यूह में फ़ँसा जा रहा हो । वह खुद को होशियार समझ रहा हो । जबकि ये दोनों उसे पागल बनाकर कोई मोहरा आदि बना रहे हों । वह तेजी से समूचे घटना कृम पर विचार करने लगा । तब एकाएक उसके दिमाग में बिजली सी कौंधी । और फ़िर ।
- देखिये मनोज जी ! वह सामान्य स्वर में वोला - एक बात होती है । जैसे हर युवा होती लङकी को स्वयँ में ही खास सुन्दरता नजर आती है । उसे लगता है वह कुछ खास है । और सबकी निगाह बस उसी पर रहती है ।
पर ये सच नहीं होता । लोगों को वह लङकी नहीं । उसमें पैदा हो चुका सेक्स आकर्षण प्रभावित करता है । एक तरह से इसको मानसिक सम्भोग भी कह सकते हैं । और सामान्यतयाः ये हरेक स्त्री पुरुष करता है । फ़िर वह विवाहित हो । या शादीशुदा । वृद्ध । अधेङ । जवान हो । या किशोर । काम भावना वह जन्म के साथ लेकर ही आता है । अटैच्ड ।
इसलिये मुझे नहीं लगता । आप जो भी बता रहे हैं । उसमें कुछ खास बताने जैसा है । ये बस एकान्त के वे अंतरंग क्षण हैं । जिनमें हम विपरीत लिंगी से अपनी कुछ खास भावनायें जाहिर करते हैं । आपकी भाभी सुन्दर थी । उन्हें खुद का सौन्दर्य बोध था । और इसलिये वह स्वाभाविक ही चाहती थी कि उनके रूप का जादू हरेक के सर चढकर बोले । अतः इसमें कुछ अजीव नहीं । कुछ खास नहीं ।
- हाँ ! वह कुछ ठहर कर उसका चेहरा पढता हुआ सा बोला - एक बात है । जो अलग हो सकती है । आपकी भाभी में काम भावना सामान्य से बेहद अधिक हो । और वह आपके भाई से पूर्ण सन्तुष्टि न पाती हों । या उन्हें अलग अलग पुरुषों को भोगना अच्छा लगता हो । और इस स्तर पर वह अपने आपको अतृप्त महसूस करती हो । यस अतृप्त । अतृप्प्त ।
मनोज के चेहरे पर जैसे भूचाल नजर आने लगा । वह एक झटके से उठकर खङा हो गया । उसने नितिन का गिरहबान पकङ लिया ।
और दांत पीसता हुआ बोला - हरामजादे । क्या बोला तू ? अतृप्त ।
नितिन के मानों छक्के ही छूट गये । उसे ऐसी कतई उम्मीद ही न थी । वह एकदम हङबङा कर रह गया । मनोज ने तमंचा निकाला । और उसकी तरफ़ तानता हुआ बोला - मैं तुझे बुलाने गया था कि सुन मेरी बात ? फ़िर तूने मेरी भाभी को अतृप्त कैसे बोला । प्यासी । प्यासी औरत । वासना की भूखी ? हरामजादे ! मैं तेरा खून कर दूँगा ।
वह चाहता । तो एक भरपूर मुक्के में ही इस नशेङी को धराशायी कर देता । उसकी सब दादागीरी निकाल देता । पर इसके ठीक उलट उसने अपना कालर छुङाने की कोशिश भी नहीं की । मनोज कुछ देर उसे खूँखार नजरों से देखता रहा ।
फ़िर बोला - बता कौन ऐसा है । जो अतृप्त नहीं है । तू मुझे सेक्स से तृप्त हुआ एक भी आदमी औरत बता । तू मुझे धन से तृप्त हुआ एक भी आदमी औरत बता । तू मुझे सभी इच्छाओं से त्रुप्त हुआ एक भी बन्दा बता । फ़िर तू ही कौन सा तृप्त है ? कौन सी प्यास तुझे यहाँ मेरे पास रोके हुये है । साले मैंने कोई तुझसे मिन्नते की क्या ? बोल बोल ? अब बोल । अतृप्त ।
- मनोज ! यदि तुम ऐसा सोचते हो । पदमा अपनी हिरनी जैसी बङी बङी काली आँखों से उसकी आँखों में झांक कर बोली - कि मैं तुम्हारे भाई से तृप्त नहीं होती । तो तुम गलत सोचते हो । दरअसल वहाँ त्रुप्त अतृप्त का प्रश्न ही नहीं है । वहाँ सिर्फ़ रुटीन है । पति को यदि पत्नी शरीर की भूख है । तो पत्नी उसका सिर्फ़ भोजन है । वह जब चाहते हैं । मुझे नंगा कर देते हैं । और जो जैसा चाहते हैं । करते हैं । मैं एक खरीदी हुयी वैश्या की तरह मोल चुकाये पुरुष की इच्छानुसार आङी तिरछी होती रहती हूँ ।
तुम यकीन करो । उन्हें मेरे अपूर्व सौन्दर्य में कोई रस नहीं । मेरे अप्सरा बदन में उन्हें कोई खासियत कभी नजर ही नहीं आती । उनके लिये मैं सिर्फ़ एक शरीर मात्र हूँ । घर की मुर्गी । जो किसी खरीदी गयी वस्तु की तरह उनके लिये मौजूद रहता है । अगर समझ सको । तो मेरे जगह साधारण शक्ल सूरत वाली । साधारण देहयष्टि वाली औरत भी उस समय हो । तो भी उन्हें बस उतना ही ? मतलब है । उन्हें इस बात से फ़र्क नहीं । वह सुन्दर है । या फ़िर कुरूप । उस समय बस एक स्त्री शरीर । यही हर पति की जरूरत भर है । और मैं उनकी भी गलती नहीं मानती । उनके काम व्यवहार के समय मैं खुद रोमांचित होने की कोशिश करूँ । तो मेरे अन्दर कोई तरंगे ही नहीं उठती । जबकि हमारी शादी को अभी सिर्फ़ चार साल ही हुये हैं ।
- एक सिगरेट .सिगरेट । मनोज नदी की तरफ़ देखता हुआ बोला - दे सकते हो ।
खामोश से खङे उस बूढे पीपल के पत्ते रहस्यमय ढंग से सरसरा रहे थे । काली छाया औरत जाने किस उद्देश्य से शान्त बैठी थी । और रह रह कर बीच बीच में शमशान के उस आयताकार काले स्थान को देख लेती थी । जहाँ आदमी जिन्दगी के सारे झंझटों को त्याग कर एक शान्ति की मीठी गहरी नींद में सोने के लिये हमेशा को लेट जाता था ।
- तुमने कभी सोचा मनोज ! पदमा जैसे बैठे बैठे हुये थक कर उसके पास ही लेटती हुयी बोली
 एक सुन्दर जवान औरत कितनी आकर्षक लगती है । रंग बिरंगे लचकते मचकते फ़ूलों की डाली जैसी । तुम ध्यान दो । तो औरत के हर अंग से रस टपकता है । वह रस से लबालब भरी रसभरी होती है । होठों में रस । गालों में रस । आँखों में रस । छातियों में रस । जंघाओं में रस । नाभि में रस । नितम्बों में रस । अदाओं में रस । वाणी में रस । चितवन में रस । सर्वांग रस ही रस । सोचो । कोई एक स्थान बता सकते हो । जहाँ रस ना हो ? पूर्ण रसमय औरत । प्रकृति का मधुर संगीत औरत । देव की अनूठी कलाकृति । और वो राजीव कहता था - माया । नारी साक्षात माया । बताओ । मुझ में अखिर माया वाली क्या बात है ?
- सुनो बङे भाई ! मनोज उसकी तरफ़ देखता हुआ बोला - मैंने अब तक जो भी कहा । उसमें तुम ऐसा एक भी शब्द बता सकते हो । जो झूठा हो । असत्य हो । जिसकी बुनियाद न हो । इसीलिये मैं कहता हूँ । ये दुनियाँ साली एक पाखण्ड है । एक झूठ रूपी बदबू मारते कूङे का ढेर । ये जिस जीने को जीना कहती है । वह जीना जीना नहीं । एक गटर लाइफ़ है । जिसमें बिजबिजाते कीङे भी अपने को श्रेष्ठ ही समझते हैं ।
जैसे ठीक उलटा हो रहा था । खरबूजा छुरी को काटने पर आमादा था । वह उसका इलाज करना चाहता था । यह लङका खुद उसका इलाज किये दे रहा था । उसकी सोच झटका सा खाने लगी थी । उसकी विचार धारा ही चेंज हो जाना चाहती थी । और आज जिन्दगी में वह कितना वेवश खुद को महसूस कर रहा था । वह इस कहानी को बीच में अधूरा भी नहीं छोङ सकता था । और पूरी कब होगी । उसे कोई पता न था । होगी भी या न होगी । ये भी नहीं पता । उसकी कोई भाभी है । नहीं है । कहाँ है ? कैसी है । कुछ पता नहीं । देखना नसीब होगा । नहीं होगा । आगे क्या होगा । कुछ भी पता नहीं । क्या कमाल का लेखक था इसका । कहानी न पढते बनती । न छोङते बनती । बस सिर्फ़ जो आगे हो । उसको जानते जाओ ।
- लेकिन तुम औरत को कभी नहीं जान सकते मनोज । पदमा उसका हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाती हुयी बोली - जब तक कि वह खुद न चाहे कि तुम उसे जानो । और कितना जानो । किसी औरत को ऐसा नंगा करना असंभव है । उसके पति के लिये भी । वह जिसको पूर्ण समर्पित होती है । बस उसी के लिये नंगी होती है । दूसरा उसे कोई कभी नंगी कर ही नहीं सकता ।
उसने उसका हाथ सहलाते सहलाते हुये अपने लगभग अर्धनग्न स्तन पर सटा लिया । और घुटना उठाकर मोङा ।
उसकी सिल्की मैक्सी घुटने से नीचे सरक गयी । बस फ़िर वह मुर्दा सी होकर रह गयी ।
उसकी हथेली से सटे उस दूधिया गोरे पुष्ट स्तन से निकलती ऊर्जा तरंगे मनोज के जिस्म में एक नयी अनुभूति का संचार करने लगी । वह अनुभूति जिसकी उसने आज तक कल्पना भी नहीं की थी । मात्र एक निष्क्रिय रखा हाथ स्त्री उरोज के सिर्फ़ स्पर्श से ऐसी सुखानुभूति करा सकता है । शायद बिना अनुभव के वह कभी सोच तक नहीं पाता ।
- भूल जाओ ।.. भूल जाओ । अपने आपको । उसे आँख बन्द किये पदमा की बेहद मादक बुदबुदाती सी धीमी आवाज सुनाई दी - भूल जाओ कि तुम क्या हो । भूल जाओ कि मैं क्या हूँ । जो स्वयं होता है । होने दो । उसे रोकना मत ।
एक विधुत प्रवाह सा निरन्तर उसके शरीर में दौङता जा रहा था । उस पदमिनी के अस्फ़ुट शब्दों में एक जादू सा समाया था । वह वास्तव में ही खुद को भूलने लगा । उसे भाभी भी नजर नहीं आ रही थी । पदमा भी नजर नही आ रही थी । पदमिनी नायिका भी नहीं । कोई औरत भी नहीं । बस एक प्राकृतिक मादक सा संगीत उसे कहीं दूर से आता सा प्रतीत हो रहा था - प्यास .. प्यास .. अतृप्त ..अतृप्त ।
स्वतः ही उसके हाथ उंगलियाँ शरीर सब कुछ हलचल में आ गये । उसके हाथों ने मैक्सी को वक्ष से हटा दिया । और आहिस्ता आहिस्ता वह उन साजों पर सुर ताल की सरगम सी छेङने लगा ।
- आऽऽह ..आऽऽ ! उस जीते जागते मय खाने बदन से उस अंगूरी के मादक स्वर उठे - आऽऽई ..प्यास .. प्यास .. अतृप्त ..अतृप्त ।
- सोचो बङे भाई । वह ऊपर पीपल को देखता हुआ बोला - इसमें क्या गलत था ? कोई जबरदस्ती नहीं । यदि अच्छा न लग रहा हो । तो कहानी पढना सुनना बन्द कर सकते हो । पढना मैंने इसलिये कहा । क्योंकि ये कहानी तुम्हारे अन्दर उतरती जा रही है । इसलिये तुम मेरे बोले को लिखे की तरह सुनने द्वारा पढ ही तो रहे हो ।
- छोङो मुझे । अचानक पदमा उसे चौंकाती हुयी सी झटके से उठी । उसने जबरदस्ती उसका हाथ अपने स्तनों से हटाया । और मैक्सी के बन्द सही से लगाती हुयी बोली - ये सब गलत है । मैं तुम्हारी भाभी हूँ । ये अनैतिक है । पाप है । हमें नरक होगा ।
नितिन भौंचक्का रह गया । अजीव औरत थी । ये लङका पागल होने से कैसे बचा रहा ? जबकि वह सुनकर ही पागल सा हो रहा था । वास्तव में वह सही कह रहा था - कोई जबरदस्ती नहीं । यदि अच्छा न लग रहा हो । तो कहानी पढना सुनना बन्द कर सकते हो । और उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि कहानी अच्छी है । या बुरी । वह सुने । या ना सुने ।
- चौंको मत राजा ! वह अपने कजरारे नयनों से उसे देख कर बोली - अब ये मैं हूँ । तुम्हारी भाभी । पदमिनी पदमा । फ़िर वह कौन थी ? जो मादक आंहे भर रही थी । और सोचो मेरे दिलवर । ये तुम हो । लेकिन मेरे यौवन फ़लों का रस लेने वाला वह कौन था ? दरअसल ये सब हो रहा है । जो अभी हुआ । वो खुद हुआ ना । ना मैंने किया । ना तुमने किया । खुद हुआ ना । बोलो हुआ कि नहीं ?
लेकिन अब हमारे सामाजिक नैतिक बोध फ़िर से जागृत हो उठे । सिर्फ़ इतनी ही बात के लिये मुझे घोर नरक होगा । तुम्हें भी होगा । फ़िर वहाँ हम दोनों को तप्त जलती विपरीत लिंगी मूर्तियों से सैकङों साल लिपटाया जायेगा । क्योंकि मैंने पर पुरुष का सेवन किया है । और तुमने माँ समान भाभी का । और ये धार्मिक कानून के तहत घोर अपराध है । लेकिन मैं तुमसे पूछती हूँ । जब तुम मेरे स्तनों को मसल रहे थे । और मैं आनन्द में डूबी सिसकियाँ भर रही थी । तब क्या वहाँ कोई पदमा मौजूद थी । या कोई भाभी थी । तब क्या वहाँ कोई मनोज मौजूद था । या कोई देवर था । वहाँ थे सिर्फ़ एक स्त्री । और एक पुरुष । एक दूसरे में समा जाने को आतुर । प्यासे.. प्यास .. प्यास .. अतृप्त ..अतृप्त । फ़िर हमें सजा किस बात की ? हमें नरक क्यों ?
उसे बहुत बुरा लग रहा था । ये अचानक उस बेरहम औरत ने क्या कर दिया । वह बेखुद सा मस्ती की रसधार में बहा जा रहा था । वह सोचने लगा था कि वो उसको पूर्ण समर्पित है । पर यकायक ही उसने कैसा तिलिस्मी रंग बदला था ।
- बोलो । जबाब दो मुझे । मनोज तुम जबाब दो मुझे । वह उसकी आँखों में आँखें डालकर बोली - अब कैसा लग रहा है तुम्हें ? मैंने तो तुम्हें कुछ दिया ही । तुम्हारा कूछ लिया क्या । फ़िर क्यों बैचेन हो । क्यों ऐसा लग रहा है । तुमसे यकायक कुछ छीन लिया गया । तुम्हारी चाह भटक कर रह गयी । तृप्त नहीं हुयी । क्यों अपने को अतृप्त महसूस कर रहे हो ?
- बोलो बङे भाई । मनोज बोला - है कोई जबाब ? उसने एक करारा तमाचा सा मारा था । इस दुनियाँ के कानून को । ये कानून जो मचलते जवान अरमानों का सिर्फ़ गला घोंटना ही जानता है ।
उसे एक तेज झटका सा लगा । कमाल की कहानी है । जो नियम अनुसार पूरी गलत है । पर सच्चाई के धरातल पर पूरी सही । क्या कहता वह । ये लङका और उसकी अनदेखी अपरचित नायिका भाभी मानों उसकी पूरी फ़िलासफ़ी ही बदल देना चाहते थे ।
उसे परम्परागत धारणा से उपजे अपने ही तर्क में कोई दम नजर न आया । फ़िर भी वह जिद भरे खोखले स्वर में बोला - किसी भी बात को अपने भाव अनुसार अच्छे बुरे में बदला जा सकता है । जन्मदायी माँ को । बाप की लुगाई । पिता की जोरू भी कह सकते हैं । और आदरणीय माँ भी कह सकते हैं । माँ तूने मुझे जन्म दिया । ऐसा भी कह सकते है । और तेरे और पिता की वासनामयी भूख का परिणाम हूँ मैं । ऐसा भी कह सकते हैं । ये सब अपनी अपनी जगह ठोस सत्य हैं । पर तुम कौन सा सत्य पसन्द करोगे ? एक ही बात स्थिति से बने भाव अनुसार मधुर और तल्ख दोनों हो सकती है ।
- हुँऽऽ ! मनोज ने एक गहरी सांस ली । और वह गम्भीर होकर विचार मग्न सा हो गया । उसने एक गहरा कश लगाया । और ढेर सा धुँआ बाहर निकाला ।
सुबह 6 बजे से कुछ पहले ही पदमा उठी । अनुराग अभी भी सोया पङा था । मनोज हमेशा की तरह खुली छत पर निकल गया था । और कच्छा पहने कसरत कर रहा था । नित्य निवृत होकर उसने अपने हर समय ही खिले खिले मुँह पर अंजुली से पानी के छींटे मारे । तो वे खूबसूरत गुलाव पर ओस की बूँदों से बने मोतियों के समान चमक उठे । वह अभी भी रात वाला झिंगोला ही पहने थी । जो स्तनों के पास से अधखुला था । उसने चाय तैयार की । और कमरे में अनुराग के पास आ गयी । पर उसकी सुबह अभी भी नहीं हुयी थी ।
उसकी सुबह शायद कभी होती ही न थी । एक भरपूर मीठी लम्बी नींद के बाद उत्पन्न स्वतः ऊर्जा और नव स्फ़ूर्ति का उसमें अभाव सा ही था । वह थका हुआ इंसान था । जो गधे घोङे की तरह जिन्दगी का बोझा ढो रहा था । वे दोनों एक ही बिस्तर पर पास पास लेटते थे । पर इस पास होने से शायद दूर होना बहुत अच्छा था । तब दिल को सबर तो हो सकता था ।
कल रात वह बेकल हो रही थी । घङी टिक टिक करती हुयी ग्यारह अंक को स्पर्श करने वाली थी । ग्यारह । यानी एक और एक । एक पदमा । एक अनुराग । पर क्या इसमें कोई अनुराग था ? वह एक उमगती स्त्री । और वह एक अलसाया बुझा बुझा पुरुष । वह हल्का हल्का सा नींद में था । घङी की छोटी सुई 54 बिन्दु पर थी । बङी सुई 45 बिन्दु पर थी । सेकेण्ड की सुई बैचेन सी चक्कर लगा रही थी ।
हर सेकेण्ड के साथ उसकी भी बैचेनी बढती जा रही थी । उसने अपनी ढीली ढाली मैक्सी को ऊपर से खोल लिया । और उससे सटती हुयी उसके सीने पर हाथ फ़ेरने लगी ।
- शऽऽ शीऽऽ ऐऽ..सुनो । वह फ़ुसफ़ुसाई । उसने हूँ हाँ करते हुये करवट बदला । और पलट कर सो गया - बहुत थका हूँ.. पद..मा । सोने.. दे ।
वह तङप कर रह गयी । उसने उदास नजर से घङी को देखा । छोटी सुई हल्का सा और सरक गयी थी । बङी सुई उसके ऊपर छाने लगी थी । फ़िर बङी सुई ने छोटी को कसकर दबा लिया । और छोटी सुई मिट सी गयी । सेकेण्ड की सुई खुशी से गोल गोल घूमने लगी । टिक टिक .. प्यास .. प्यास .. अतृप्त ..अतृप्त ।
कितना मधुरता आनन्द से भरा जीवन है । बारह घण्टे में बारह बार मधुर मिलन । टिक टिक .. प्यास .. प्यास .. त्रुप्त..त्रुप्त..अ    ृप्त ..अतृप्त
- अब उठो ना । वह उसे झिंझोङती हुयी पूर्ण मधुरता से बोली - जागो मोहन प्यारे । कब तुम्हारी सुबह होगी ? कब तुम जागोगे । देखो । चिङियाँ चहकने लगी हैं । कलियाँ खिलने लगी हैं ।
वह हङबङाकर उठ गया । उसकी आँखों के सामने सौन्दर्य की साक्षात देवी थी । उसकी बङी बङी काली आँखें अनोखी आभा से चमक रही थी । उसके अधखुले उरोज किन्हीं पक्षियों के समान घोसलों से झांक रहे थे । पतली पतली काली लटें उसके सुन्दर चेहरे को चूम रही थी । खन खन बजती उसकी चूङियाँ संगीत के सुर छेङ रही थी । उसके पतले पतले सुर्ख रसीले होठों में एक प्यास सी मचल रही थी ।
- इस तरह.. क्या देख रहे हो ? वह फ़ुसफ़ुसा कर उसको चाय देती हुयी बोली - मैं पदमा हूँ ।.. तुम्हारी बीबी ।
वह जैसे मोहिनी सम्मोहन से बाहर आया । और उसके स्तनों पर हाथ फ़ेरता हुआ बोला - सारी यार ! बङा थक जाता हूँ । कभी कभी..मैं महसूस करता हूँ । तुम्हें समय नहीं दे पाता ।
- मैं.. जानती.. हूँ । वह घुंघरुओं की झंकार जैसे मधुर स्वर में बोली - लेकिन मुझे शिकायत नहीं । बाद में ..ऐसा हो ही जाता है ।..सभी पुरुष..ऐसा ही तो करते हैं ।..फ़िर उसको सोचना कैसा ? है ना ।
- बङे भाई ! मनोज उसको सपाट नजरों से देखता हुआ बोला - उस दिन मैंने हारा हुआ पुरुष देखा । मैं नीचे उतर आया था । मेरा भाई पराजित योद्धा । हारे हुये जुआरी के समान । लज्जित सा नजरें झुकाये । उसके सौन्दर्य की चमक से चकाचौंध हो रहा था । पत्नी की जगमग जगमग आभा के समक्ष । आभाहीन पति । जबकि वह बिना किसी शिकायत के । बिना किसी व्यंग्य के । पूर्ण प्रेम भाव से ही उसे देख रही थी । उसे । जो उसका पति था । स्वामी । पतिदेव ।
- बोलो । अचानक वह जोर से चिल्लाया - इसमें क्या माया थी ? फ़िर कोई राजीव । कोई साधु । कोई धर्म शास्त्र । इस देवी समान गुण युक्त स्त्री को माया क्यों कहते हैं ? बोलो । जबाब दो । या देवी सर्वभूते । नमस्तुभ्ये । नमस्तुभ्ये । नमस्तुभ्य ।
- फ़िर क्या हुआ ? अचानक हैरतअंगेज ढंग से नितिन के मुँह से स्वतः निकल गया । इतना कि अपनी उत्सुकता पर उसे स्वयं आश्चर्य हुआ ।
मनोज ने एक नजर आसमान पर चमकते तारों पर डाली । आसमान में भी जैसे उदासी सी फ़ैली हुयी थी ।
अनुराग आफ़िस चला गया था । पदमा रसोई का सारा काम निबटा चुकी थी । ग्यारह बजने वाले थे । लेकिन रोज की भांति आज वह बाथरूम में नहीं गयी थी । बल्कि उसने एक पुरानी सी झीनी मैक्सी पहन ली थी । और हाथ में डण्डा लगा बङा सा झाङू उठाये दीवालों परदों आदि को साफ़ कर रही थी ।
- नितिन जी ! मैंने एक अजीव सी कहानी सुनी है । वह फ़िर बोला - पता नहीं क्यों । मुझे तो वह बङा अजीव सी ही लगती है । एक आदमी ने एक शेर का बच्चा पाल लिया । लेकिन वह उसे कभी माँस नहीं खिलाता था । खून का नमकीन नमकीन स्वाद उसके मुँह को न लगा था । वह सादा रोटी दूध ही खाता था । फ़िर एक दिन शेर को अपने ही पैर में चोट लग गयी । और उसने घाव से बहते खून को चाटा । खून । नमकीन खून । उसका स्वाद । अदभुत स्वाद । उसके अन्दर का असली शेर जाग उठा । शेर के मुँह को खून लग गया । उसने एक शेर दहाङ मारी और...।
पदमा बङी तल्लीनता से धूल को झाङ रही थी । वह झाङू को रगङती । फ़ट फ़ट करती । और धूल उङने लगती । कितनी कुशल गृहणी थी वो । वह उस दिन का नमकीन स्वाद भूला न था । उसके सीने की गर्माहट अभी भी उसके शरीर में रह रह कर दौङ जाती थी । वह उन अनमोल रतनों को देखने के लिये फ़िर से प्यासा होने लगा था । पर वह उसकी तरफ़ पीठ किये थी । उसके लहराते लम्बे रेशमी बाल उसके विशाल नितम्बों को स्पर्श कर रहे थे ।
तुमने कभी सोचा मनोज ! पदमा की मधुर झंकार जैसी आवाज फ़िर से उसके कानों में गूँजी - एक सुन्दर जवान औरत कितनी आकर्षक लगती है । रंग बिरंगे लचकते मचकते फ़ूलों की डाली जैसी । तुम ध्यान दो । तो औरत के हर अंग से रस टपकता है । वह रस से लबालब भरी रस भरी होती है । होठों में रस । गालों में रस । आँखों में रस । छातियों में रस । जंघाओं में रस । नाभि में रस । नितम्बों में रस ।
कितना सच कहा था उसने । इस छ्लकते रस को उसने जाना ही न था । वह चित्रलिखित सा खङा रह गया । एक आवरण रहित सुन्दरता की मूर्ति । जैसे उस नाम मात्र मैक्सी के झीने पर्दे के पार थी । और तबसे बराबर उसकी उपेक्षा सी कर रही थी । उसे अनदेखा कर रही थी । वह चाह रहा था । वह फ़िर से स्नान करे । फ़िर से उसे अंगों की झलक दिखाये । फ़िर से उसकी आँखों में आँखे डाले । पर वह तो जैसे यह सब जानती ही न थी । बारबार पारदर्शी परदे की तरह हिलती ऊपर नीचे होती मैक्सी । और उसके पार खङी वो वीनस । सुन्दरता की मूरत ।
उससे ये उपेक्षा सहन नहीं हो रही थी । उसके कदम खुद ब खुद उसके पास बढते गये । वह धीरे धीरे उसके पास पहुँच गया । और लगभग सट कर खङा हो गया । उसके नथुनों से निकलती गर्म भाप पदमा की गर्दन को छूने लगी ।
- क्या हुआऽऽ । वह लगभग फ़ुसफ़ुसाई । और बिना मुङे ही रुक रुक कर बोली - क्या बात है । तुम बैचेन हो क्या । तुम्हारी कठोरता का स्पर्श.. मुझे पीछे हो रहा है । ..पूर्ण पुरुष । तुम स्त्री को आनन्दित करने वाले हो ।
- ह हाँ । उसका गला सा सूखने लगा - समझ नहीं आता । कैसा लग रहा है । शरीर में अज्ञात धारायें सी दौङ रही है । ये खुद आ तुमसे आलिंगित हुआ है..कामिनी ।
- भूल जाओ ।.. भूल जाओ ।.. अपने आपको । वह बेहद कामुक झंकृत स्वर में बोली - भूल जाओ कि तुम क्या हो । भूल जाओ कि मैं क्या हूँ । जो स्वयं होता है । होने दो । उसे रोकना मत ।
स्वयं । स्वयं उसके हाथ पदमा के इर्द गिर्द लिपट गये । वह अपने शरीर में एक तूफ़ान सा उठता हुआ महसूस कर रहा था । उसे कोई सुध बुध न रही थी । बस तेजी से चलती सांसे ही वह सुन समझ पा रहा था । उसके हाथ स्वयं पदमा की नाभि से नीचे फ़िसलने लगे । एक मखमली दूब के रेशमी मुलायम अहसास से झंकृत होता हुआ वह बारबार जैसे ढलान पर फ़िसलने लगा ।
- आऽऽह ..आऽऽ ! उसकी खनकती आवाज में जैसे काम गीत बजा - आऽऽई ..प्यास .. प्यास .. अतृप्त ..अतृप्त ।..रुको.. मत..आऽऽ ।
- औरत के हर अंग से रस टपकता है । भूतकाल के शब्द फ़िर उसके दिमाग में गूँजे - वह रस से लबालब भरी रस भरी होती है । होठों में रस । गालों में रस । आँखों में रस । छातियों में रस ।
उसके हाथ मैक्सी के बन्द पर गये । और मैक्सी कन्धों से नीचे सरक गयी । झीने परदे के पार खङी वीनस साक्षात हो उठी । उसमें एक अजीव सी हिंसकता स्वतः जाग उठी । शेर के मुँह को खून लग गया । उसके हाथ उसके कम्पित स्तनों पर कस गये । एक ताकतवर बलिष्ट शेर । और उसके खूँखार पंजो में तङपती नाजुक बदन हिरनी । आऽऽ..मा.. प्यास .. प्यास .. त्रुप्त..त्रुप्त..अ    ृप्त । पदमा का वक्ष तेजी से ऊपर नीचे हो रहा था । वह प्यासी नागिन की भांति कसकर उससे चिपक गयी ।
- क्यों पढ रहे हो ? ये घटिया वल्गर चीप अश्लील पोर्न सेक्सी कामुक सस्ती सी वाहियात कहानी । वह सीधे उसकी आँखों में भाव हीनता से देखता हुआ बोला - यही शब्द देते हो ना तुम । ऐसे वर्णन को । पाखण्डी पुरुष । तुम भी तो उसी समाज का हिस्सा हो । जहाँ इसे घटिया अनैतिक वर्जित प्रतिबंधित हेय मानते हैं । फ़िर क्या रस आ रहा है । तुम्हें इस कहानी में ।..गौर से सोचो । तुम उसी ईडियट सोसाइटी का अटूट हिस्सा हो । उसी मूर्ख दोगले समाज का अंग हो । जहाँ दिमाग में तो यही सब भरा है । हर छोटे बङे सभी की चाहत यही है । पर बातें उच्च सिद्धांतों आदर्श और नैतिकता की है ।
बङे भाई ! किसी मेमोरी चिप की तरह यदि ब्रेन चिप को भी पढा जा सकता । तो हर पुरुष नंगा हो जाता । और हर स्त्री नंगी । हर स्त्री की चिप में नंगे पुरुषों की फ़ाइलें ओपन होती । और हर पुरु्ष की चिप में खुलती - बस नंगी औरत । प्यास .. प्यास .. अतृप्त ..अतृप्त ।
वह हैरान रह गया । उसकी इस मानसिकता को क्या शब्द दे । ब्रेन वाशिंग । या ब्रेन फ़ीडिंग । या कोई सम्मोहन । या उस कयामत स्त्री का जादू । या रूप का वशीकरण । या .या स्त्री पुरुष के रोम रोम में समायी स्त्री पुरुष की अतृप्त चाहत । या फ़िर एक महान सच । महान सच । अतृप्त ।
- म..नोज..कैसा लग ..रहा है । वह कांपती थरथराती आवाज में बोली - तुम्हे..आऽऽ..तुम मुझे मारे दे रहे हो । ऊऽऽई ओऽऽ आईऽऽ ये कैसा आनन्द है ।
- अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः । उसके दिमाग में भूतकाल की पदमा आकृति उभरी । साङी का पल्लू कमर में खोंसे हुये वह नजाकत से खङी हो गयी । और बोली - इनको स्वर कहते हैं । vowel । हर बच्चे को शुरू से यही सिखाया जाता है । पढाई का पहला वास्ता इन्ही से है । पर तुम इनका असली रहस्य जानते हो ? स्वर । यानी
आवाज । ध्वनि । काम ध्वनि । सीत्कार । अतृप्त शब्द । अतृप्त ।
नहीं समझे ।.. फ़िर से उसकी पतली पतली भौंह रेख किसी तीर का लक्ष्य साधते हुये कमान की तरह ऊपर नीचे हुयीं - एक सुन्दर इठलाती मदमदाती औरत के मुख से इन स्वर अक्षरों की संगीतमय अन्दाज में कल्पना करो । जैसे वह आनन्द में सिसकियाँ भर रही हो । अऽऽ । आऽऽ । इऽऽ । ईऽऽ । उऽऽ । ऊऽऽ । ओऽऽ । देखोऽ..वह महीन मधुर झनकार सी झन झन होती हुयी बोली - हर अक्षर को मीठे काम रस से सराबोर कर दिया गया है ना । सोचो । क्यों ?.. सेक्स । काम ।.. काम ही तो हमारे शरीर में बिजली सा दौङता रहता है । हाँ । जन्म से ही । पर हम समझ नहीं पाते । इन स्वर ध्वनियों में वही उमगता काम ही तो गूँज रहा है । काम । काम । सिर्फ़ काम । अतृप्त । अतृप्त ।
फ़िर इन्ही शब्दों के बेस पर व्यंजन रूप ध्वनि बनती है । क ख में अ और वासना वायु की गूंज है या नहीं । बस थोङा सा ध्यान से देखो । फ़िर इन काम स्वर और व्यंजन के मधुर मिलन से इस सुन्दर संसार की रचना होती है । गौर से देखो । तो ये पूरा रंगीन मोहक संसार इसी छोटी सी वर्णमाला में समाहित है ना ।
कमाल की हैं । मनोज जी आपकी भाभी भी । नितिन हँसते हँसते मानों पागल हुआ जा रहा था - आय थिंक । किसी भाषा शास्त्री किसी महा विद्वान ने भी स्वर रहस्य को इस कोण से कभी न जाना होगा । लेकिन अब मुझे उत्सुकता है । फ़िर क्या हुआ ?
आज रात ज्यादा हो गयी थी । आसमान बिलकुल साफ़ था । और रात का शीतल शान्त प्रकाश बङी सुखद अनुभूति का अहसास करा रहा था । काली छाया औरत बूढे पीपल के तने से टिक कर शान्त खङी थी । नितिन के स्त्री रहित बृह्मचर्य शरीर मन मष्तिष्क में स्त्री तेजी से घुलती सी जा रही थी । एक दिलचस्प रोचक आकर्षक किताब की तरह । किताब । जिसे बहुत कम लोग ही सही पढ पाते हैं । किताब । जिसे बहुत कम लोग ही सही पढना जानते हैं । बहुत कम ।
- लेकिन पढना । बहुत कठिन भी नहीं । पदमा अपना हाथ उसके शरीर पर घुमाती हुयी बोली - एक स्वस्थ दिमाग स्वस्थ अंगों वाली खूबसूरत औरत खुली किताब जैसी ही होती है । एक नाजुक और पन्ना पन्ना रंग बिरंगी अल्पना कल्पना से सजी सुन्दर सजीली किताब । जिसके हर पेज पर उसके सौन्दर्य की कविता लिखी है । बस पढना होगा । फ़िर पढो ।
पर उसकी हालत बङी ही अजीव सी थी । वह इस नैसर्गिक संगीत का सा रे गा मा भी न जानता था । उसे तो बस ऐसा लग रहा था । जैसे एकदम अनाङी इंसान को उङते घोङे पर सवार करा दिया हो । लगाम कब खींचनी है । कहाँ खींचनी है । घोङा कहाँ मोङना है । कहाँ सीधा करना है । कहाँ उतारना है । कैसे चढाना है । उसे कुछ भी तो न पता था । कुछ भी ।
अचानक वह मादकता से चलती हुयी बिस्तर पर चढ गयी । और आँखे बन्द कर ऐसी मुर्दा पङ गयी । जैसे थकन से बेदम हो गयी हो । वह हक्का बक्का सा इस तरह उसके पास खिंचता चला गया । जैसे घोङे की लगाम उसी के हाथ हो ।
- भूल जाओ ।.. भूल जाओ ।.. अपने आपको । वह जैसे बेहोशी में बुदबुदाई - भूल जाओ कि तुम क्या हो । भूल जाओ कि मैं क्या हूँ । जो स्वयं होता है । होने दो । उसे रोकना मत ।
स्वयं । वह हैरान था । वह कितनी ही देर से उसके सामने आवरण रहित थी । लेकिन फ़िर भी वह उसको ठीक से देख न सका था । वह उसके अधखुले स्तनों को स्पष्ट देखता था । तब उनकी एकदम साफ़ तस्वीर उसके दिमाग
में बनती थी । वह उसके लहराते बालों को स्पष्ट देखता था । तब उसे घिरती घटायें साफ़ दिखाई देती थी । वह उसके रसीले होठों को स्पष्ट देखता था । तब सन्तरे की खट्टी मीठी मिठास उसके अन्दर स्वतः महसूस होती थी । जब वह उसको टुकङा टुकङा देखता था । तब वह पूर्णता के साथ नजर आती थी । और जब वह किताब की तरह खुद ही खुल गयी थी । तब उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था । कुछ भी तो न था ।
उसने फ़िर से भूतकाल के बिखरे शब्दों को जोङने की कोशिश की - तुम ध्यान दो । तो औरत के हर अंग से रस टपकता है । वह रस से लबालब भरी रस भरी होती है । होठों में रस । गालों में रस । आँखों में रस । छातियों में रस । जंघाओं में रस । नाभि में रस । नितम्बों में रस ।
पर कहाँ था । कोई रस । जिनमें रस था । अब वो अंग ही न थे । कोई अंग ही न था । अंगहीन । बस हवा में फ़ङफ़ङाते खुले पन्नों की किताब । और बस वहाँ वासना की हवा ही अब बह रही थी । प्रकृति में समाई सुन्दर खिले नारी फ़ूल की मनमोहक खुशबू । जिसको वह मतवाले भंवरे के समान अपने अन्दर खींच रहा था ।
फ़िर कब वह उल्टी हुयी । कब वह सीधा हुआ । कब वह तिरछी हुयी । कब वह टेङा हुआ । कब वह उसको मसल देता । कब वह चीख उठती । कब वह उसको दबा डालता । कब वह कलाबाजियाँ सी पलटती । कब वह उसको काट लेता । कब वे खङे होते । कब लेट जाते । कब वह उसमें चला जाता । कब वह उसमें आ जाती । कब ? ये सब कब हुआ । कौन कह सकता है ? वहाँ इसको जानने वाला कोई था ही नहीं । थी तो बस वासना की गूँज । आऽऽह ..आऽऽ ! आऽऽई ..प्यास .. प्यास .. अतृप्त ..अतृप्त ।..रुको.. मत..आऽऽ ।
- बङे भाई ! वह सिगरेट का कश लेता हुआ बोला - मैं अब अन्दर कहीं सन्तुष्ट था । मैं उसके काम आया था । मैं अब सन्तुष्ट था । भाई की पराजय को भाई ने दूर कर दिया था । नैतिक अनैतिक का गणित मैं भूल चुका था । खुशी बस इस बात की थी । सवाल हल हो गया था । सवाल । उलझा हुआ सवाल ।
मैंने देखा । वह अधलेटी सी नग्न ही शून्य निगाहों से दीवाल पर चिपकी छिपकली को देखे जा रही थी । जो बङी साबधानी सतर्कता से पतंगे पर घात लगाये जहरीली जीभ को लपलपा रही थी । उसकी आँखों में खौफ़नाक चमक लहरा रही थी । और उसकी आँखे अपलक थी । एकदम स्थिर । मुर्दा ।
मैं उसके पास ही बैठ गया । और बेमन से उसका स्तन टटोलता हुआ बोला - अब प्यास तो नहीं । क्यों हो कोई अतृप्त । खत्म । कहानी खत्म ।
यकायक उसके मुँह से तेज फ़ुफ़कार सी निकली । उसकी आँखें दोगुनी हो गयी । उसका चेहरा काला बाल रूखे और उलझे हो गये । उसकी समस्त पेशियाँ खिंच उठी । और वह किसी बदसूरत घिनौनी चुङैल की तरह दांत पीसने लगी ।
- मूर्ख ! वह गुर्राकर बोली - औरत कभी तृप्त नहीं होती । फ़िर तू उसकी वासना को क्या तृप्त करेगा । तू क्या कहानी खत्म करेगा ।
- बङे भाई ! वह अजीव से स्वर में बोला - मैं हैरान रह गया । वह कह रही थी ।.. कमाल की कहानी लिखी है ।
इस कहानी के लेखक ने । राजीव ।.. कहानी जो उसने शुरू की । उसे कैसे कोई और खत्म कर सकता है । ये कहानी है । सौन्दर्य के तिरस्कार की । चाहत के अपमान की । प्यार के निरादर की । जजबातों पर कुठाराघात की । वह कहता है । मैं माया हूँ । स्त्री माया है । उसका सौन्दर्य मायाजाल है । और ये कहानी बस यही तो है । पर..पर मैं उसको साबित करना चाहती हूँ - मैं माया नहीं हूँ । मैं अभी यही तो साबित कर रही थी । तेरे द्वारा । पर तू फ़ेल हो गया । और तूने मुझे भी फ़ेल करवा दिया । राजीव फ़िर जीत गया । क्योंकि .. वह भयानक स्वर में बोली - क्योंकि तू..तू फ़ँस गया ना । मेरे मायाजाल में ।
अब गौर से याद कर कहानी । मैंने कहा था । मैं राजीव जी से प्यार करती थी । पर वह कहता था । स्त्री माया है । ये मैंने तुझे कहानी के शुरू में बताया । मध्य में बताया । इशारा किया । फ़िर मैंने तुझ पर जाल फ़ेंका । दाना डाला । और तुझसे अलग हट गयी । फ़िर भी तू खिंचा चला आया । और खुद जाल में फ़ँस गया । मेरा जाल । मायाजाल ।.. वह फ़ूट फ़ूट कर रो पङी - राजीव जी तुम फ़िर जीत गये । मैं फ़िर हार गयी । ये मूर्ख लङका मुझसे प्रभावित न हुआ होता । तो मैं जीत.. न गयी होती ।
नितिन हक्का बक्का रह गया । देवर भाभी की लव स्टोरी के इस द एण्ड की तो कोई कल्पना ही न हो सकती थी ।
- सोचो बङे भाई । वह उदास स्वर में बोला - मैं हार गया । इसका अफ़सोस नहीं । पर तुम भी हार गये । इसका है । मैंने कई बार कहा । क्यों पढ रहे हो । इस कामुक कथा को । फ़िर भी तुम पढते गये । पढते गये । उसने जो सबक मुझे पढाया था । वही तो मैंने तुम पर आजमाया । पर तुम हार गये । और ऐसे ही सब एक दिन हार जाते हैं । और जीवन की ये वासना कथा अति भयानकता के साथ खत्म हो जाती है ।
नितिन को तेज झटका सा लगा । वह जो कह रहा था । उसका गम्भीर दार्श भाव अब उसके सामने एकदम स्पष्ट हो गया था । वह उसे रोक सकता था । कहानी का रुख मोङ सकता था । और तब वह जीत जाता । और कम से कम तब मनोज उदास न होता । पर वह तो कहानी के बहाव में बह गया । ये कितना बङा सत्य था ।
मनोज की आँखों से आँसू बह रहे थे । अब जैसे उसे कुछ भी सुनाने का उत्साह न बचा था । नितिन असमंजस में उसे देखता रहा । उसने मोबायल में समय देखा । रात का एक बज चुका था । चाँद ऊपर आसमान से जैसे इन दोनों को ही देख रहा था । काली छाया भी जैसे उदास सी थी । और अब जमीन पर बैठ गयी थी ।
चलो हार जीत कुछ हुआ । इसका भाभी पुराण तो समाप्त हो गया । उसने सोचा । और बोला - ये शमशान में तंत्र दीप ..मेरा मतलब ।
- तुम्हें फ़िर गलतफ़हमी हो गयी । वह रहस्यमय आँखों से उसे देखता हुआ बीच में ही बोला - कहानी अभी खत्म नहीं हुयी । कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने । कहानी जो उसने शुरू की । उसे कोई और कैसे खत्म कर सकता है ? जिसकी कहानी । वही इसे खत्म करेगा ।
लेकिन अबकी बार वह सतर्क था । एक बार जो किसी बात पर कोई पागल बन जाये । कोई बात नहीं । सबके साथ ही हो जाता है । दोबारा फ़िर उसी बात पर पागल बन जाये । चलो जानते हुये भी ठोकर लग गयी । मजबूती आ गयी । यही जीवन है । लेकिन तीन बारा फ़िर उसी बात पर पागल बन जाये । उसे पागल ही कहा जायेगा । और अब वह पागल हरगिज नहीं बनना चाहता था ।
- मनसा जोगी । वह मन ही मन बोला - रक्षा करें ।
- इसीलिये मैंने कहा था ना । तुम्हें फ़िर गलतफ़हमी हो गयी । वह एक नयी सिगरेट सुलगाता हुआ बोला - कहानी अभी खत्म नहीं हुयी । बल्कि इसे यूँ कहो । कहानी अब शुरू हुयी । रात आधे से ज्यादा हो रही है । पूरा शहर सो रहा है । और सिर्फ़ हम तीन जाग रहे हैं । तो क्या । किसी ब्लू फ़िल्म सी इस कामुक कथा का रस लेने के लिये ।
अभी वह हम तीन की बात पर चौंका ही था कि मनोज बोला - ये बूढा पीपल भी । ये पीपल भी तो हमारे साथ है ।
नितिन ने चैन की सांस ली । एक और संस्पेंस क्रियेट होते होते बचा था । लेकिन हम तीन सुनते ही उसकी निगाह सीधी उस काली छाया औरत पर गयी । जो अब भी वैसी ही शान्ति से बैठी थी । कौन थी । यह रहस्यमय अशरीरी रूह ? क्या इसका इस सबसे कोई सम्बन्ध था । या ये महज उनके यहाँ क्यों ? होने की उत्सुकता वश ही थी । कुछ भी हो । एक अशरीरी छाया को उसने पहली बार बहुत निकट से देर तक देखा था । और देखे जा रहा था ।
लेकिन कितना वेवश भी था वो । अगर मनोज वहाँ न होता । तो वह उससे बात करने की कोई कोशिश करता । एक वायु शरीर से पहली बार सम्पर्क का अनुभव करता । जो कि इस लङके और उसकी ऊँट पटांग कहानी के चलते न हो पा रहा था । एक मामूली जिज्ञासा से बढ गयी कहानी कितनी नाटकीय हो चली थी । समझना कठिन हो रहा था । और कभी कभी तो उसे लग रहा था कि वास्तव में कोई कहानी है ही नहीं । ये लङका मनोज सिर्फ़ चरस के नशे का आदी भर है ।
- नितिन जी ! अचानक वह सामान्य स्वर में बोला - अगर आप सोच रहे हैं कि मैं आपको उलझाना चाहता हूँ । और मुझे इसमें कोई मजा आता है । या मैं कोई नशा वशा करता हूँ । तो सारी । आप फ़िर गलत है । तब आपने मेरे शब्दों पर ध्यान नहीं दिया - और उसी के लिये मुझे समझ नहीं आता कि मैं किस तरह के शब्दों का प्रयोग करूँ । जो अपनी बात ठीक उसी तरह से कह सकूँ । जैसे वह होती है । पर मैं कह ही नहीं पाता । ..हाँ । यही सच है । अचानक ही सामान्य या खास शब्द अपने आप मेरे मुँह से निकलते हैं । यदि मैं इन्हें कहना चाहूँ । तो नहीं कह सकता ।
बन्द गली । बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा ।
नितिन वाकई हक्का बक्का ही रह गया । क्या प्रथ्वी पर कोई युवती इतनी सुन्दर भी हो सकती है ? अकल्पनीय । अवर्णनीय । क्या हुआ होगा । जव यौवन विकास काल में यह लहराती पतंग की तरह उङी होगी । गुलावी कलियों सी चटकी होगी । अधखिले फ़ूलों सी महकी होगी । गदराये फ़लों जैसी फ़ूली होगी । क्या हुआ होगा ? क्या हुआ होगा । जब इसकी मादक अदाओं ने बिजलियाँ गिरायी होंगी । तिरछी चितवन ने छुरियाँ चलायी होंगी । इसकी लचक मचक चाल से मोरनियाँ भी घबरायी होंगी । इसके इठलाते बलखाते बलों से नाजुक लतायें भी आभा हीन हुयी होंगी । लगता ही नहीं । ये कोई स्त्री है । ये तो अप्सरा ही है । रम्भा । या मेनका । या लोचना । या उर्वशी । जो स्वर्ग से मध्य प्रदेश की धरती पर उतर आयी । फ़िर क्यों न इस पर श्रंगार गीत लिखे गये । क्यों न इस पर प्रेम कहानियाँ गढी गयीं । क्यों न किसी चित्रकार ने इसे केनवास पर उतारा । क्यों न किसी मूर्तिकार ने इसे शिल्प में ढाला । क्यों ? क्यों ? क्योंकि ये कवित्त के श्रंगार शब्दों । प्रेम कथा के रसमय संवादों । चित्र तूलिका के रंगो । और संगेमरमर के मूर्ति शिल्प में समाने वाला सौन्दर्य ही नहीं था । ये उन्मुक्त रसीला नशीला मधुर तीखा खट्टा चटपटा अनुपम असीम सौन्दर्य था । वाकई । वाकई वह जङवत होकर रह गया ।
पहले वह सोच रहा था । किशोरावस्था के नाजुक रंगीन भाव के कल्पना दौर से ये लङका गुजर रहा है । और इसकी काम वासना ही इसे इसकी भाभी में बेपनाह सौन्दर्य दिखा रही है । पर अब वह खुद के लिये क्या कहता ? क्योंकि पदमा काम से बनी कल्पना नहीं । सौन्दर्य की अनुपम छटा बिखेरती हकीकत थी । एक सम्मोहित कर देने वाली । जीती जागती हकीकत । और वो हकीकत । अब उसके सामने थी ।
- नितिन जी ! अचानक उसकी बेहद सुरीली मधुर आवाज की खनखन पर वह चौंका - कहाँ खो गये आप ? चाय लीजिये ना ।
- रूप । सुन्दर रूप । रूप की देवी । रूपमती । रूपमाला । रूपसी । रूपशीला । रूप कुमारी । रूपचन्द्रा । रूपवती । रूपा । रूप ही रूप । हर अंग रंगीली । हर रंग रंगीली । हर संग रंगीली । रूप छटा । रूप आभा । चारों और रूप ही रूप । किन शब्दों का चयन करे वो । खींचता रूप । बाँधता रूप । कैसे बच पाये वो । वह खोकर रह गया ।
यकायक..यकायक उसे झटका लगा - कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने । राजीव ।.. कहानी जो उसने शुरू की । उसे कैसे कोई और खत्म कर सकता है । ये कहानी है । सौन्दर्य के तिरस्कार की । चाहत के अपमान की । प्यार के निरादर की । जजबातों पर कुठाराघात की । वह कहता है । मैं माया हूँ । स्त्री माया है । उसका सौन्दर्य बस माया जाल है । और ये कहानी बस यही तो है । पर..पर मैं उसको साबित करना चाहती हूँ - मैं माया नहीं हूँ । मैं अभी यही तो साबित कर रही थी । तेरे द्वारा । पर तू फ़ेल हो गया । और तूने मुझे भी फ़ेल करवा दिया । राजीव फ़िर जीत गया । क्योंकि .. क्योंकि तू .. तू भी फ़ँस गया ना । मेरे माया जाल में ।
- मनसा जोगी ! वह मन ही मन सहम कर बोला - रक्षा करें ।
- अब गौर से याद कर कहानी । उसके कानों में फ़िर से भूतकाल बोला - मैंने कहा था । मैं राजीव जी से प्यार करती थी । पर वह कहता था । स्त्री माया है । ये मैंने तुझे कहानी के शुरू में बताया । मध्य में बताया । इशारा किया । फ़िर मैंने तुझ पर जाल फ़ेंका । दाना डाला । और तुझसे अलग हट गयी । फ़िर भी तू खिंचा चला आया । और खुद जाल में फ़ँस गया । मेरा जाल । माया जाल ।.. राजीव जी तुम फ़िर जीत गये । मैं फ़िर हार गयी । ये मूर्ख लङका मुझसे प्रभावित न हुआ होता । तो मैं जीत.. न गयी होती ।
उसे फ़िर झटका सा लगा । ठीक यही तो उसके साथ भी हुआ जा रहा है । उसका भी हाल वैसा ही हो रहा है । शमशान में जलते तंत्र दीप से बनी सामान्य जिज्ञासा से कहानी शुरू तो हो गयी । पर अभी मध्य को भी नहीं पहुँची । और अन्त का तो दूर दूर तक पता नहीं । कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने । उसने अपनी समूची एकाग्रता को केन्द्रित किया । और बङी मुश्किल से उस रूपसी से ध्यान हटाया ।
कल रात वे दोनों चार बजे लौटे थे । मनोज सामान्य हो चुका था । वह उसे उसके घर छोङ आया था । और फ़िर अपने घर न जाकर सीधा मनसा की कुटिया पर जाकर सो गया था । सुबह वह कोई दस बजे उठा ।
- इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं मेरे बच्चे । उसकी बात सुनकर मनसा कतई अप्रभावित स्वर में बोला - ये जीवन का असली गणित है । गणित । जिसके सही सूत्र पता होने पर जिन्दगी का हर सवाल हल करना आसान हो जाता है । एक सामान्य मनुष्य दरअसल तत्क्षण उपस्थिति चीजों से हर स्थिति का आंकलन करता है । जैसे कोई झगङा हुआ । तो वह उसी समय की घटना और क्रिया पर विचार विमर्श करेगा । पर ज्यों ज्यों खोजेगा । झगङे की जङ भूतकाल में दबी होगी । जैसे कोई यकायक रोगी हुआ । तो वह सोचेगा । अभी की इस गलती से हुआ । पर ऐसा नहीं । रोग की जङ कहीं भूतकाल में पनप रही होगी । धीरे धीरे ।
- मैं कुछ समझा नहीं । वह उलझकर बोला - आपका आशय क्या है ?
- हुँऽ । जोगी विचार युक्त भाव से गहरी सांस लेकर बोला - मेरे कहने का मतलब है । आज जो तुम्हारे सामने है । उसकी जङे बीज कहीं दूर भूतकाल में है । और तुम्हारे लिये अदृश्य भूमि में अंकुरित हो रहे हैं । धीरे धीरे बढ रहे हैं । मैं सीधा तुम्हारे केस पर बात करता हूँ । पदमा के रहस्य की हकीकत जानने के लिये तुम्हें भूतकाल को देखना होगा । उसकी जिन्दगी के पिछले पन्ने पलटने होंगे । अब उनमें कुछ भी लिखा हो सकता है । मगर उस इबारत को पढकर ही तुम कुछ या सब कुछ जान पाओगे । अब ये तुम पर निर्भर है कि तुम क्या कैसे और कितना पढ पाते हो ?
- पर । उसने जिद सी की - इसमें पढने को अब बाकी क्या है ? पदमा 30 साल की है । विवाहित । अति सुन्दर । उसका एक देवर है । पति है । बस । वह अपने पति से न सन्तुष्ट है । न असन्तुष्ट ।..लेकिन अपनी तरुणाई में वह
किसी राजीव से प्यार करती थी । मगर वह साधु हो गया । बस अपने उसी पहले प्यार को वह दिल से निकाल नहीं पाती । क्योंकि कोई भी लङकी नहीं निकाल पाती ।.. और शायद उसी प्यार को हर लङके में खोजती है । क्योंकि पति में ऐसा प्रेमी वाला प्यार खोजने का सवाल ही नहीं उठता । पति और प्रेमी में जमीन आसमान का अंतर होता है ।..इसके लिये वह किसी लङके को आकर्षित करती है । उसे अपने साथ खेलने देती है । यहाँ तक कि काम धारा भी बहने लगती है । यकायक वह विकराल हो उठती है । और तब सब सौन्दर्य से रहित होकर वह घिनौनी और कुरूप हो उठती है । उसकी मधुर सुरीली आवाज भी चुङैल जैसी भयानक विकृत हो उठती है । अब रहा उस तंत्र दीप का सवाल । कोई साधारण आदमी भी जान सकता है । वह कोई प्रेतक उपचार है । कोई रूहानी बाधा । बस एक रहस्य और बनता है । वह काली छाया औरत । लेकिन मुझे वह भी कोई रहस्य नहीं लगती । वह वहीं शमशान में रहने वाली कोई साधारण स्त्री रूह हो सकती है । जो उस वीराने में हम दोनों को देखकर महज जिज्ञासा वश आ जाती होगी । क्योंकि उसने इसके अलावा कभी कोई और रियेक्शन नहीं किया । या शायद इंसानी जीवन से दूर हो जाने पर उसे दो मनुष्यों के पास बैठना सुखद लगता हो ।
- शिव शिव । मनसा आसमान की ओर दुआ के अन्दाज में हाथ उठाकर बोला - वाह रे प्रभु ! तू कैसी कैसी कहानी लिखता है । मेरे बच्चे की रक्षा करना । उसे सही राह दिखाना ।
- सही राह । उसने सोचा । और बहुत देर बाद एक सिगरेट सुलगायी - कहाँ हो सकती है । सही राह । इस घर में । पदमा के पीहर में । या अनुराग में । या उस राजीव में । या फ़िर कहीं और ?
एकाएक फ़िर उसे झटका सा लगा । उसे सिगरेट पीते हुये पदमा बङे मोहक भाव से देख रही थी । जैसे उसमें डूबती जा रही हो । सिगरेट का कश लगाने के बाद जब वह धुँये के छल्ले छोङता । तो उसके सुन्दर चेहरे पर स्मृति विरह के ऐसे आकर्षक भाव बनते । मानों उन छल्लों में लिपटी हुयी ही वह गोल गोल घूमती उनके साथ ही आसमान में जा रही हो । वह घबरा सा गया । उसकी एक दृष्टि मात्र से घबरा गया । ऐसे क्या देख रही थी वह । क्यों देख रही थी वह ?
- राजीव जी भी ! वह दूर अतीत में कहीं खोयी सी बोली - सिगरेट पीते थे । मुझे उन्हें सिगरेट पीते देखना बहुत अच्छा लगता था । तब मैं महसूस करती थी कि सिगरेट की जगह मैं उनके होंठों से चिपकी हुयी हूँ । और हर कश के साथ उनके अन्दर उतर रही हूँ । उतरती ही जा रही हूँ । मेरा अस्तित्व धुँआ धुँआ हो रहा है । और मैं धुँआ के छल्ले सी ही गोल गोल आकाश में जा रही हूँ ।
उसके दिमाग में एक भयंकर विस्फ़ोट हुआ । उसके अस्तित्व के मानों परखच्चे से उङ गये । कमाल की औरत थी । उसने मामूली सिगरेट पीने में ही इतना सेक्स डाल दिया कि उसे XXX उत्तेजना सी महसूस होने लगी । वह उसका केस जानने आया था । पर अब उसे लग रहा था । वह खुद केस होने वाला है । इसका तो बङे से बङा डाक्टर भी इलाज नहीं कर सकता । ये विकट सेक्सी लेडी तो उल्टा उसे ही मरीज बना देगी । भाङ में गयी । ये देवर भाभी रहस्य कथा । और भाङ में गयी ये सी आई डी कि तंत्र दीप क्या । छाया औरत क्या ? यहाँ उसे अपने वजूद बचाने के लाले थे । उसने तय किया । अब इस चक्कर में कोई दिलचस्पी नहीं लेगा । क्योंकि ये उसके बस का है भी नहीं ।
- वैसे कुछ भी बोलो । तब वह जान छुङाने के उद्देश्य से जाने का निश्चय करता हुआ अन्तिम औपचारिकता से बोला - राजीव जी ने आपका दिल तोङकर अच्छा नहीं किया ।
- डांट माइंड ! बट शटअप मि. नितिन । वह शटअप भी ऐसी दिलकश अदा से बोली कि वह फ़िर विचलित होने लगा - मुझे राजीव जी की बुराई सुनना कतई बर्दाश्त नहीं । अगेन डांट माइंड । बिकाज यू आर फ़ुल्ली फ़ूल । सोचो अगर वो ऐसा न करते । तो फ़िर इतनी दिलचस्प कहानी बन सकती थी ? क्या कमाल की कहानी लिखी उन्होंने ।
और ये खुला चैलेंज था । उसके लिये । जैसे वह उसका मतलब समझ गयी थी । और कह रही थी । इस कहानी के तारतम्य को आगे बढाना । उसके सूत्र जोङना । तुम जैसे बच्चों का खेल नहीं । उसने एक नजर खामोश बैठे मनोज पर डाली । क्या अजीव सी रहस्यमय फ़ैमिली थी । उनके घर में सब कुछ उसे अजीव सा लगा था । और वे एक अजीव ढंग से ही शान्त भी थे । और अप्रभावित भी । कोई बैचेनी लगता ही नहीं । उन्हें थी । जबकि उनसे ज्यादा बैचेनी उसे हो रही थी ।
क्या करना चाहिये उसे ? उसने सोचा । यदि वह ऐसे मामूली से चक्रव्यूह से घबरा जाता । तो फ़िर उसका तंत्र संसार में जाना ही बेकार था । बल्कि उसका संसार में जीना ही बेकार था । फ़िर उससे अच्छे और साहसी तो ये पदमा और मनोज थे । जो कि उस कहानी के पात्र थे । कहानी । जो साथ के साथ जैसे हकीकत में बदल रही थी ।
उसने फ़िर से पदमा के शब्दों पर गौर किया - सोचो । अगर वो ऐसा न करते । तो फ़िर इतनी दिलचस्प कहानी
बन सकती थी ? क्या कमाल की कहानी लिखी उन्होंने ।
वह सही ही तो कह रही थी । किसी राजीव ने सुन्दरता की देवी समान पदमा के प्यार का तिरस्कार करके ही तो इस कहानी की शुरूआत कर दी थी । अगर उन दोनों का आपस में सामान्यतः प्रेम संयोग हो जाता । तो फ़िर कोई कहानी बन ही नहीं सकती थी । फ़िर न मनोज जीवन का वह अजीव देवर भाभी प्रेम रंग देखता । और न शायद वह किसी वजह से तंत्र दीप जलाता । न उनकी मुलाकात होती । और न आज वह इस घर में बैठा होता । क्या मजे की बात थी । इस कहानी का दूर दूर तक कोई रियल प्लाट नहीं था । और कहानी निरंतर लिखी जा रही थी । ठीक उसी तरह । जैसे बिना किसी बुनियाद के कोई भवन महज हवा में बन रहा हो । वो भी बाकयदा पूरी मजबूती से । बङा और आलीशान भी ।
जिन्दगी को करीब से देख चुके अनुभवी जानकार कहते हैं - बङा कौर खा लेना चाहिये । उसने सोचा - लेकिन बङी बात कभी नहीं कहनी चाहिये । क्योंकि हो सकता है । फ़िर वह बात पूरी ही न हो । कभी न हो । इसलिये उसने मन ही मन में तय किया । इस खोज का परिणाम क्या हो । ऐसा कोई दावा । ऐसी कोई आशा वह नहीं करेगा । लेकिन जब यह कहानी उसके सामने आयी है । वह उसका निमित्त बना है । तब वह उसकी तह में जाने की पूरी पूरी कोशिश करेगा । और फ़िर उसने यही निश्चय किया ।
सोचो तुम दोनों । वह जैसे उन्हें जीवन के रहस्य सूत्र बहुत प्यार से समझाती हुयी सी बोली - एक हिसाब से यह कहानी बङी उलझी हुयी सी है । और दूसरे नजरिये से पूरी तरह सुलझी हुयी भी । शायद तुम चौंको । इस बात पर । पर मेरे इस अप्रतिम अदभुत सौन्दर्य और इस ठहरे हुये से उन्मुक्त यौवन का कारण राज सिर्फ़ मेरा प्रेमी ही तो है । न तुम । न तुम । न खुद मैं । न मेरा पति । न भगवान । न कोई और । सिर्फ़ मेरा प्रेमी ।
वो दोनों वाकई ही चौंक गये । बल्कि बुरी तरह चौंक गये ।
- हाँ जी हाँ । वह अपने चेहरे से लट को पीछे करती हुयी बोली - सोचो । एक सुन्दर युवा लङकी एक लङके से प्यार करती है । लेकिन उसका ये प्यार पूरा नहीं होता । और वो इस प्यार को करना छोङ भी नहीं पाती । नितिन यही बहुत बङा रहस्यमय सच है । चाहे लाखों जन्म क्यों न हो जाये । वह जब तक उस प्यार को पा न लेगी । तब तक वह प्रेमी उसके दिल से न निकलेगा । वह दिन रात उसी की आग में जलती रहेगी । प्रेम अगन । कौन जलती रहेगी ? एक टीन एज यंग गर्ल । ध्यान से समझने की कोशिश करो । प्यार के अतृप्त अरमानों में निरन्तर सुलगती । वो हसीन लङकी । वो प्रेमिका । उसके अन्दर कभी न मरेगी । चाहे जन्म दर जन्म होते जायें । कौन नहीं मरेगी ? वो हसीन लङकी । वो प्रेमिका । जिसके अन्दर 15-16 की उमर से एक अतृप्त प्यास पैदा हो गयी ।
इसीलिये वो हसीन लङकी । वो प्रेमिका । मेरे अन्दर सदा जीवित रहती है । और वही मेरी मोहक सुन्दरता और सदा यौवन का राज है ना । अब दूसरी बात सोचो । उस लङकी पदमा की शादी हो जाती है । और किसी हद तक उसकी काम वासना और अन्य शरीर वासनायें तृप्त होने लगती है । लेकिन उसकी खुद की मचलती प्यार प्रेम वासना तृप्त नही होती । जो चाह उसके दिल में प्रेमी और अपने प्रेम के लिये सुलग चुकी है । वो प्रेमी की बाहों में झूलना । वो चुम्बन । वो आलिंगन । वो चिढाना । सताना । रूठना । मनाना । वो उसके सीने पर सर रखना । ये सब एक प्रेमिका को । उसकी किसी से शादी हो जाना । नहीं दे सकते । कभी नहीं । तब ये तय है । उसके अन्दर एक प्रेमिका सदा मचलती ही रहेगी । प्रेमिका । जिसे सिर्फ़ अपने प्रेमी की ही तलाश है । इसीलिये तो मैं कहती हूँ - कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने ।.. कहानी जो उसने शुरू की । उसे कैसे कोई और खत्म कर सकता है ? कहानी । वह मादकता से होठ काटती हुयी सी बोली - कहानी जो सदियों तक खत्म न हो । बोलो लिख सकोगे । तुम इस कहानी का अन्त । अन्त ? पर अभी तो इसका मध्य ही नहीं हुआ ।
नितिन को लगा । जैसे वह पागल ही हो जायेगा । पर मनोज इस तरह शान्ति से उसकी बात सुन रहा था । जैसे महत्वपूर्ण गूढ धार्मिक प्रवचन सुन रहा हो । उसने सोचा । कम से कम उसने तो अपनी जिन्दगी में ऐसी कोई औरत न देखी थी । कहीं ऐसा तो नहीं कि वह एक सामान्य औरत हो ही नहीं ? फ़िर कौन हो सकती है वह ?
कल उसने एक बङा अजीव सा निर्णय आखिर लिया था । वह अच्छी तरह जान गया था । वह चाहे । सालों लगा रहे । इस बेहद रहस्यमय फ़ैमिली की इस देवर भाभी रहस्य कथा या फ़िर देवर भाभी प्रेत रहस्य कथा को किसी तरह नहीं जान पायेगा । तब उसने कुछ अजीव सा अलग हटकर सोचा । और उन्हीं के घर में कमरा लेकर बतौर किरायेदार रहने लगा । और अभी वे सब छत पर बैठे थे । उसे ये भी बङा रहस्य लगा कि उन दोनों ने उसके बारे में जानने की कोई कोशिश नहीं की । वह कहाँ रहता है ? उसके परिवार में कौन है ? उसने कहा । वह स्टूडेंट है । और उनके यहाँ रहना चाहता है । और वे मान गये । वह कुछ किताबें कपङे और स्कूटर के साथ वहाँ आ गया । अन्य छोटे मोटे सामान उन देवर भाभी ने उसे घर से ही दे दिये थे ।
गौर से देखा जाये । तो हर आदमी की जिन्दगी सिर्फ़ एक प्रश्नात्मक जिज्ञासा से बना फ़ल मात्र है । आगे क्या ? ये क्या ? वो क्या ? ये अच्छा । ये बुरा । जैसे प्रश्न उत्तरों में उलझता हुआ वह जन्म दर जन्म यात्रा करता ही जाता है । और कभी ये नहीं सोच पाता कि - हर प्रश्न वह स्वयं ही पैदा कर रहा है । और फ़िर स्वयं ही हल कर रहा है । उसका स्वयं ही उत्तर भी दे रहा है । बस उसे ये भृम हो जाता है कि प्रश्न उसका है । और उत्तर किसी और का । प्रश्न उत्तर । शायद बस इसी का नाम जीवन है ।
प्रश्न उत्तर । सिर्फ़ उसकी एक जिज्ञासा आज उसे इस घर में ले आयी थी । यकायक एक बङी सोच बन गयी थी उसकी । अगर वह ये प्रश्न हल कर सका । तो शायद जिन्दगी के प्रश्न को ही हल कर लेगा । बात देखने में छोटी सी लग रही थी । पर बात उसकी नजर में बहुत बढी थी । इसका हल हो जाना । उसकी आगे की जिन्दगी को सरल पढाई में बदल सकता है । जिसके हर इम्तहान में फ़िर वह अतिरिक्त योग्यता के साथ पास होने वाला था । और यही तो सब चाहते हैं । फ़िर उसने क्या गलत किया था ?
अब बस उसकी सोच इतनी ही थी कि अब तक जो वह मनोज के मुँह से सुनता रहा था । उसका चश्मदीद गवाह वह खुद होगा । आखिर इस घर में क्या खेल चल रहा है ?
रात के आठ बज चुके थे । मनोज कहीं बाहर निकल गया था । पर वह कुछ घुटन सी महसूस करता खुली छत पर आ गया था । पदमा नीचे काम में व्यस्त थी । अपने घर में एक नये अपरिचित युवक में स्वाभाविक दिलचस्पी लेते हुये अनुराग भी ऊपर चला आया । और उसी के पास कुर्सी पर बैठ गया ।
- मनोज जी से मेरी मुलाकात । वह उसकी जिज्ञासा का साफ़ साफ़ उत्तर देता हुआ बोला - नदी के पास शमशान में हुयी थी । जहाँ मैं नदी के पुल पर अक्सर घूमने चला जाता हूँ । मनोज को शमशान में खङे बूढे पीपल के नीचे एक दीपक जलाते देखकर मेरी जिज्ञासा बनी । ये क्या है ? यानी इस दीपक को जलाने का क्या मतलब है ?
लेकिन उसने अपनी तंत्र मंत्र दिलचस्पी आदि के बारे में कुछ न बताया ।
- ओह ओह । अनुराग जैसे सब कुछ समझ गया - कुछ नहीं जी । कुछ नहीं । नितिन जी । आप पढे लिखे इंसान हो । ये सब फ़ालतू की बातें हैं । कुछ नहीं होता इनसे । पहली बात । भूत प्रेत जैसा कूछ होता है । मैं नहीं मानता । और यदि होता भी है । तो वो इन दीपक वीपक से भला कैसे खत्म हो जायेगा ?
फ़िर आप सोच रहे होंगे । हमारी कथनी और करनी में विरोधाभास क्यों ? क्योंकि दीपक तो मेरा भाई मनोज ही जलाने जाता है । बात ये है कि लगभग चार साल पहले ही पदमा से मेरी शादी हुयी है । और लगभग उसी समय ये बना बनाया घर मैंने खरीदा था । और हम किराये के मकान से अपने घर में रहने लगे थे । सब कुछ ठीक चल रहा था । और अभी भी ठीक ही है । पर कभी कभी । अण्डरस्टेंड । कभी कभी मेरी वाइफ़ कुछ अजीव सी हो जाती है । एज हिस्टीरिया पेशेंट । यू नो । हिस्टीरिया ?
वह सेक्स के समय । या फ़िर किसी काम को करते करते । या सोते सोते ही । अचानक अजीव सा व्यवहार करने लगती है । जैसे उसका चेहरा विकृत हो जाना । उसकी आवाज बदल जाना । आँखों में भयानक बिल्लौरी इफ़ेक्ट सा पैदा हो जाना । कुछ अजीव शव्द वाक्य बोलना । जैसे लक्षण कुछ देर को नजर आते हैं । फ़िर कुछ देर बाद वह अपने आप सामान्य हो जाती है ।
बताईये इसमें क्या अजीव बात है ? आज दुनियाँ में एडस जैसी हजारों खतरनाक जान ही लेवा बीमारियाँ कितनों को हैं ? आदमी व्याग्रा से सेक्स जर्नी ड्राइव करता है । पाचन टेबलेट से खाना पचाता है । नींद गोलियाँ खाकर सोता है ...हो हो हो..है ना हँसने की बात ।
ब्रदर आज साइंस ने बेहद तरक्की की है । हर रोग का इलाज हमारे पास है । फ़िर इसका भी है । डाक्टर ने पता नहीं क्या अब्नार्मल ब्रेन आर्डर डिस प्लेमेंटरी जैसा कुछ ..हो हो हो...अजीव सा नाम लिख कर पर्चा बना दिया । उसकी मेडीसंस वह खाती है । अभी मुझे देखो । वैसे चीनी..कितनी महंगी है । और आदमी के अन्दर शुगर बढी हुयी है हो ..हो..हो.. है ना हँसने की बात । मेरी खुद बढी हुयी है । अभी चैक अप कराऊँ । डाक्टर पचासों रोग और भी निकाल देंगे ।.. हो..हो..हो.. आप यंग हो । स्वस्थ लगते हो । बट बिलीव मी मि. । माडर्न मेडिकल साइंस आप में भी हजार कमी बता देगी ..हो..हो..हो..है ना हँसने की बात ।
- है ना हँसने की बात । पूरा अजायब घर । उसके नीचे जाने के बाद उसने सोचा - साले इंसान है । या किसी कार्टून फ़िल्म के करेक्टर । इनका कोई एंगल ही समझ नहीं आता । एक तो वो दो ही नहीं झेले जा रहे थे । ये तीसरा और आ गया । ये तो ऐसा लगता है । वह उनकी हेल्प के उद्देश्य से नहीं आया । वे उल्टा उस पर ऐहसान कर रहे हों । कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने । उसके कानों में पदमा जैसे फ़िर बोली - राजीव ।.. कहानी जो उसने शुरू की । उसे कैसे कोई और खत्म कर सकता है । ये कहानी है..? कहानी । कहानी उससे छोङी भी न जा रही थी । और पढना भी मुश्किल लग रहा था ।
एक बार तो उसे लगा । कहाँ वह फ़ालतू के झमेले में फ़ँस गया । भाङ में गयी कहानी । और उसका लिखने वाला । पर तभी उसे चुनौती सी देती आकर्षक पदमा नजर आती । और कहती - इस कहानी के तारतम्य को आगे बढाना । उसके सूत्र जोङना । तुम जैसे बच्चों का खेल नहीं ।.. सोचो । अगर वो ऐसा न करते । तो फ़िर इतनी दिलचस्प कहानी बन सकती थी ? क्या कमाल की कहानी लिखी उन्होंने ।
और तभी उसे मनसा का भी चैलेंज सा गूँजता - भाग जा बच्चे । ये साधना सिद्धि तन्त्र मन्त्र बच्चों के खेल नहीं ।
इनमें दिन रात ऐसे ही झमेले हैं । इसलिये अभी भी समय है । दरअसल ये वो मार्ग है । जिस पर जाना तो आसान है । पर लौटने का कोई विकल्प ही नहीं है ।
हद हो गयी । जैसे उल्टा । जासूस किसी रहस्य को खोजने चला । और खुद रहस्य में फ़ँस गया । लेखक कहानी लिखने चला । और खुद कहानी हो गया । वह तो अपने मन में हीरोगीरी जैसा ख्याल करते हुये इसका एक एक तार जोङकर शान से इस उलझी गुत्थी को हल करने वाला था । और उसे लगता था । सब चकित से होकर उसको पूरा पूरा सहयोग करेंगे । पर यहाँ वह उल्टा जैसे भूल भुलैया में फ़ँस गया था । कहावत ही उलट गयी । खरबूजा छुरी पर गिरे । या छुरी खरबूजे पर । कटेगा खरबूजा ही । लेकिन यहाँ तो खरबूजा ही छुरी को काटने पर जैसे आमादा था ।
उसने मोबायल में समय देखा । रात के दस बजना चाहते थे । नीचे घर में शान्ति थी । पर हल्की हल्की टी वी चलने की आवाज आ रही थी । कुछ सोचता हुआ वह नीचे उतर आया ।
रात लगभग आधी होने वाली थी । पर वह अभी तक छत पर ही था । इस घर में उसका आज दूसरा दिन था । और वह कुछ कुछ तार मिलाने में कामयाब सा हुआ था । कल दिन में वह अधिकतर पदमा को वाच करता रहा था । लेकिन कोई खास कामयाबी हासिल न हुयी थी । सिवाय इसके । वह एक बेहद सुन्दर सलीकेदार कुशल गृहणी थी । बस उसमें एक बात वाकई अलग थी । उन्मुक्त सौन्दर्य युक्त उन्मुक्त यौवन । वह आम औरतों की तरह किसी जवान लङके पुरुष के सामने होने पर बार बार अपने सीने को ढांकने की बे फ़ालतू दिखावा कोशिश नहीं करती थी । या इसके उलट उसमें अनुराग दिखाते हुये बगलों को खुजाना । स्तनों को उभारना । जांघ नितम्बों को खुजाना । योनि के समीप खुजाना । जैसी क्रियायें भी नहीं करती थी । जो काम से अतृप्त औरत के खास लक्षण होते हैं । और ठीक इसके विपरीत किसी के प्रति कोई चाहत प्रदर्शन करते हुये अर्धनग्न स्तनों की झलक दिखा कर काम संकेत देना भी उसका आम लङकियों स्त्रियों जैसा स्वभाव नहीं था । वह जैसी स्थिति में होती थी । बस होती थी । वह न कभी कुछ अलग से दिखाती थी । न कुछ छिपाती थी । सहज सामान्य । जैसी है । है । लचकती मचकती हरी भरी फ़ूलों की डाली । अनछुआ सा नैसर्गिक सौन्दर्य ।
उसको इस तरह जानना । देखने में ये सामान्य अनावश्यक सी बात लगती है । पर किसी का स्वभाव चरित्र ज्ञात हो जाने पर उसे आगे जानना आसान हो जाता है । और वह यही तो जानने आया था ।
इसके साथ साथ आज दिन में उसकी एक पहेली और भी हल हुयी थी । जब वह गली के आगे चौराहे से सिगरेट खरीदने गया था । उसने एक सिगरेट सुलगायी थी । और मनोज के घर के ठीक सामने खङा था । जब उसकी निगाह गली के अन्तिम छोर तक गयी । अन्तिम छोर पर गली बन्द थी । यह देखते ही उसके दिमाग को एक झटका सा लगा । स्वतः ही उसकी निगाह मनोज के घर पर ऊपर से नीचे तक गयी । उस घर की बनाबट आम घरों की अपेक्षा किसी गोदाम जैसी थी । और वह हर तरफ़ से बन्द सा मालूम होता था ।
- बन्द गली । उसे भूतकाल से आते मनोज के शब्द सुनाई दिये - बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा ।
- हा हा हा । तभी उसके दिमाग में भूतकाल में जोगी बोला - बन्द गली । बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । हा हा हा । एकदम सही पता ।
- बन्द गली । बन्द घर तो हुआ । उसने सोचा - अब जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । लेकिन कहाँ है वो कमरा ? अंधेरा बन्द कमरा । जमीन के नीचे । इसका सीधा सा मतलब था । मनोज के घर में कोई तल घर होना चाहिये ।
अब ये एक और नयी मुसीबत थी । ये रहस्यमय पता सीधा उसी अण्डर ग्राउण्ड रूम की ओर इशारा कर रहा था । लेकिन वह नया आदमी सीधा सीधा किसी से उसके घर के तल घर के बारे में कैसे पूछता । उस पर साले ये सब आदमी कम कार्टून ज्यादा थे । और वह रहस्यमय औरत ? साली यही नहीं समझ में आता । औरत है कि कोई जिन्दा चुङैल भूतनी है । अप्सरा है । यक्षिणी है । या कोई देवी वेवी है ? क्या है ?
लगता है । ये रहस्यमय परिवार छत पर अक्सर बैठने का खास शौकीन था । छत पर एक बङा तखत कुछ कुर्सियाँ और लम्बी लम्बी दो बैंचे पङी हुयी थी । वह एक बैंच पर साइड के हत्थे से कोहनी टिकाये अधलेटा सा यही सब सोच रहा था । उसकी उँगलियों में जलती हुयी सिगरेट फ़ँसी हुयी थी । जिससे निकलकर धुँयें की लकीर ऊपर को जा रही थी । स्ट्रीट लाइट के पोल पर जलती मरकरी टयूब का हल्का प्रकाश छत पर फ़ैला हुआ था । उसकी कलाई घङी की दोनों सुईयाँ बारह नम्बर पर आकर ठहर गयी थी । छोटी सुई बङी से कसकर चिपकी हुयी थी । और बङी ने उसे ताकत से नीचे दबा कर भींच लिया था । सेकेंड की सुई छटपटाती सी बैचेन चक्कर लगा रही थी ।
एक अजीव सी बैचेन टेंशन महसूस करते हुये उसने सिगरेट को मुँह से लगाकर कश लेना ही चाहा था कि अचानक वह चौंक गया । पदमा ऊपर आ रही थी । जीने पर उसके पैरों की आहट तो नहीं थी । लेकिन उसके पैरों में बजती पायल की मधुर छन छन वह आराम से सुन रहा था ।
उसका दिल अजीव से भय से तेजी से धक धक करने लगा । क्या माजरा था ? और कुछ ही पलों में उसके छक्के ही छूट गये । वह अकेली ही ऊपर आयी थी । और बङी शालीनता सलीके से उसके सामने दूसरी बैंच पर बैठ गयी । बङी अजीव और खास औरत थी । क्या खाम खां ही मरवायेगी उसे । रात के बारह बजे यूँ उसके पास आने का दूसरा कोई परिणाम हो ही नहीं सकता था ।
- वास्तव में जवानी ऐसी ही होती है । वह मादक अंगङाई लेकर बोली - रातों को नींद न आये । करवटें बदलो । तकिया दबाओ । आप ही आप उलट पुलट कर बिस्तर सिकोङ डालो ।..तुम्हारे साथ भी ऐसा होता होगा..ना । है ना । अकेले में नग्न लेटना । नग्न घूमना । होता है ना ।
वह जवानी के लक्षण बता रही थी । और उसे अपनी जिन्दगानी ही खतरे में महसूस हो रही थी । ये औरत वास्तव में खतरनाक थी । उसका पति देवर कोई आ जाये । फ़िर क्या होगा ? कोई भी सोच सकता है ।
- लेकिन..। वह फ़िर से सामान्य स्वर में बोली - ऐसा सबके साथ हो । ऐसा भी नहीं । वो दोनों भाई किसी थके घोङे के समान घोङे बेच कर सो रहे हैं । प्रेमियों की निशा नशीली हो उठी है । रजनी खुल कर बाँहें फ़ैलाये खङी है । चाँदनी चाँद को निहार रही है । सब कुछ कैसा मदहोश करने वाला नशीला नशीला है..है ना ।
अब क्या समझता वह इसको । सौभाग्य या दुर्भाग्य ? शायद दोनों । प्रयोग परीक्षण के लिये जैसे समय जिस माहौल और जिस प्रयोग वस्तु की आवश्यकता थी । वह खुद उसके पास चलकर आयी थी । और उसका रुख भी पूर्ण सकारात्मक था । क्या था इस रहस्यमय औरत के मन में ? वह कैसे जान पाता ।
- काऽऽम..सेक्सऽऽ । वह ऐसे धीमे मगर झंकृत कम्पित स्वर में बोली कि उसे दक्षिण की दिवंगत सेक्स सिम्बल अभिनेत्री सिल्क स्मिता के बोलने की स्टायल याद हो आयी - सिर्फ़ सेक्स । हाँ नितिन..बस तुम गौर से देखो । तो इस सृष्टि में काम.. सेक्स ही नजर आयेगा । हर स्त्री पुरुष के मन दिलोदिमाग में बस हर क्षण काम तरंगे ही दौङती रहती हैं । वो देखो । उसने दूर क्षितिज की ओर नाजुक उंगली से इशारा किया - ये जमीन आसमान से मिलने को सदैव आतुर रहती है । हमेशा अतृप्त । क्योंकि ये कभी उससे पूर्णतयाः मिल नहीं पाती । इसका पूर्ण सम्भोग कभी हो ही नहीं पाता । जबकि यहाँ से ऐसा लग रहा है कि ये दोनों हमेशा काम रत हैं । लेकिन इसकी निकटतम सच्चाई यही है कि इन दोनों में उतनी ही दूरी है । जितनी दूरी इनमें है । यहाँ से एक दूसरे में समाये आलिंगन वद्ध नजर आते । पर ज्यों ज्यों पास जाओ । इनका फ़ासला पता लगता है । लेकिन वहाँ से आगे फ़िर देखने पर यही लगता है कि वह आगे पूर्ण सम्भोग रत है । किसी मृग मरीचिका जैसा । दिखता कुछ और । सच्चाई कुछ और । है ना ।
अचानक उसने अपने सीने के पास मैक्सी को इस तरह हिलाया । जैसे कोई कीङा उसके अन्दर घुस गया हो । और फ़िर दोनों स्तनों को थामकर हिलाते हुये मानों मैक्सी को एडजस्ट किया । और फ़िर बेहद शालीनता से ऐसे बैठ गयी । जैसे एक बेहद संस्कारी और सुशीला औरत हो । और वह वेवश था । इसको देखने सुनने के सिवाय शायद कुछ नहीं कर सकता था ।
लेकिन यहीं बस नहीं । वह किसी एक्सपर्ट काम शिक्षिका की भांति मधुरता से प्रेम पूर्ण स्वर में बोली - ऐसे ही नदियों को देखो । वे समुद्र से मिलने को निरंतर दौङ रही है । उनकी ये प्यासी दौङ कभी खत्म होती है क्या ? हमेशा अतृप्त । प्रथ्वी को देखो । ये कितने ही बीजों का निरंतर गर्भाधान कराती है । ये कभी तृप्त हुयी क्या ? चकोर कभी चाँद से तृप्त हुआ क्या ? ये बेले लतायें हमेशा ही वृक्षों से लिपटी रहती हैं । कभी तृप्त हुयी क्या ? ये भंवरे हमेशा कलियों का रस लेते हैं । क्यों नहीं कभी तृप्त हो जाते । पशु कुत्ते अपनी मादा को सूंघते हुये उसके पीछे घूमते हैं । सांड गायों के पीछे घूमते हैं । बन्दर काम के इतने भूखे हैं । कभी भी । कहीं भी । सबके सामने ही सेक्स कर लेते हैं । वे कभी तृप्त हो जाते हैं क्या ?
- माय गाड ! प्लीज । पदमा जी प्लीज । एनफ़ । वह घबराकर बोला - आप रुक जाईये प्लीज । हम किसी और सबजेक्ट पर बात नहीं कर सकते क्या ?
- इसीलिये तो मैं कहती हूँ । वह मधुर घण्टियों के समान धीमे स्वर में हँसती हुयी बोली - कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने ।.. कहानी जो उसने शुरू की । उसे कैसे कोई और खत्म कर सकता है ? न कहानी तुमसे पढते बन रही है । और न ही छोङते ।
चलो बदलती हूँ सबजेक्ट । फ़िर वह जलती मरकरी टयूब को देखती हुयी बोली - तनहाईयों से घिर गयी हूँ मैं । वो जो कभी हसरत बन कर जागी थी मेरे दिल में । आज मेरे पैरों की जंजीर बन गयी है । दुनियाँ से बिलकुल अलग हो गयी हूँ मैं । जब प्रथम भेंट हुयी उनसे तो । मेरे तन मन में प्यारी सी अनुभूति हुयी । उनकी आँखों में देखने की हिम्मत नहीं थी मुझ में । फ़िर भी उन्हें जी भर के देखना चाहती थी । वो मन्द मन्द मुस्कराते हुये बातें करते । और लगातार देखते रहे मुझे । पर मैं संकोच वश उन्हें कोई जबाब न दे पाती । उस पल मुझे लगा ऐसे कि वो मुझे बहुत पसन्द करते हैं । उस दिन के बाद उनसे रोज होने लगी बातें । इन बातों को सुनकर उनके प्रति लगाव बहुत गहरा हो गया है । लेकिन वक्त ने सब कुछ उलट कर रख दिया है । अब घिर गयी हूँ मैं एक अजीब सी उदासी से । शायद वो भी घिर गये हों तन्हाईयों से । और भर गयी हो रोम रोम में उनके उदासी । फ़िर भी मन में ये आस है कि । कभी दुख के बादल छटेंगे और होगा खुशहाल सवेरा ।
कभी दुख के बादल छटेंगे और होगा खुशहाल सवेरा । खुशहाल सवेरा ? अचानक उसकी मृगनयनी आँखों में आँसुओं के मोती से झिलमिला उठे - मुझे कविता वगैरह लिखना नहीं आता । बस ये राजीव जी के प्रति मेरे दिली भाव भर थे । जो स्वतः मेरे ह्रदय से निकले थे । लेकिन अब मैं तुमसे एक सरल सा प्रश्न पूछती हूँ । ये सब जानने के बाद बताओ कि - क्या मैं वाकई राजीव जी से बहुत प्यार करती थी या हूँ ?
- निसंदेह । वह बिना कुछ सोचे झटके से बोला - बहुत प्यार । गहरा प्यार । अमर प्यार ।
- गलत । टोटल गलत । वह भावहीन स्वर में बोली - मुझे लगता है । तुम बिलकुल ही मूर्ख हो । सच तो ये है कि मैं राजीव जी को कोई प्यार ही नहीं करती । दरअसल में तो मैं प्यार का मतलब तक नहीं जानती । प्यार किस चिङिया का नाम होता है ? ये भी मुझे दूर दूर तक नहीं पता । क्योंकि..क्योंकि..व     सुबकने लगी ।
नितिन के दिमाग में जैसे विस्फ़ोट हुआ । उसका समस्त वजूद हिलकर रह गया ।
- इसीलिये मैं फ़िर कहती हूँ । वह संभल कर दोबारा बोली - तुम मेरा यकीन करो । कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने ।.. कहानी जो उसने शुरू की । उसे कैसे कोई और खत्म कर सकता है ? इसीलिये न कहानी तुमसे पढते बन रही है । और न ही छोङते ।
किसी सुन्दरी के नीले आंचल पर टंके चमकते झिलमिलाते तारों से भरा आसमान भी जैसे यकायक उदास हो चला था । रात में सफ़र करने वाले बगुला पक्षियों की कतार आकाश में उङती हुयी दूर किसी अनजान यात्रा पर जा रही थी । उन दोनों के बीच एक अजीव सी खामोशी छा गयी थी । चुप चुप सी वह जैसे शून्य 0 में देख रही थी ।
क्या है ये औरत ? आखिर उसने सोचा - कोई माया । कोई अनसुलझा बङा रहस्य ? कोई तिलिस्म ।
पर अभी वह अपने ही इस विचार को बल देता कि तभी उसके कानों में भूतकाल भयंकर अट्टाहास करता हुआ बोला - ये कहानी है । सौन्दर्य के तिरस्कार की । चाहत के अपमान की । प्यार के निरादर की । जजबातों पर कुठाराघात की । वह कहता है । मैं माया हूँ । स्त्री माया है । उसका सौन्दर्य मायाजाल है । और ये कहानी बस यही तो है । पर..पर मैं उसको साबित करना चाहती हूँ - मैं माया नहीं हूँ । मैं अभी यही तो साबित कर रही थी । तेरे द्वारा । पर तू फ़ेल हो गया । और तूने मुझे भी फ़ेल करवा दिया । राजीव फ़िर जीत गया । क्योंकि .. वह भयानक स्वर में बोली - क्योंकि तू..तू फ़ँस गया ना । मेरे मायाजाल में । क्योंकि तू..तू फ़ँस गया ना । मेरे मायाजाल में । क्योंकि तू..तू फ़ँस गया ना । मेरे मायाजाल में ।
वह कहता है । मैं माया हूँ । स्त्री माया है ।.. मैं माया हूँ । स्त्री माया है । उसका सौन्दर्य मायाजाल है । पर..पर मैं उसको साबित करना चाहती हूँ - मैं माया नहीं हूँ । पर तू फ़ेल हो गया । तू फ़ेल हो गया । क्योंकि .. क्योंकि तू..तू फ़ँस गया ना । मेरे मायाजाल में ।.. मैं राजीव जी को प्यार करती थी ।.. गलत । टोटल गलत । मुझे लगता है । तुम बिलकुल मूर्ख हो । ..तुम बिलकुल मूर्ख हो ।.. गलत । टोटल गलत । सच तो ये है कि मैं राजीव जी को कोई प्यार ही नहीं करती । ..तुम बिलकुल मूर्ख हो । .. मैं राजीव जी को प्यार करती थी ।.. सच तो ये है कि मैं राजीव जी को कोई प्यार ही नहीं करती ।.. दरअसल में तो मैं प्यार का मतलब तक नहीं जानती । ।.. दरअसल में तो मैं प्यार का मतलब तक नहीं जानती । प्यार किस चिङिया का नाम होता है ? प्यार किस चिङिया का नाम होता है ? ये भी मुझे दूर दूर तक नहीं पता । क्योंकि..क्योंकि.. ?
यकायक उसे तेज चक्कर से आने लगे । उसका सिर तेजी से घूम रहा था । ये परस्पर विरोधाभासी वाक्य उसके दिमाग में गूँजते हुये रह रह कर बार बार भयानक राक्षसी अट्टाहास कर रहे थे ।
बार बार उसके दिमाग में विस्फ़ोट हो रहे थे । उसके दिमाग में सैकङों नंग धङंग प्रेत प्रेतनियाँ समूह के समूह प्रकट हो गये थे । एक भयंकर प्रेतक कोलाहल से उसका दिमाग फ़टा जा रहा था ।
और फ़िर अगले कुछ ही क्षणों में उसे अपनी जिन्दगी की भयानक भूल का पहली बार अहसास हुआ । वह भूल जो उसने इस घर में रह कर की थी । - हा हा हा । तभी उसके दिमाग में भूतकाल का जोगी अट्टाहास करता हुआ बोला - बन्द गली । बन्द घर । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । हा हा हा । एकदम सही पता । वह किसी भयंकर मायाजाल में फ़ँस चुका था ।
अचानक उसकी सुन्दर आँखों में भूखी खूँखार बिल्ली जैसी भयानक चमक पैदा हुयी । उसके रेशमी बाल उलझे और रूखे हो उठे । उसका मोहिनी चेहरा किसी घिनौनी चुङैल के समान बदसूरत हो उठा । वह हूँऽऽ..हूँऽऽ करती हुयी मुँह से फ़ुफ़कारने लगी । उसका सीना तेजी से ऊपर नीचे हो रहा था ।
- इसीलियेऽ तोऽऽ मैं कहतीऽऽ हूँ । वह दाँत पीस कर किटकिटाते हुये रुक रुक कर बोली - कमाल की.. कहानी लिखी है । इस कहानी के.. लेखक ने ।.. कहानीऽऽ जो उसने शुरू कीऽऽ । उसे कैसे.. कोई और कैसे खत्म कर सकता है ? कहानीऽ जो न तुझसे पढते बन रही है । और न छोङते ।
फ़िर यकायक उसके दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया । उसे पदमा के शब्द सुनाई नहीं दे रहे थे । उसका दिमाग फ़टने सा लगा । फ़िर वह लहरा कर बैंच से नीचे गिरा । और अचेत हो गया । उसकी चेतना गहन अंधकार में खोती चली गयी । एक प्रगाढ बेहोशी उस पर छाती चली गयी ।
- आओ मेरे साथ । तभी वह बेहद प्यार से उसका हाथ पकङ कर बोली - चलो । मैं तुम्हें वहाँ ले चलती हूँ । जहाँ जाने के लिये तुम बैचेन हो । बेकरार हो । जिसकी खोज में तुम आये हो ।
मंत्रमुग्ध सा वह उसके साथ ही चलने लगा । पदमा ने उसके गले में हाथ डाल दिया । और बिलकुल उससे सटी
हुयी ही चल रही थी । उसके उन्नत कसे उरोज और मादक बदन उसके शरीर का स्पर्श कर रहे थे । उसके बृह्मचर्य शरीर में काम तरंगों का तेज करेंट सा दौङ रहा था । शीत ज्वर जैसी भयानक ठंडक महसूस करते हुये उसका समूचा बदन थरथर कांप रहा था । वह नशे में धुत किसी शराबी के समान डगमगाते हुये उसके सहारे से चला जा रहा था ।
- ये वस्त्रों का चलन । वह काली अलंकारिक डिजायन वाली पारदर्शी मैक्सी नीचे खिसकाती हुयी बोली - अव्वल दर्जे के मूर्खों ने चलाया है । सोचो । सोचो । यदि सभी...सभी लोग.. स्त्री पुरुष बच्चे बिना वस्त्र होते । तो ये संसार कैसा सुन्दर प्रतीत होता । सभी एक से । कोई भेदभाव नहीं । सभी खुले खुले । कोई छिपाव नहीं । हर स्त्री पुरुष का शरीर ही खुद सबसे बेहतरीन वस्त्र है । ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना । फ़िर इसको वस्त्र से आवरित करना उसका अपमान नहीं क्या ? इसीलिये तो मनुष्य दुख में हैं । वह सदा ही दुखी रहता है । उसने तरह तरह की इच्छाओं के रंग बिरंगे सुन्दर असुन्दर हल्के भारी हजारों लाखों वस्त्रों का बोझा सा लाद रखा है । धन का वस्त्र । शक्ति का वस्त्र । यश का वस्त्र । प्रतिष्ठा का वस्त्र । लोभ का । लालच का । मोह का । मान का । अपमान का । स्वर्ग का । नरक का । जन्म का । मरण का । वस्त्र ही वस्त्र । ये मेरा वस्त्र । ये तेरा वस्त्र ।
- ह हाँ.. हाँ हाँ पदमा जी । वह प्रभावित होकर बोला - तुम ठीक कहती हो । पदमा तुम ठीक कहती हो । हर आदमी बनाबटी झूठ में जीता है । सिर्फ़ तुम सच हो । तुम सच का पूर्ण सौन्दर्य हो ।
- तो फ़िर । उसने मादकता से होंठ काटा । और झंकृत कम्पित बहुत ही धीमे स्वर में मधुर घुंघरू से छनकाती हुयी बोली - उतार क्यों नहीं देते ये झूठे वस्त्र । झूठ को उतार फ़ेंको । और सच को प्रकट होने दो । सच जो हमेशा नंगा होता है । बिना चस्त्र । बिना आवरण । ज्यों का त्यों ।
किसी आज्ञाकारी बालक की भांति वह सम्मोहित सा वस्त्र उतारने लगा । एक । एक । एक करके ।
- किसी प्याज को छीलने की भांति । ज्यों ज्यों नितिन के वस्त्र उतर रहे थे । उसकी चमकती लाल बिल्लौरी आँखों में चमक तेज हो रही थी । उसके शरीर में रोमांच सा भर उठा था । उसकी सुडौल छातियाँ तन उठी थी । उसके अन्दर एक ज्वाला सी जल उठी थी । फ़िर वह एक एक शब्द को काटती भींचती हुयी सी बोली - हाँ नितिन..किसी प्याज को छीलने की भांति.. देखो । पहले उसका अनुपयोगी छिलका उतर जाता है । फ़िर एक मोटी परत । फ़िर एक बहुत झीनी परत । फ़िर पहले से कम मोटी । फ़िर एक झीनी । फ़िर स्थूल परत । फ़िर सूक्ष्म परत । परत दर परत । और अन्त में कुछ नहीं । हाँ कुछ भी तो नहीं । शून्य 0 । सिर्फ़ शून्य 0 ।
और तब बचते हैं । सिर्फ़ एक स्त्री । और सिर्फ़ एक पुरुष । एक दूसरे को प्यासे अतृप्त देखते हुये । सदियों से । युगों से । आदि सृष्टि से । कामातुर । प्रेमातुर । एक दूसरे में समाने को तत्पर । चेतन और प्रकृति । तुम । वह उसके कटि भाग पर प्यासी निगाह डालती हुयी बोली - तुम चेतन रूप 1 हो । और मैं प्रकृति रूपा शून्य 0 । शून्य 0 । उसने मादकता से बहुत धीमे मधुर स्वर में उँगली से नीचे इशारा करते हुये कहा - तुम देख रहे हो ना - शून्य 0 । 1 और शून्य 0 । बस ये दो ही तो हैं । इसके सिवा और कुछ भी तो नहीं है । 2 3 4 5 6 7 8 9 इनका अपना कोई अस्तित्व नहीं । ये तो उसी 1 का योग होना मात्र ही है । 1 जो तुम हो । 0 जो मैं हूँ । बोलो..नितिन । बोलो । मैं गलत कह रही हूँ ?
- नहीं.कभी नहीं । वह उसको बेहद प्यासी निगाहों से देखता हुआ बोला - तुम सच ही कहती हो । तुम्हारी प्रत्येक बात नंगा सच है । तुम सच की सुन्दर मूरत हो ।
- आऽऽह..। वह तङपती हुयी सी दोनों स्तनों को थाम कर बोली - मैं प्यासी हूँ ।..और और शायद तुम भी । लेकिन नहीं । नहीं आदम । मेरे सदा प्रियतम । तुम ये वर्जित काम फ़ल मत खाना । क्योंकि..क्योंकि ये पाप है । वासना है । कामवासना है । ये पतन का द्वार है । आरम्भ है । स्त्री नरक का द्वार है ।..गाड ने..हमें मना किया है ना । हाँ आदम । भगवान ने मुझे भी कहा - हव्वा ! तू ये फ़ल मत खाना । कभी मत खाना ।
पर क्यों..क्यों ? वह एक अनजानी आग में जलता हुआ सा वासना युक्त थरथराते स्वर में बोला - क्यों है ये सुन्दर मिलन पाप ? ये पाप है पदमा । तो फ़िर इस पाप को करने की इतनी तीवृ इच्छा क्यों ? ये पाप पुण्य से अच्छा क्यों लगता है ? ये पाप.. पाप नहीं । पुण्य है । दो युगों से तरसती प्यासी रूहों का मधुर मिलन.. कभी पाप नहीं हो सकता । भगवान झूठ बोलता है । वह हमें बहकाना चाहता है । वह नहीं चाहता । आदम हव्वा का मधुर मिलन । मधुर मिलन ।
- आऽऽह ! वह चेहरे को मसलने लगी - मैं प्यासी हूँ ।
- मुझे परवाह नहीं । नितिन उसके सुन्दर प्यासे अंगों को प्यास से देखता हुआ बोला - मुझे चिन्ता नहीं । पाप की । पुण्य की । दण्ड की । पुरस्कार की । स्वर्ग की । नरक की ।..और..और किसी भगवान की भी ।
- तो..तो फ़िर भूल जाओ । वह बाँहें फ़ैलाकर बोली - कि मैं कौन हूँ । तुम कौन हो । जो होता है । होने दो । वह स्वयं होगा । उसको रोकना मत । और .और उसको करना भी मत । ये सुर संगीत खुद बनता है । फ़िर खुद बजता है । इसके गीत राग खुद पैदा होते हैं । मधुर स्वरों से सजे आनन्द गीत । क्योंकि..क्योंकि वही तो सच है । .. प्यास .. प्यास .. तृप्त .. अतृप्त .. तृप्त..अतृप्त ।
ये शब्द किसी स्वयं होती प्रति ध्वनि के समान उस जगह गूँज रहे थे । वह शून्य 0 हो चला था । अब उसे बस शून्य 0 नजर आ रहा था । शून्य 0 । गोल गोल शून्य 0 । खाली विशाल शून्य 0 । वह इसी शून्य 0 में खो जाना चाहता था । डूब जाना चाहता था । शून्य 0 । सिर्फ़ शून्य 0 ।
वह पूर्ण रूप से होशोहवास खो चुका था । फ़िर वह उस पर भूखे शेर की भांति झपटा । वह भयभीत हिरनी सी भागी । वह बकरी की भांति मंऽऽमंअं एंऽऽ चिल्लाई । वह बकरे सा मोटे स्वर में मुंऽ अंऽ आंऽ आँऽऽ मिमियाया । वह घोङी की भांति उछली । वह घोङे की भांति उठा । वह सहमी चिङिया सी उङी । वह बाज की भांति लपका । वह डरी गाय सी रम्भाई । वह बेकाबू पागल सांड सा दौङा । आखिर वह हार गयी । भय से थरथर कांपने लगी । लेकिन उसने पूर्ण क्रूरता से उसे दबोच लिया ।
- आऽह..नहीं..। उसने विनती की - मर जाऊँगी मैं । छोङ दो मुझे । दया करो आदम । कुछ तो दया करो ।
शून्य 0 । गोल गोल शून्य 0 । खाली विशाल शून्य 0 । वह इसी शून्य 0 में खो जाना चाहता था । डूब जाना चाहता था । शून्य 0 । सिर्फ़ शून्य 0 ।
- आऽऽई..ऊऽऽमाँ..ऐसे बेसबर न हो ।...मैं नाजुक हूँ । कांच की हूँ । कली हूँ ।..उईऽऽ..नहींऽऽ आदम..ये क्या कर रहे होऽ तुम ।..धीरे धीरेऽऽ..बहुत..धीरे..   ेङो इन सुर तारों को..आऽऽऽऊ आऽह..बहुत दर्द..हो रहा है । नहीं आदम..रहने दो ना ।..मै हव्वा हूँ । तुम्हारी प्यारी हव्वा । सुन्दर हव्वा । फ़िर क्यों निर्दय होते है..आऽऽई.. री माँ ..मर गई.उफ़...बस अब रहने दो ना..। ओऽऽ माँ..नहीं ।..सच्ची आदम ..मर जाऊँगी मैं ..। आऽऽऽ ऽऽईऽऽ ऽईऽ ऽऽऽ ..
अचानक ही हङबङा कर उसने आँखें खोल दी । धूप की तेज तपिश से उसे गर्मी सी लग रही थी । वह पसीने में नहाया हुआ था । और बैचेन हो रहा था । उसने घङी में समय देखा । सुबह के दस बजने वाले थे । और वह उसी तरह उस आदमकद बैंच पर लेटा हुआ था । और अब होश में आया था । इसका साफ़ मतलब था । वह रात भर यहीं पङा रहा था । लेकिन क्यों ?
रात में क्या हुआ था ? उसने अपनी स्मृति को एकत्र करते हुये फ़िर से पीछे की यात्रा की । रात बारह बजे । जब वह नीचे जाने का विचार कर रहा था । अचानक पदमा छत पर आ गयी थी । वह उससे बात करती रही थी । तभी अचानक उसे चक्कर आ गया था । और वह नीचे गिर पङा था । इसके बाद उसे कुछ याद नहीं । फ़िर तबसे वह अभी उठा था । अभी ? रात के बारह बजे से अभी । दस बजे । तब इस बीच में क्या हुआ था ? उसने अपनी याद पर जोर डाला । फ़िर बहुत कोशिश करने पर धीरे धीरे उसे वह सब याद आने लगा ।
पदमा उसे सहारा देती हुयी छत से नीचे उतार ले गयी थी । उसने स्पष्ट अपने को उसी घर के जीने से उतरते हुये देखा था । लेकिन उसके बाद यकायक उसकी आँखों के आगे अंधेरा सा हो गया । उसे महसूस हो रहा था । वह जैसे किसी अंधेरी सुरंग में उतरता जा रहा है । काला स्याह । घोर घनघोर अंधेरा । उसे सहारा देती हुयी पदमा उसके साथ सीढियाँ उतरती जा रही थी । कोई अज्ञात सीढियाँ । फ़िर सीढियाँ भी खत्म हो गयीं । और वे समतल जमीन पर आ गये । तब यकायक वहाँ हल्का सा प्रकाश हो गया । उसने देखा । मादकता से मुस्कराती हुयी पदमा स्विच के पास खङी थी । उसने ही वह बल्ब जलाया था । जिसका मटमैला प्रकाश कमरे में फ़ैल गया था ।
कमरा । उसके दिमाग में अचानक विस्फ़ोट हुआ - जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । हाँ वही तो था वह । एक बङे हाल जैसा भूमिगत कक्ष । लगभग खाली सा साफ़ कमरा । जिसमें बाकायदा दो अलग अलग बेड थे । कुछ अजीव सी धुंधली तस्वीरें दीवालों पर ।
- प्यारे आदम । सम्भोग के बाद निढाल सी पङी वह अधमुँदी आखों से बोली - कैसा था यह वर्जित फ़ल ? अच्छा ना ।
पर अब वह जाने क्यों ठगा सा महसूस कर रहा था । जैसे कुछ सही सा नहीं हुआ था । उसे वह सुन्दर औरत । सौन्दर्य की देवी । जाने क्यों ठगिनी सी नजर आ रही थी । ठगिनी । जिसने उसका सब कुछ लूट लिया था । उसका वह बेमिसाल सौन्दर्य । अब उसे फ़ीका लग रहा था । उसके सब अंग । रंग हीन लग रहे थे । रस टपकाता यौवन । अब एकदम नीरस लग रहा था ।
ऐसा ही होता है । वह कोहनी के सहारे टिकती हुयी पूर्ववत ही अपने विशेष अन्दाज में धीरे से बोली - मैं तुम्हारे दिल की आवाज सुन सकती हूँ । तुम सब मर्द । एक जैसे ही होते हो । स्वार्थी भंवरे । सिर्फ़ रस चूसने से मतलब रखने वाले । तब मैं सौन्दर्य की देवी नजर आ रही थी । और तुम मेरे पुजारी थे । क्योंकि तुम मेरा रसास्वादन करना चाहते थे । अब तुम रस चूस चुके । तब मैं फ़ीकी लगने लगी । तुम खुद को ठगा महसूस कर रहे हो । मुझे बताओ आदम । तुम लुटे । या मैं लुटी ? मैंने तो अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया । मैंने तुम्हारा पुरुष प्रहार सहा । प्रेम क्रूरता सही । मैं दया दया करती रही । की तुमने कोई दया ? फ़िर तुम ऐसा क्यों सोचते हो । जो हुआ । सो अच्छा नहीं हुआ । और उसकी दोषी मैं हूँ । सिर्फ़ मैं ।
हर पुरुष जीवन की यही कहानी है । पहले तुम स्त्री के लिये लालायित होते हो । उसे भोगते हो । चूसते हो । फ़िर उसे लात मार देना चाहते हो । क्योंकि भोगी हुयी स्त्री तुम्हारे लिये रसहीन सी हो जाती है । बे स्वाद । मुर्दा । निर्जीव ।
कमाल की औरत थी । उसने सोचा । शायद दूर से खींचने की शक्ति थी इसके पास । धूप और तेज हो उठी थी । वह टहलता हुआ सा उठा । और नीचे आंगन में झांकने लगा । पर अभी वहाँ कोई नहीं था । हल्की सी खट पट कहीं अन्दर से आ रही थी । हाँ । दूर से ही खींच लेने वाली मायावी औरत ही थी ये । तभी तो ये शमशान से यहाँ तक खींच लायी थी । खींचा ही तो था इसने । वरना कहाँ थी ये वहाँ ?
वह इसको हल करने आया था । उसने हल को ही सवाल बना दिया । उसने झटके से सिर को तीन चार बार हिलाया । और आगे के बारे में सोचा । उसे इस मायावी औरत के चक्कर में नहीं पङना चाहिये । और फ़ौरन यहाँ से चला जाना चाहिये । लेकिन क्यों ? क्यों ?
यदि वह एक औरत से हार जाता है । उसकी माया से डर जाता है । फ़िर उसका तंत्र मंत्र रुझान तो व्यर्थ है ही । उसका सामान्य मनुष्य होना भी धिक्कार है । दूसरे वह कुछ विचलित होता था । थोङा डगमाता भी था ।
तभी वह उसके अन्दर बोलने लगती - क्या कमाल की कहानी लिखी । इस कहानी के लेखक ने । कहानी जो उसने शुरू की । उसे कोई और कैसे खत्म कर सकता है । इसीलिये..इसीलिये ये कहानी न तुमसे पढते बन रही है । न छोङते । ये बच्चों का खेल नहीं नितिन ।
- बोलो । वह फ़िर बोली - मुझे जबाब दो । क्या गलती है औरत की । क्या प्यासी सिर्फ़ औरत है ? पुरुष नहीं ।
पर वह कुछ न बोल सका । इस औरत के शब्दों में वह जादू था । जिसके लिये कोई शब्द ही न थे । फ़िर क्या बोलता वह । ऐसा लग रहा था । कुछ गलत भी न थी वह ।
- रहने दो । वह जैसे उसे मुक्त करती हुयी बोली - शायद कुछ प्रश्नों के उत्तर ही नहीं होते । अगर उत्तर होते । तो औरत पुरुष के बराबर न होती । फ़िर उसकी दासी क्यों होती ? चलो । मैं तुम्हें कुछ अलग दिखाती हूँ ।
वह एकदम हैरान सा रह गया । अब ये क्या दिखाने वाली है ? वह उसी मादकता मिश्रित शालीनता से उठी । और उसके पास आ गयी । उसने अपनी लम्बी पतली गोरी बाँहें उसके गले में डाल दी । और बेतहाशा उसके होठ चूमने लगी । जैसे नागिन बदन से लिपटी हो । और जैसे विषकन्या होठों से चिपकी हो । नशे से उसका सिर तेजी से घूमने लगा । दिमाग के अन्दर गोल पहिया सा तेजी से चक्कर काटने लगा । फ़िर वह दोनों चिपकी हुयी अवस्था में ही ऊपर उठने लगे । उनके पैर जमीन से उखङ चुके थे । और वह किसी मामूले तिनके के समान तूफ़ान में उसके साथ ही उढता हुआ दूर जंगल में जा गिरा ।
वाकई उसने फ़िर सच कहा था - चलो । मैं तुम्हें कुछ अलग दिखाती हूँ ।
यह एक अजीव जंगल था । बहुत ही ऊँचे ऊँचे विशाल घने पेङों की भरमार थी उसमें । चमकते सूर्य की रोशनी का कहीं नामोनिशान नहीं था । धुंधला मटमैला पीला मन्द प्रकाश ही फ़ैला था वहाँ । उस जंगल में भीङ की भीङ असंख्य पूर्ण नग्न स्त्री पुरुष मौन विचरण कर रहे थे । सिर्फ़ 30 आयु के लगभग स्त्री पुरुष । न वहाँ कोई बच्चा था । न कोई बूढा था । न कोई सुन्दर था । न कोई बदसूरत था । न वहाँ कोई रोगी था । न वहाँ कोई स्वस्थ भी था । जो भी था । सामान्य था । और सब तरह से आवरण हीन । खुला खुला ।
वह हैरत से उन्हें देखता रहा । वे आपस में बिलकुल न बोल रहे थे । और धीमे धीमे कदमों से इधर उधर चल रहे थे । कुछ जोङे आपस में एक दूसरे को चूम रहे थे । कुछ सम्भोग रत थे । कुछ निढाल से पङे थे । कुछ हताश से खङे थे । वे मुर्दा आँखों से बिना उद्देश्य सामने देखते थे । उनमें से कोई भी उनकी तरफ़ आकर्षित नहीं हुआ । वे दोनों एक ऊँची पहाढी पर बैठे थे । और उसी स्थान अनुसार पूर्णतः नग्न थे ।
- ये एक विशेष मण्डल है । वह जैसे मौन की भाषा में उसके दिमाग में बोली - जिसे अंग्रेजी में zone कहते हैं । ये न प्रथ्वी है । न कोई और ग्रह नक्षत्र । न ही कोई अन्य प्रथ्वी । और न ही अन्य सृष्टि । यहाँ जो यन्त्र तुम देख रहे हो । मेरी बात पर गौर करो - यन्त्र । ये शरीर नजर आ रहे हैं । पर वास्तव में ये यन्त्र है । खास बात ये है कि ये एक कवर्ड एरिया है । यहाँ अंतरिक्षीय शब्द से उत्पन्न वायव्रेशन प्रथ्वी की तरह सीधा नहीं आता । बल्कि रूपान्तरण होकर बिलकुल क्षीण बहुत मामूली सा आता है ।
और इसी बिज्ञान नियम की वजह से ये या हम लोग यहाँ वाणी से बोल नहीं सकते । यहाँ सिर्फ़ मौन के शब्द ही बनते हैं । प्रथ्वी की तरह तेज चल भाग भी नहीं सकते । संक्षिप्त में स्थूल शरीर की बहुत सी क्रियायें नहीं कर सकते । ये सूर्य आदि तारों का प्रकाश यहाँ कम होने की वजह भी यही है ।
फ़िर तुम सोच रहे होगे । ये लोग हैं कौन ? ये हमारी आंतरिक और यांत्रिक कामवासना का रूप है । या आकार है । बङा जटिल है इसको समझना । पर मैं समझाने की कोशिश करती हूँ । शायद तुम समझ जाओ ।
अब नीचे हलचल कुछ तेज होने लगी थी । पर वह तो जैसे पागल हो गया था । मिथक कथायें । एलियन स्टोरीज सभी की तरह उसने सुनी पढी भर थी । पर वे यहीं जीवन में भी हो सकती थीं । ये कल्पना ही कठिन थी । एक मामूली भूत प्रेत जिज्ञासा ऐसी भयंकर या दिलचस्प यात्रा का कारण हो सकती है । बिना अनुभवी स्वयंम्भी हुये वह सोच भी नहीं सकता था । शायद कोई भी विश्वास ही न करे । एक साधारण गृहस्थ इंसान के घर में इतना रहस्य छिपा हो सकता है । उसकी सुन्दर स्त्री इतनी मायावी हो सकती है । अच्छे से अच्छा बुद्धिजीवी भी शायद नहीं सोच सकता । इम्पासिबल । असंभव ।
अभी वह फ़िर से पिछली घटना के तार जोङने की और उसका तारतम्य समझने की कोशिश कर रहा था । तभी उसे जीने पर आते कदमों की आहट सुनाई दी । और स्वाभाविक ही उसका समूचा ध्यान उधर ही केन्द्रित हो गया । अब क्या होने वाला था । क्या कुछ और नया ? अफ़लातूनी ? अगङम बगङम सा
नितिन जी ! अनुराग ऊपर आकर उसके सामने बैठता हुआ बोला - आप शादी के बारे में अपने विचार बताईये । आय मीन । इंसान को शादी करनी चाहिये । या नहीं ? ..हो हो हो..है ना हँसने की बात । क्या पागलपन का प्रश्न है ।
- देखिये । वह सामान्य स्वर में बोला - मैं इस बारे में कोई सटीक राय कैसे दे सकता हूँ । जबकि मैं स्वयं ही अविवाहित हूँ । और मुझे ऐसा कोई अनुभव भी नहीं है । फ़िर भी मनुष्य के अब तक इतिहास में शादी करने वालों के उदाहरण अनगिनत है । जबकि शादी न करने वालों के बहुत कम । और मुझे नहीं लगता कि शादी न करने वालों ने कुछ ऐसे झण्डे गाढे हों । जो अभी तक शान से फ़हरा रहे हों । और जिससे दूसरे स्त्री पुरुष विवाह न करने को प्रेरित हों । लेकिन ये बात मैं सिर्फ़ कह सकता हूँ । आप स्वयं अनुभवी हो । इसलिये आप कुछ अधिक बेहतर बता सकते हो ।
वह बगलोल सा गोल गोल आँखों से उसे देखता हुआ इस बेबाक विचार को गम्भीरता से सुनता रहा । और कुछ कुछ हैरान सा हुआ । सही कहा जाये । तो लङके की स्पष्ट शैली ने उसे बेहद प्रभावित किया ।
- काफ़ी सुलझे हुये इंसान हो दोस्त । वह प्रशंसा करता हुआ बोला - बात क्या कहते हो । चाँटा सा मारते हो । हो हो हो..है ना हँसने की बात । पर मुझे ये चाँटा खाना अच्छा लगा । खैर..मैं अपनी ही बात बताता हूँ । मुझे देखो । वह अपने बढी हुयी मोटी तोंद पर हाथ फ़िराता हुआ बोला - कोई भी इंसान मुझे देखकर मेरे भाग्य से ईर्ष्या ही करेगा । सरकारी नौकरी । निजी मकान । हट्टा कट्टा प्रेम करने वाला भाई । और अप्सराओं को मात करने वाली अति सुन्दर पत्नी । और इससे ज्यादा क्या चाहिये । हो हो हो.. है ना हँसने की बात । बोलो । कुछ गलत कहा मैंने ?
नितिन ने उसके समर्थन में सिर हिलाया । जिससे वह काफ़ी खुश हुआ ।
- लेकिन । वह जैसे जोरदार शब्दों में बोला - ये सब ऊपर से नजर आता है । हम सबको ऐसे ही ऊपर से देखने पर दूसरों का जीवन सुखमय नजर आता है । जबकि ठोस हकीकत ऐसी नहीं होती । मुझे देखो । मेरी अति सुन्दर पत्नी है । पर उसकी सुन्दरता को रोज रोज चाटूँ क्या ? उसकी रोज रोज आरती उतारूँ क्या ? हो हो हो..है ना हँसने की बात । जबकि एक सुन्दर औरत यही चाहती है । अपने पति या प्रेमी से । और अन्य सभी से भी । पर उसे नहीं मालूम । मेरी जिन्दगी । और एक धोबी के गधे की जिन्दगी । बिलकुल एक जैसी है । यू नो । डंकी आफ़ धोबी ..सारी शब्द भूल गया । याद आया । वाशरमेन..हो हो हो..।
धोबी गधे की पीठ पुठ्ठे कमर आदि बेल्ट से कस देता है । उस पर झोली डालता है । ईंटे लादता है । और गधा बेचारा चुपचाप बिना चूँ चाँ उसकी चाकरी करता है । फ़िर भी वो बिना बात उसके चूतङ में कोङा मारता है । गालियाँ देता है । हो हो हो.. है ना..हँसने की बात । फ़िर भी । फ़िर भी उस गधे से गधा कह दो । तो बहुत बुरा मान जायेगा । आप में उछल कर दुलत्ती मारेगा । हो हो हो.. है ना हँसने की बात ।
नितिन एकदम सब कुछ भूलकर ठहाका लगा उठा । क्या कहना चाहता था ये इंसान । और उसने अपनी ही ऐसी अजीव तुलना क्यों की ? उसे उसकी बातों में रस आने लगा ।
- देखो । वह बात को आगे बढाता हुआ बोला - मेरी नौकरी बीबी मकान इत्तफ़ाकन थोङा ही आगे पीछे सभी साथ साथ मिले । तीन जरूरी सुख । आसानी से मिले । इसके बाबजूद मैं गधा बन गया । नितिन जी इस संसार में नौकरी बिजनेस कोई अन्य रोजगार विषय हो । हर आदमी एक दूसरे की....मारने में लगा हुआ है । उस सबसे कैसे निबटना होता है । ये मैं ही जानता हूँ । उस पर दफ़्तर के काम का जरूरी जिम्मेदाराना बोझ । भुक्तभोगी के लिये ये गधे का बोझा ढोने के समान ही है । लेकिन मेरी सुन्दर बीबी को इस सबसे मतलब नहीं । वह हर आम बीबी की तरह शाम को पाउडर लिपिस्टिक लगाकर छल्ले मल्ले निकाल कर तैयार हो जाती है कि मैं अब उसकी नाइट डयूटी बजाने को तैयार हो जाऊँ । हो हो हो..है ना हँसने की बात । दिन में पेट के लिये डयूटी । रात में पेट से नीचे की डयूटी । और इस डयूटी पर खरा न उतरे । तो वह बिना बोले सिर्फ़ आँखों से व्यंग्य भावों से चूतङ में कोङा लगाती है । पति को नपुंसक नामर्द समझती है ।
इसलिये मेरे भाई । वह अपने मोटे पेट पर हाथ फ़िराता हुआ बोला - सुखी दिखाई देता जीवन ढोल की पोल है बस । ढोल में कैसी मधुर आवाज निकलती है । लगता है । इसके अन्दर जाने क्या स्पेशल चीज रखी है । लेकिन उसका पुरा उतार कर देखो । तो वहाँ एक शून्य 0 खाली सन्नाटा रिक्तता ही होती है । हो हो हो .. इसलिये कहा है ना । असल में । जो दिखता है । वो होता नहीं है । और जो होता है । वो दिखता नहीं है ।
- हाँ नितिन । पदमा फ़िर से मौन स्वर ही उसके दिमाग में बोली - जो दिखता है । वो होता नहीं है । और जो होता है । वो दिखता नहीं है । यह जीवन का बहुत बङा सच है । ये जो तुम यहाँ मनुष्य शरीरों जैसे यन्त्र आकार देख रहे हो । ये इसी प्रथ्वी के स्त्री पुरुषों की कामेच्छा के साकार कल्पना चित्र है । अतृप्त दमित कामवासना के कल्पना चित्र । कामवासना का सम्भोग सिर्फ़ शरीरों का मिलन या लिंग योनि इन्द्रियों का संयोग भर नहीं है । इंसान कई तरह से सेक्स करता है । समझना । रास्ते निकलती हुयी सिर्फ़ किसी एक जवान लङकी या औरत से उसके घर पहुँचने तक पचासों लोग मानसिक सम्भोग कर चुके होते हैं । कोई उसके स्तनों के प्रति अपनी कल्पना करता है । कोई गालों के प्रति । कोई होठों के । कोई नितम्बों से । कोई योनि का रसिक होता है । सोचो । सिर्फ़ एक लङकी मामूली रास्ते से घर तक कितने लोगों द्वारा अप्रत्यक्ष बलात्कार की गयी । और ये सिर्फ़ एक लङकी की बात की मैंने । तब सोचो । संसार में प्रति क्षण कितना मानसिक बलात्कार होता होगा ?
नितिन वाकई हक्का बक्का रह गया । एक साधारण बात का जो रहस्य उसने बताया था । शायद ही बढे से बढा बुद्धिजीवी भी इसकी इस तरह कल्पना न कर सके । उसे तो ऐसा ही लगा । कम से कम उसने तो कभी इस कोण से न सोचा था । इस तरह से न सोचा था । ख्याल ही न होता था ।
- लेकिन । वह फ़िर बोली - यहाँ नजर आते यन्त्र ऐसे लोगों के नहीं है । वह सिर्फ़ क्षणिक वासना होती है । अतः उसका चित्र आकार रूप नहीं ले पाता । ये यन्त्र दरअसल उन लोगों के हैं । जो तनहाई में पङे अपने प्रेमी प्रेमिका आदि से काल्पनिक सम्भोग कर रहे होते हैं । कोई दूसरे की स्त्री या पढोसन से काल्पनिक सम्भोग कर रहा होता है । स्थूल शरीर मिलन संयोग सुलभ न हो पाने से कोई प्रेमिका अपने प्रेमी के नीचे कल्पना में बिछी होती है । कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका को ख्यालों में लौट पलट कर रहा होता है । लेकिन ये तो ऐसे लोगों के उदाहरण हुये । जो परस्पर एक दूसरे को जानते हैं । कई बार सम्भोग साथी एकतरफ़ा प्यार जैसा होता है । कोई किसी को चाहता है । जबकि उसकी चाहत दूसरे को दूर दूर तक पता नहीं । वह कोई भी स्त्री पुरुष अपने कल्पना साथी को काल्पनिक संभोग करता है । ये हुयी एकतरफ़ा चाहत की बात । और भी देखो । कोई चाहत भी नहीं । कोई प्रेमी प्रेमिका अपने साथी के साथ मधुर मिलन के क्षणों के बारे में किसी परिचित से बात कर रहा है । और तुम यकीन करो । सुनने वाला निश्चित ही तुरन्त लालायित होकर उससे दूरस्थ सम्भोग करने लगेगा । उसी क्षण । काम..सेक्स.. सेक्स..सिर्फ़ सेक्स.. । इस सृष्टि के कण कण में काम समाया हुआ है । ये यन्त्र ऐसे ही लोगों के हैं । जो अपनी कल्पना का काम चित्र गहन भाव से देर तक बनाते रहते हैं । और उसमें विभिन्न रंग भरते हैं । क्योंकि ऐसे सेक्स पर कोई रोक नहीं लगा सकता । जिसके साथ कोई दूसरा सेक्स कर रहा है । वह भी नहीं । चाहे वह उसे पसन्द करे । या न करे । इस तरह ये इंसान किसी न किसी के प्रति परस्पर काम भाव में हमेशा डूबा रहता है ।
अब तुम गहराई से समझना । तुम प्रयोग के लिये एक सुन्दर लङकी की कल्पना करो । जिसे स्वपन में हुयी काम वासना की भांति तुमने नग्न कर लिया है । और वह स्वपन के सेक्स साथी की ही भांति कोई ना नुकर नहीं कर रही । वहाँ कोई सामाजिक डर भय भी नहीं । तब तुम कैसे परिचित भाव में सेक्स करते हो । जबकि तुम उसे दूर दूर तक नहीं जानते । और न ही वो तुम्हें । फ़िर बताओ । ऐसा कैसे हुआ ?
तो जो तन्हा बिस्तर पर लेटी प्रेमिका अपने प्रेमी के साथ काल्पनिक अभिसार कर रही है । अब जरा बारीकी से समझना । उसका अंतर्मन में एक चित्र आकार बन रहा है । उस समय वह मुँह से स्थूल वाणी शब्द भी नहीं बोल रही । पर उसका मौन स्वर आऽऽह आऽऽई नहीं.. आदि कर रहा है । अब उसके अंगों में रोमांच है । शरीर में उत्तेजना है । स्तन भरने लगे । योनि की आंतरिक पेशियों में फ़ङकन है । उसके खुद के हाथ प्रेमी के हाथ बन जाते हैं । उसकी खुद की उँगली प्रेमी का अंग बन जाती है । वह आधी खुद आधी अपना प्रेमी स्वयं हो जाती है । और अंततः पूर्ण उत्तेजना को प्राप्त होकर स्खलित भी हो जाती है । अब गौर से सोचो । अगर उसको कोई उस दशा में देखे । तो यही सोचेगा कि एक युवा लङका या लङकी अकेली हस्तमैथुन कर रही है । लेकिन वह यह कभी नहीं देख पायेगा कि इसकी काम वासना चेतना युक्त होकर प्रेमी के साथ विभिन्न मुद्रायें चित्र आकार स्वर का भी निर्माण कर रही है ।
और भले ही यह यहाँ अकेली नजर आ रही है । पर वास्तव में किसी अज्ञात स्थल अज्ञात भूमि पर विचार आकारित पूर्ण संभोग कर रही है । बिलकुल असली स्थूल शरीर संभोग के जैसा । और क्योंकि वह भी वाणी रहित मौन होता है । ये सब भी मौन स्वर हैं । बस उसकी कल्पना का प्रेमी प्रेमिका । और स्वयं उसके साथ सम्भोग रत वह । तब जो वहाँ दृश्य रूप नजर नहीं आता । वह यहाँ दिखाई देता है । क्योंकि कोई तो वह स्थान होगा ही । जहाँ वह वैचारिक सम्भोग कर रही है । नितिन जी । ये यन्त्र उन्हीं लोगों के काल्पनिक चित्र आकार है । यह इसके लिये एक निश्चित भूमि है ।
उसके दिमाग का फ़्यूज मानों भक से उङ गया । कौन थी ये औरत ? कौन ? सोचना भी कठिन है ।
और अभी वह नीचे उतरने की सोच ही रहा था कि नहाकर ऊपर आती हुयी पदमा गीले बालों को झटकती हुयी छत पर आ गयी । वह इस अनोखी स्त्री की प्राकृतिक सुन्दरता देखकर एक बार फ़िर दंग रह गया ।
- कमाल के इंसान हो । वह साधारण स्वर में एक शालीन स्त्री की भांति बोली - रात से अभी तक छत पर क्या कर रहे हो ? क्या तुम स्नान आदि कुछ नहीं करते । मुँह भी नहीं धोया । चाय पानी कुछ भी नहीं । ऐसे तो भाई लगता है कि तुम कोई बङे रहस्यमय से इंसान हो । किसी अजीब सी कहानी जैसे । ऐसी अजीव और उलझी कहानी कि यही समझ में न आये कि इस कहानी को पढा जाये । या रहने दिया जाये ।
इस औरत ने सदियों से स्थापित कहावत ही फ़ेल कर दी थी । उसने सोचा । पता नहीं किस बेबकूफ़ ने कहा था । खरबूजा छुरी पर गिरे । या छुरी खरबूजे पर । कटेगा खरबूजा ही । यहाँ तो खरबूजा छुरी को ही काटे दे रहा था । पदमा अपनी बङी बङी कजरारी आँखों से उसी की ओर देख रही थी । और जैसे वह सधः स्नाता उसे चैलेंज सा करते हुये कह रही थी - क्या कमाल की कहानी लिखी । इस कहानी के लेखक ने । कहानी जो उसने शुरू की । उसे कोई और कैसे खत्म कर सकता है । इसीलिये..इसीलिये ये कहानी न तुमसे पढते बन रही है । न छोङते । ये बच्चों का खेल नहीं नितिन ।
अपवाद की बात छोङ दी जाये । तो सामान्यतः जिन्दगी में कई चीजें एक ही बार होती है । जन्म । मृत्यु । शादी । प्रेम आदि । फ़िर क्या हो सकता है । ज्यादा से ज्यादा उसकी मौत ही ना । मौत जो एक ही बार होनी है । और कोई तय नहीं कि किसकी कब और कैसे होगी ? लिखित रूप में ऐसी कोई गारंटी भी नहीं होती कि इंसान फ़ालतू के झमेलों में ना पङे । तो वह पूरे 100 वर्ष निर्विघ्न जीयेगा । और फ़िर उसे इस बात का भगवान से कोई पुरस्कार भी मिलेगा । एक आंतरिक गर्भ स्थिति में पहली सांस लिया बालक से लेकर किसी भी आयु का कोई भी इंसान कभी भी कहीं भी कैसे ही हालात में मर सकता है । अनुभवी लोग कहते हैं । जीवात्मा का जन्म होते ही मौत की छाया उसके पीछे पीछे चलने लगती है । मौत की छाया । क्यों सोच रहा है । वह ऐसे दार्शनिक विचार ? उसने खुद ही मन में सोचा ।
दरअसल कल की रात उस तलघर और उस अज्ञात कामवासना भूमि और उस रहस्यमय औरत का और भी विलक्षण रूप जानकर उसने दोपहर में अपने गुरु मनसा जोगी के पास इस रहस्य का भेद जानने हेतु जाने का निश्चय किया । शायद वह कोई मदद कर सकें । शायद ? फ़िर अपने ही इस विचार को उसने दिमाग से निकाल फ़ेंका । क्यों निकाल फ़ेंका ?
कल जो स्थितियाँ उसके साथ अचानक घटित हुयीं । उसमें वह एकदम वेवश था । तब वह चाहती । तो उसको मार भी सकती थी । पर उसने ऐसा कुछ नहीं किया था । बल्कि वह तो कदम कदम पर ऐसा लगता था कि अपनी उसकी खुद की गुत्थी वह स्वयं उसके लिये सुलझा रही थी । लेकिन साथ ही साथ उसके लिये अज्ञात अपने किसी प्रेमी की कमाल की कहानी जैसा चैलेंज भी कर देती थी । अब खास यही कटाक्ष । यही चैलेंज । उसे इस झमेले की तह में जाने को प्रेरित कर रहा था । वो भी गुरु आदि किसी दूसरे की सहायता के बिना । यदि वह इसमें कोई भी बाहरी सहायता लेता । तो उस रहस्यमय औरत की नजर में यह उसकी हार थी । जिसे वह जैसे बिना कहे हुये ही कहती थी । और बारबार कहती थी ।
दोपहर के दो बजने में अभी कुछ समय बाकी था । वह अपने किराये के कमरे में लेटा हुआ विचार मग्न था । और मजे की बात थी कि आगे क्या करे ? इस पर कई पहलूओं से सोचने के बाद भी तय नहीं कर पा रहा था । फ़िर किसी सफ़ल जासूस की भांति उसने अपनी अब तक की उपलब्धियों पर पुनर्विचार किया । उन उपलब्धियों में वह बन्द गली बन्द घर ही खास जान सका था । जिसमें कि वह खुद मौजूद भी था । लेकिन जमीन के नीचे वह अंधेरा बन्द कमरा कहाँ था ? यह उसे अब भी पता नहीं था । जबकि वह उसमें हो आया था । और बहुत देर रहा था । और वास्तव में उसके चिंतन की कील यहीं अटकी हुयी थी । और सबसे बढा रहस्य खुद उसके लिये यही था कि रात में बैंच से गिरने के बाद वह बेहोश हो गया था । और इसके बाद वह उन दो रहस्यमय स्थानों पर गया । देर तक रहा । लेकिन सुबह वह बाकायदा उसी बैंच पर लेटा था । वह कैसे और कब गया । यह उसे ठीक याद था । लेकिन उसी स्थान पर कैसे और क्यों लौटा । उसे दूर दूर तक न पता था । बहुत कोशिश करने के बाद भी वह उस काम वासना भूमि से आगे की बात याद न कर सका । रात बारह बजे से अगली सुबह के दस बजे तक के बीच में उसे बस इतना ही याद था । वह जब कोई निष्कर्ष न निकाल सका । तब उसकी पूरी सोच उसी तलघर पर अटक गयी । तलघर इसी घर में होना चाहिये । और वहाँ कुछ न कुछ रहस्य है । आखिर वह उसे तलघर में ही क्यों ले गयी ? लेकिन उसके लिये लगभग एकदम नये से इस घर में तलघर को तलाश करना आसान न था । और तलघर के बारे में सामान्य भाव से पूछना भी किसी दृष्टि से उचित न था ।
वह टहलता हुआ सा कमरे से बाहर आ गया । उस रहस्यमय घर में एकदम खामोशी छायी हुयी थी । दोपहर की कङी धूप खुले आंगन में फ़ैली हुयी थी । और शायद अकेली पदमा अपने कमरे में आराम कर रही थी । घर के दोनों आदमी शायद बाहर गये हुये थे । दोनों में से एक तो निश्चय ही गया था । उसका पति । वह सावधानी से टहलता हुआ घर के खुले स्थानों का किसी सफ़ल जासूस की भांति निरीक्षण करने लगा । पर उसे ऐसा कोई स्थान नजर न आया । जहाँ से तलघर का रास्ता जाता हो । या द्वार हो । फ़िर हो सकता है । वह रास्ता द्वार किसी कमरे के अन्दर से गया हो । जैसा कि अक्सर होता ही है । और इस अपरिचित मकान में वह दूसरे के कमरे की खोजबीन भला कैसे कर सकता है ।
ये काफ़ी बङा और पुराना सा घर था । जिसका आधा हिस्सा लगभग बन्द था । अनुपयोगी सा था । और इसकी एक ही वजह थी कि उस फ़ैमिली के गिने चुने सदस्यों के हिसाब से वह मकान काफ़ी बङा था । जो निश्चय ही अनुराग एण्ड फ़ैमिली ने बना बनाया खरीदा था । कब खरीदा था ? लगभग चार साल पहले । यकायक । यकायक उसके दिमाग में विस्फ़ोट हुआ । चार साल पहले ।
अभी वह आगे कुछ सोच पाता कि उसे खट से कमरे का दरवाजा खुलने की आवाज आयी । और फ़िर स्वतः ही उसकी निगाह उस तरफ़ चली गयी । वह अलसायी सी नींद से उठी एक सुस्ती भरे अदभुत सौन्दर्य के साथ उसके सामने खङी थी । उसकी लटें बेतरतीब होकर उसके सुन्दर चेहरे पर आ गयी थी । साङी ब्लाउज आदि कुछ सिकुङे सिमटे से थे । और वह तुरन्त नींद से उठने के बाद की शिथिल सी अवस्था में खङी थी ।
क्या अदभुत सुन्दरी है यह । वह स्वतः ही दिल से उसकी तारीफ़ कर उठा । हर रंग में सुन्दर दिखती है । वो भी एक से एक नये दिलकश अन्दाज में । ये भीगी भी सुन्दर लगेगी । और सूखी भी सुन्दर लगेगी । ये स्वच्छ भी सुन्दर लगेगी । और गन्दी भी । ये पुराने बदरंग वस्त्र पहने तो भी सुन्दर लगेगी । और नये चमचमाते तो भी । ये सुन्दरता की मोहताज नहीं । सुन्दरता स्वयं इसकी मोहताज है । वाकई । वाकई वह नैसर्गिक सौन्दर्य युक्त सुन्दरता की देवी ही थी ।
- नितिन जी । वह वहीं से मधुर स्वर में पूर्ण शालीनता से बोली - अभी आई ।
उसने सम्मोहित सी अवस्था में पूरे आदर से समर्थन में सिर हिलाया । और आंगन में फ़ूलों की क्यारी के पास बिछी कुर्सियों में से एक पर बैठ गया । उसके फ़िर से प्रकट होते ही वह जैसे समस्त सोच से रहित हो गया । फ़िर भी असफ़ल अन्दाज में जबरन कुछ सोचने की कोशिश करते हुये उसने सिगरेट सुलगायी । और गम्भीरता से कश लगाने लगा ।
- कोई भी सोच या इच्छा ही । वह चाय का गर्म कप उसे थमाती हुयी बोली - हमारी आगे की जिन्दगी का कारण होती है । जैसे ही इंसान की सभी इच्छायें मरी । वह तेजी से मरने लगता है । यदि वह शरीर से जीता भी रहे । तो भी वह चलते फ़िरते किसी कमजोर मुर्दे के समान ही होता है । फ़िर वह जीवन मुर्दा जीवन ही होता है । अतः वह जीवन है या मृत्यु ? इससे कोई खास अन्तर नहीं पङता । क्योंकि है तो वास्तव में वह मृत्यु ही । मृत्यु । जो एक दिन सभी की होती है ।
उसने गर्म चाय के कप से उठती धुंये की लकीर पर एक भरपूर मोहक निगाह डाली । और बङे ही मोहक अन्दाज में मुस्कराई । इतना कि उस सादगी युक्त सरल मुस्कान से भी वह विचलित होने लगा । और अन्दर तक हिल कर रह गया । ये औरत थी या जीती जागती कयामत ?
सेक्स..सेक्स.. सिर्फ़ सेक्स । वह अपने पतले रसीले होठों से चाय सिप करती हुयी बोली - देखो । इस टी कप को । इसके अन्दर गर्म तरल भरा हुआ है । और तब इसके अन्दर ये धुंआ स्वयं उठ रहा है । सोचो । ठंडी चाय में धुंआ उठ सकता है क्या ? ठंडी चाय । ठंडी औरत ।..दरअसल मैं कहना चाहती हूँ । हमारी सभी क्रियायें स्वतः स्वाभाविक और प्राकृतिक है । अगर अन्दर आग होगी । तो धुंआ उठेगा ही । और ध्यान रहे । ये आग खुद होती ही है । हरेक में नहीं होती । पैदा नहीं की जा सकती । और इसी उष्णता । इसी गर्माहट । इसी ऊर्जा में जीवन का असल संगीत गूँज रहा है । कसे तारों से ही । वह अपने ब्लाउज की निचली किनारी नीचे ही खींचती हुयी बोली - किसी साज में मधुर स्वर निकलते हैं । ढीले तारों से कभी कोई सरगम नहीं छेङी जा सकती । उससे कोई सुर ताल कभी बन ही नहीं सकता । कसे तार । उसने एक गर्वित निगाह अपने स्तनों पर स्वयं ही डाली । और उसी के साथ साथ नितिन की निगाह भी स्वाभाविक ही उधर गयी ।
वह फ़िर घबरा गया । उसका सम्मोहन फ़िर छाने लगा था । वह जैसे उसके अस्तित्व को ही वशीभूत कर लेना चाहती थी । अब तक यह तो वह निश्चित ही समझ गया था कि ये विलक्षण औरत सृष्टि की किसी भी चीज किसी भी क्रिया में निश्चित ही सिर्फ़ सेक्स को सिद्ध कर देगी । और फ़िर आगे सोचने का मौका ही न देगी ।
अतः बङी मुश्किल से खुद को संभालते हुये उसने बात का रुख दूसरी तरफ़ मोङा । और बोला - पदमा जी ! प्लीज आप गलत न समझें । तो मैं एक बात पूछना चाहता हूँ । मनोज शमशान में एक तेल से भरा बङा दीपक जलाने जाता है । मेरी मुलाकात उससे वहीं नदी के पास हुयी थी । मुझे नहीं पता । वह क्या है ? और उसका मतलब क्या होता है । पर मुझे थोङी स्वाभाविक जिज्ञासा अवश्य है कि किसी विशेष स्थान पर ऐसे दीपक को जलाने का मतलब क्या ? शायद आपको मालूम हो ।
- हाँ । वह साधारण स्वर में बोली - मालूम है । वह दीपक मेरे लिये ही जलाया जाता है । दरअसल इन लोगों को यानी मेरे पति और देवर को लगता है कि कभी कभी मैं अजीव सी स्थिति में हो जाती हूँ । तब मेरे जो लक्षण बनते हैं । वह किसी प्रेत आवेश जैसे होते हैं । हालांकि मेरे पति भूत प्रेत को मानते ही नहीं । वह इसे कोई दिमागी बीमारी मानते हैं । लेकिन एक बार जब मैं अपने पति के साथ मायके गयी हुयी थी । वहाँ भी ऐसा ही हो गया । तब मेरी माँ ने स्थानीय तांत्रिक वगैरह को दिखाया । और उसी ने ऐसा करने को बताया । लेकिन मेरे पति ने उसकी हँसी उङायी । तब मेरी माँ ने उन्हें कसम खिला दी कि भले ही तुम विश्वास करो । या न करो । पर ये दीपक कुछ खास दिनों में जलवाते रहना । बाकी उपचार हम अपने स्तर पर कर लेंगे ।
लेकिन ये दीप तुम्हारे शहर में ही जलेगा । अब क्योंकि मेरे पति को उस दीपक में कोई दम ही नजर नहीं आता । तो वह जले । तो क्या । न जले तो क्या । बस वह अपनी सास की कसम की खातिर ऐसा करते हैं । इससे ज्यादा और कोई वजह नहीं । और बस इतना ही मैं भी जानती हूँ ।
बेहद रहस्यमय ? या एकदम सरल । या कोई पवित्र देवी । या फ़िर खुली किताब । वह दंग रह गया । जिस सामान्य अन्दाज में बिना लाग लपेट उसने वह बात बतायी । एक बार तो उसका मन हुआ कि इसके चरण स्पर्श ही कर ले ।
बताईये । उसने फ़िर सोचा । तंत्र दीप का रहस्य भी किसी फ़ुस्स पठाखे जैसा खत्म । बन्द गली । बन्द घर का भी खत्म । अब रह गया । जमीन के नीचे । अंधेरे बन्द कमरे का । शायद वही बढा रहस्य है । उसी में सारा खेल छुपा हो । पर वह उसके बारे में पूछे भी तो कैसे पूछे । कैसे ?
- नितिन जी ! अचानक ही उसी समय जब वह यह सोच ही रहा था । उस पठाखा औरत ने मानों धमाकेदार पटाखा फ़ोङा - वैसे आप भी कमाल स्वभाव के हो । कल रात बारह के करीब जब मैं घर के सभी गेट वगैरह बन्द कर रही थी । मैंने देखा । आपका कमरा खुला है । पर आप कमरे में नहीं हो । तब मैं चकित होकर आपको देखने छत पर आयी । और कुछ देर बातें करती रही । अचानक ही आपको नींद का झोंका सा आया । और आप बैंच से नीचे गिर गये । मैंने आपको बहुत हिलाया डुलाया । पर आप पर कोई असर नहीं हुआ । तब मैंने आपको फ़िर से बैंच पर ही लिटा दिया । और नीचे से तकिया चादरा लाकर आपको लगा गयी । आप बङी गहरी नींद सोते हो ?
उसे फ़िर तेज झटका सा लगा । अब तक इस औरत के प्रति बनी उसकी श्रद्धा कपूर के धुँये की भांति उङ गयी । सौन्दर्य की देवी अब उसे जीभ लपलपाती डसने को तैयार नागिन नजर आने लगी । एक बार फ़िर उसके चुनौती देते शब्द बार बार उसके कानों में गूँजने लगे - वह कहता है । मैं माया हूँ । स्त्री माया है । उसका सौन्दर्य बस माया जाल है । और ये कहानी बस यही तो है । पर..पर मैं उसको साबित करना चाहती हूँ - मैं माया नहीं हूँ । मैं अभी यही तो साबित कर रही थी ।..कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने ।.. कहानी जो उसने शुरू की । उसे कैसे कोई और खत्म कर सकता है ?
यकायक उसने चौंक कर उसकी तरफ़ देखा । वह बङे रहस्यमय ढंग से मोहक अन्दाज में उसी की तरफ़ देखती हुयी मुस्करा रही थी । और जैसे मौन वाणी से कटाक्ष कर रही थी - नितिन ये बच्चों का खेल नहीं
और ये कहानी बस यही तो है । रह रह कर उसके दिमाग में यह वाक्य रहस्यमय अन्दाज में गूँजने लगा । कहीं ऐसा तो नहीं कि - कोई कहानी ही न हो । पर वह ऐसा कह भी कैसे सकता था । कहानी थी । न सिर्फ़ कहानी थी । बल्कि अब वह भी इसी कमाल की कहानी का पात्र बन गया था । कहानी पढने चला इंसान खुद कहानी का हिस्सा बन गया । पात्र बन गया । कहानी के शब्द मानों चैलेंज कर रहे थे । रहस्य खोजने की जरूरत नहीं । रहस्य कहानी के लिखे इन्हीं शब्दों में है । खोज सको तो खोज लो ।
तब उसने सख्ती से एक निश्चय किया । अब और कुछ भी हो । इस मायावी औरत के जाल में हरगिज नहीं फ़ँसेगा । और कहानी से अलग रहकर सावधानी सतर्कता से कहानी पढेगा । दूसरे उसने अभी तक जो अपने तंत्र ज्ञान का कोई उपयोग नहीं किया । उसका उपयोग करेगा । और वशीकरण जैसे उपायों का सहारा भी लेगा । इस चालाक नागिन का वशीकरण । हाँ हाँ वशीकरण । क्योंकि इसने ऐसा करने को उसे मजबूर कर दिया है ।
- नितिन जी । अचानक वह हाथ बढाकर फ़ूलों की क्यारी से एक फ़ूल पत्तों युक्त नाजुक टहनी तोङकर अपने नाजुक गालों पर फ़िराती हुयी बोली - मैंने एक बङा मजेदार कार्टून देखा था । कार्टून । उसने सीधे सीधे उसकी आँखों में देखा - यू नो कार्टून ?..कार्टून में एक पात्र को अपनी बीमार भैंस को दवा खिलानी थी । किसी ने उसे सुझाव दिया । एक खोखली नली में दबा रख कर भैंस के मुँह में डालकर फ़ूँक मार दो । बस काम खत्म । सुझाव एकदम फ़ेंटास्टिक था । उसने ऐसा ही किया । लेकिन..लेकिन.. । अचानक वह आगे बोलने से पहले ही जोर से खिलखिलाकर हँसने लगी । और हँसते हँसते हुये ही बोली - लेकिन जानते हो नितिन जी क्या हुआ ? वह आदमी फ़ूँक मारता । इससे पहले भैंस ने ही उल्टा फ़ूंक मार दी । और पूरी दबा उस आदमी के पेट में । ह..ह..ह । नितिन जी भैंस ने ही उल्टा फ़ूंक मार दी ।
क्या है ये ? वह अचानक अन्दर तक सहम गया । कोई जादूगरनी ? वह मधुर स्वर में दंतपंक्ति को बिजली सा चमकाती हुयी बङे आकर्षक अन्दाज में हँसे जा रही थी । सीधी सी बात थी । जो बात अभी अभी बस उसने सोच ही पायी थी । उसका उसने भरपूर मजाक बनाया था । और एक बार फ़िर से उसे चैलेंज किया था । और वह सिर्फ़ उसे देख पा रहा था । उसे । जो अब ऊपर के होठ से निचला होठ दबाकर गर्दन के नीचे सीने पर फ़ूंक मार रही थी ।
- चलिये । अचानक वह फ़िर से उसे देखती हुयी बोली - जोक्स की बात छिङ ही गयी । तो एक और जोक सुनो । अरे सुन लो भाई । शायद ऐसी कहानी फ़िर कभी न लिखी जाये ? शायद ।..एक आदमी अपनी बेहद सुन्दर चंचल दिलफ़ेंक और मनचली बीबी से बहुत परेशान था । वह हर तरह से उसके आउट आफ़ कंट्रोल थी । तब किसी के सुझाव पर वह उसको वश में रखने हेतु एक पहुंचे हुये वशीकरण साधु के पास गया । और प्रार्थना की कि - वह कुछ ऐसा उपाय कर दे । जिससे उसकी स्त्री उसके वश में हो जाये । उसकी बात सुनकर साधु के चेहरे पर पहले बङे दुखी भाव आये । जैसे उसका ही घाव हरा हो गया हो । फ़िर अचानक उसको बहुत क्रोध आया । उसने उस आदमी को एक चाँटा मारा । और बोला - मूर्ख ! यदि औरत का वशीकरण करने का कोई उपाय होता । तो फ़िर तमाम लोग साधु ही क्यों बनते ?
फ़िर ये परवाह किये बिना कि नितिन पर उसके जोक का क्या असर हुआ । वह फ़िर से हँसती हुयी लोटपोट सी होने लगी । और वह ऐसे आकर्षक अन्दाज में हँस रही थी कि हँसने से कम्पित हुआ उसका आंचल रहित वक्ष एक शक्तिशाली चुम्बक की तरह उसे फ़िर से खींचने लगा ।
- अरे फ़िर क्यों पढे जा रहे हो ? ये घटिया वल्गर चीप अश्लील पोर्न सेक्सी कामुक सस्ती सी वाहियात कहानी । वह जैसे सीधे उसकी आँखों में झांकते हुये मौन स्वर में बोली - यही शब्द देते हो ना तुम । ऐसे वर्णन को । पाखण्डी युवक । तुम भी तो उसी समाज का हिस्सा हो । जहाँ इसे घटिया अनैतिक वर्जित प्रतिबंधित हेय मानते हैं । फ़िर क्यों रस आ रहा है । तुम्हें इस कहानी में ?..गौर से सोचो । तुम उसी ईडियट सोसाइटी का अटूट हिस्सा हो । उसी मूर्ख दोगले समाज का अंग हो । जहाँ दिमाग में तो यही सब भरा है । हर छोटे बङे सभी की चाहत यही है । पर बातें कपट युक्त उच्च सिद्धांतों खोखले आदर्श और झूठी नैतिकता की है ।
भाङ में गयी कहानी । और भाङ में गया रहस्य । वह तो पागल सा हुआ जा रहा है । वह अपना सब ज्ञान भूल गया । स्वभाव भूल गया । दिनचर्या भूल गया । उसका जैसे अस्तित्व ही खत्म कर दिया । इस मायावी औरत ने । ये एकदम उस पर छा सी जाती है । उसे सोचने का कोई मौका तक नहीं देती । उसने घङी पर निगाह डाली । सवा तीन बजने वाले थे । वह फ़ौरन ही इस भूलभुलैया से जाने की सोचने लगा । और उठने को तैयार हो गया ।
- सेक्स ..सेक्स..सिर्फ़ सेक्स । वह बङे आकर्षक ढंग से एक घुटना मोढ कर दूसरे पर रखती हुयी अपने उसी विशेष धीमें थरथराते अन्दाज में बोली - काम.. । नितिन जी ! काम. आप देखो । तो पूरे विश्व के लोग सेक्स के दीवाने होते हैं । लेकिन रियल्टी में वे रियल सेक्स को जानते तक नहीं । सेक्स बिजली है । पावर । ऊर्जा । लेकिन क्या सच में लोग बिजली को भी ठीक से जानते हैं ? वह बिजली । जिसका जाने कितना । और जाने कब से । यूज कर रहे हैं । पर क्या जानते हैं उसे ? मैं कहती हूँ - नो । हंड्रेड परसेंट नो । यस..नो नितिन जी.. नो । देखो । बिजली में दो तार होते हैं । जिसको - अर्थ फ़ेस । निगेटिव पाजिटिव । ठंडा गर्म । ऋणात्मक धनात्मक नाम से जाना जाता है । ये दोनों तार इस अदभुत अदृश्य ऊर्जा के उपयोग के लिये बहुत आवश्यक होते हैं ना । जिस यन्त्र में लगकर ये दोनों तार जुङ जाते हैं । joint । तुम समझ रहे हो ना । संभोग । तब वह यन्त्र ऊर्जावान हो जाता है । जीवन्त । जीवन ऊर्जा से भरपूर । पर है ना कमाल । एक दूसरे के अति पूरक ये तार आपस में कभी नहीं मिलते । लेकिन जब भी । गलती से भी । ये आपस में मिलते हैं । तो पैदा होती है । एक अदभुत ऊर्जा । प्रत्यक्ष होती है । एक अदृश्य ऊर्जा । चिटऽऽ चिटऽऽ फ़टाऽऽक । तुमने कभी देखा । कैसी अदभुत दिव्य चमक होती है तब । पर कब ? जब दो नंगे तार आपस में लिपट जाये । दो नंगे तार । दो नंगे बदन । दो नंगे शरीर । एक पाजिटिब । एक निगेटिव । और यही है असली सेक्स । उसका असली रूप । जब स्त्री पुरुष सिर्फ़ कपङों से ही नहीं । आंतरिक रूप से भी नंगे होकर एक दूसरे से लिपटे जायं । उनकी समस्त भावनायें नंगी हो जायं । आपस में । एक दूसरे से । कोई छिपाव नहीं । कोई दुराव नहीं । सेक्स .. सेक्स ..सिर्फ़ सेक्स । जिसमें आनन्द ही आनन्द की चिंगारियाँ उठने लगे ।
आऽऽह ! वह अचानक तङपते से बैचेन स्वर में बोली - मैं प्यासी हूँ ।
यकायक ही वह बेहद व्याकुल सी दिखने लगी । उसकी बङी बङी आँखें अपने गोलक में तेजी से ऊपर नीचे हो रही थी । उसकी सुन्दर लटें चेहरे पर झूल आयी थी । वह जैसे असमंजस में प्यासी निगाहों से उसे देखती । फ़िर तेज तेज सांसे लेने लगती । हर सांस के साथ उसका सीना तेजी से ऊपर नीचे हो रहा था ।
नितिन ने कठिनाई से अपने को संयमित किया ।
पर वह जैसे नियन्त्रण से बाहर हो रही थी । उसने काम ताप की तपन से व्याकुल होकर ब्लाउज खोल दिया । और आँखें बन्द कर गहरी गहरी सांसे लेने लगी । उसके मुँह से बार बार ..नितिन जी..नितिन जी के धीमे शब्द निकल रहे थे । अब क्या करता वह ? उसके खुले उन्नत पुष्ट दूधिया उरोज उसके सामने थे । उसका अब और भी काम आच्छादित हो चुका अकल्पनीय सौन्दर्य उसे शून्यता 0 में खींच रहा था । और वह लगभग शून्य 0 ही हो चला था ।
उसके दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया । वह आदेशित यन्त्र सा उठा । और पदमा की कुर्सी के पास ही नीचे जमीन पर बैठ गया । उसने उसकी गोरी कलाई थामी । और प्यार से उसकी हथेली सहलाता हुआ बोला - पदमा जी । प्लीज । प्लीज । आप होश में आईये ।
उसका वही हाथ उठा कर पदमा ने अपने विशाल स्तनों से सटा कर दबा लिया । और फ़िर जैसे दूर गहरी घाटी से उसकी आवाज आयी - भूल जाओ कि तुम क्या हो । भूल जाओ कि मैं क्या हूँ । जो होता है..।
नितिन उसके स्तन सहलाने लगा । मसलने लगा । वह वाकई भूल गया । वह कब नीचे उतर कर उसकी गोद में आ गयी । उसे बोध ही न हुआ । वह उसे गिराकर उसके ऊपर आ गयी थी । उसके दोनों सुडौल स्तन उसके चेहरे को छू रहे थे । वह किसी मजबूत से पेङ से अमरबेल की तरह लिपटी हुयी थी । उसे किसी जहरीली नागिन के बदन से लिपटे होने का स्पष्ट अहसास हो रहा था । उसके जहर से वह नशे से मूर्छित सा हो रहा था । फ़िर वह उसका मनमाना उपयोग करने लगी । काम बासना का अनोखा खेल खेलते हुये ।
कामवासना । पर क्या वाकई वह काम वासना से प्रभावित हो रहा था ? उसने जान बूझ कर खुद को निष्क्रिय कर रखा था । और बेहद गौर से उसकी हर गतिविधि और शरीर में होते परिवर्तन देख रहा था । खास कर उसके चेहरे पर आते परिवर्तनों का वह बेहद सूक्ष्मता से निरीक्षण कर रहा था ।
नितिन । उसके दिमाग में भूतकाल का मनसा जोगी बोला - इसको समझना बहुत कठिन भी नहीं है । तुम एक कप गर्म चाय या फ़िर एक गिलास ठंडा पानी धीरे धीरे पीने के समान व्यवहार से किसी प्रेत आवेश को सुगमता से जान सकते हो । जिस प्रकार चाय के कप से घूँट घूँट भरते हुये तुम्हारे शरीर में गर्माहट का समावेश धीरे धीरे ही होता है । और पूरा कप चाय पी लेने के बाद तुम एक ऊर्जा और भरपूर गर्माहट अपने अन्दर पाते हो । इसी तरह इस तरह का कोई भी प्रेत आवेश भी धीरे धीरे क्रियान्वित होता है ।
उदाहरण के लिये ऐसे प्रेत आवेश में जबकि वह शुरू भी होने लगा हो । तुम्हें लग सकता है कि वह सामान्य से थोङा ही अलग हट कर व्यवहार कर रही हो । जैसे किसी विशेष किस्म की आदत की वजह से । फ़िर अगर वह आवेश वहीं रुक जाये । उससे आगे न बढे । तो एक आम आदमी यही सोचेगा कि ये इंसान थोङा चिङचिङा गया । क्रोध में है । कुछ परेशान सा है आदि बहुत से सामान्य से थोङा अलग लक्षण । लेकिन यदि उस आवेश को प्रोत्साहित करते हुये उसका दर बङाते चले जाओ । तब वे असामान्य लक्षण तुम्हें स्पष्ट महसूस होंगे । साफ़ साफ़ दिखाई देंगे ।
और तब उसने पदमा के चेहरे को गौर से देखा । और रहस्यमय अन्दाज में मुस्कराया । पहली बार उसे लगा । काश ये अभी कहती - क्या कमाल की कहानी लिखी । इस कहानी के लेखक ने । कहानी जो उसने शुरू की । उसे कोई और कैसे खत्म कर सकता है । इसीलिये..इसीलिये ये कहानी न तुमसे पढते बन रही है । न छोङते । ये बच्चों का खेल नहीं नितिन ।
लेकिन अभी वह कुछ कैसे कहती । अभी तो वह खुद कहानी लिख रही थी । शायद एक बेहद रहस्यमय कहानी
रात के आठ से ऊपर हो चले थे । वह शान्ति से अपने कमरे में बन्द था । और उसने दरवाजा अन्दर से लगाया हुआ था । वास्तव में यही समय था उसके पास । जब उनमें से कोई उसे डिस्टर्ब न करता । वे लोग इस समय टी वी के सामने बैठे हुये भोजन आदि में लगे होते थे । पदमा खाना तैयार करने जैसे कामों में व्यस्त हो जाती ।
वह जमीन पर बैठा था । और एक छोटी कटोरी का दीपक जैसा इस्तेमाल करते हुये उसमें जलती मोटी बाती को अनवरत अपलक देख रहा था । प्रेत दीपक । आज ही उसे ऐसा समय भी मिला था । और आज ही वह इस घर को और इसके घरवालों को कुछ कुछ समझ भी पाया था ।
उस मोटी बाती की रहस्यमय सी चौङी लौ किसी कमल पुष्प की पंखरी के समान ऊपर को उठती हुयी जल रही थी । और वह उसी बाती की लौ के बीच में गौर से देख रहा था । जहाँ काली काली छाया आकृतियाँ कुछ सेकेंड में बनती । और फ़िर लुप्त हो जाती । वह किसी बिज्ञान के छात्र की भांति सावधानी सतर्कता से उसका अध्ययन करता रहा । और अन्त में सन्तुष्ट हो गया । उसने एक कागज पर मन्त्र जैसा कुछ लिखा । उस कागज को पानी में डुबोया । और फ़िर उसी पानी में उँगली डुबोकर हल्के हल्के छींटे उस लौ में मारने लगा । अचानक उसके दरवाजे पर दस्तक हुयी । वह हौले से मुस्कराया । दरवाजे पर पदमा खङी थी ।
- अब और क्या चाहते हो ? वह व्याकुल स्वर में बोली - किसी की शान्ति में खलल डालना अच्छा नहीं ।
उसने बाहर की तरफ़ देखा । दोनों भाई शायद अन्दर ही थे । उसने कमरा बन्द कर दिया । और टहलता हुआ सा छत पर आ गया । उसने घङी देखी । नौ बजने वाले थे । कुछ सोचता हुआ सा वह विचार मग्न फ़िर बैंच पर लेट गया ।
- एक औरत । आंगन में फ़ूलों की क्यारी के पास उससे अभिसार करती हुयी पदमा अपने चेहरे पर लटक आये बालों को पीछे झटकती हुयी बोली - के अन्दर क्या क्या भरा है । क्या क्या मचल रहा है ? उसके क्या क्या अरमान है । इसको जानने समझने की कोशिश कोई कभी नहीं करता । इस तरह उसकी तमाम उन्मुक्त इच्छायें दमित होती रहती हैं । तब इसकी हद पार हो जाने पर मधुर मनोहर इच्छाओं की लतायें विष बेल में बदल जाती है । और फ़िर अंग अंग से मीठा शहद टपकाती वह सुन्दर माधुरी औरत जहरीली नागिन सी बन जाती है । जहरीली नागिन । पुरुष को डसने को आतुर । जहरीली नागिन ।
लेकिन उसकी दमित इच्छाओं से हुये रूपान्तरण का यही अन्त नहीं है । क्योंकि वह जहर पहले तो खुद उसको ही जलाता है । और तब उस आग में जलती हुयी वो हो जाती है - चुङैल ..प्यासी चुङैल .. अतृप्त .. अतृप्त ।
- लेकिन । भूतकाल का मनसा फ़िर बोला - यदि उस आवेश को प्रोत्साहित करते हुये उसका दर बङाते चले जाओ । तब वे असामान्य लक्षण तुम्हें स्पष्ट महसूस होंगे । साफ़ साफ़ दिखाई देंगे ।
हुँऽऽ ..हुँऽ.. की तेज फ़ुफ़कार सी मारती हुयी वह विकृत मुख होने लगी । एक अजीव सी तेज मुर्दानी बदबू उसके आसपास फ़ैल गयी । जैसे कोई मुर्दा सङ रहा हो । उसकी आँखों में एक खौफ़नाक बिल्लौरी चमक की चिंगारी सी फ़ूट रही थी । पहले सुन्दर दिखाई देते लेकिन अब उसके भयानक हो चुके मुख से बदबू के तेज भभूके छूट रहे थे । वह इतनी घिनौनी हो उठी थी कि देखना मुश्किल था ।
हुँऽऽ..। वह खौफ़नाक स्वर में दाँत भींचते हुये बोली - प्यासी चुङैल ।
यह बङा ही नाजुक क्षण था । एक सफ़ल पूर्ण आवेश । उसे ऐसी स्थिति का कोई पूर्व अनुभव नहीं था । और आगे अचानक क्या स्थिति बन सकती है । यह भी वह नहीं जानता था । पर एक बात जो साधारण इंसान भी ऐसी स्थिति में ठीक से समझ सकता था । वही तुरन्त उसके दिमाग में आयी । नयी स्थिति को सहयोग करना । आगन्तुक की इच्छा अनुसार ।
उसने चुङैल के मुँह और शरीर से छूटते बदबूदार भभूकों की कोई परवाह न की । और यकायक उसे बाहों में लिये ही खङा हो गया । उसे केवल एक डर था । अचानक कोई आ न जाये । पर वह उसकी परवाह करता । तो फ़िर वह स्थिति कभी भी हो सकती थी । तब इस आपरेशन को करना आसान न था ।
नितिन का ध्यान फ़िर से उसके शब्दों पर गया - इस तरह उसकी तमाम उन्मुक्त इच्छायें दमित होती रहती हैं । तब इसकी हद पार हो जाने पर मधुर मनोहर इच्छाओं की लतायें विष बेल में बदल जाती है । और फ़िर अंग अंग से मीठा शहद टपकाती वह सुन्दर माधुरी औरत जहरीली नागिन सी बन जाती है । जहरीली नागिन । .. लेकिन उसकी दमित इच्छाओं से हुये रूपान्तरण का यही अन्त नहीं है । क्योंकि वह जहर पहले तो खुद उसको ही जलाता है । और तब उस आग में जलती हुयी वो हो जाती है - चुङैल ..प्यासी चुङैल .. अतृप्त .. अतृप्त ।
दमित काम इच्छायें । उसने उस अजनवी स्त्री को कस कर अपने साथ लगा लिया । और उसके समस्त बुरे रूपान्तरण को नजर अन्दाज सा करता हुआ वह उसके फ़ैले नितम्बों पर हाथ फ़िराने लगा । वह नागिन के समान भयंकर रूप से फ़ूँ फ़ूँ कर रही थी । और अब खुरदरी हो चुकी जीभ को लपलपाती हुयी उसको जगह जगह चाट सी रही थी । तब वह किसी अनुभवी के समान उसके राख से पुते से झुरझुरे स्तनों से खेलने लगा ।
- ठीक है । आखिर कुछ देर बाद वह सन्तुष्ट सी होकर बोली - क्या चाहते हो तुम ?
क्या चाहता था वह ? उसने सोचा । शायद कुछ भी नहीं । जीवन के इस रंगमंच पर कैसे कैसे अजीव खेल घटित हो रहे हैं । इसको शायद तमाम लोग कभी नहीं जान पाते । एक आम आदमी शायद इससे ज्यादा कभी नहीं सोच पाता । पहले जन्म हुआ । फ़िर बालपन । फ़िर लङकपन । युवावस्था । जवानी । अधेङ । बुढापा । और अन्त में मृत्यु । और फ़िर शायद यही चक्र ? शायद ? किसी बिज्ञान की किताब में दर्शाये जीवन चक्र के गोलाकार चित्र सा । इसके साथ ही आयु की इन्हीं अवस्थाओं के अवस्था अनुसार ही जीवन व्यवहार । और तेरा मेरा का व्यापार । बस हर इंसान को लगता है । जैसे सिर्फ़ यही सच है । इतना ही । जैसे सिर्फ़ इतनी ही बात है । ऐसी ही व्यवस्था की गयी है । ऊपर आसमान पर बैठे किसी अज्ञात से ईश्वर द्वारा । लेकिन तब । तब फ़िर इस जीवन का मतलब क्या है ? और अगर जीवन का यही निश्चित चित्र निश्चित कृम निर्धारित है । फ़िर तमाम मनुष्यों के जीवन में ऊँच नीच सुख दुख अमीर गरीब स्वस्थ रोगी आदि जैसी भारी असमानतायें विसमतायें क्यों ?
- बस यही । वह पूर्ण सरलता मधुरता से साधारण स्वर में ही बोला - कौन हो तुम ?
- दो बदन । उसने एक झटके से कहा ।
दो बदन । उसने बैंच पर लेटे लेटे ही अधलेटा होकर एक सिगरेट सुलगायी । एक और नयी बात । वह उसके आगे बोलने की तेजी से प्रतीक्षा कर रहा था कि अचानक वह वापिस रूपान्तरित होकर सामान्य होने लगी । वह एकदम हङबङा गया । और तेजी से उसके गाल थपथपाने लगा । पर वह जैसे नींद में बेहोश सी होती हुयी उसकी बाँहों में झूल गयी । जैसे पूरा बना बनाया खेल चौपट हो गया । एक और मुसीबत । उसने तेजी से उसे कपङे पहनाये । और खुद को व्यवस्थित कर उसे पलंग पर लिटा आया ।
दो बदन । रह रह कर यह शब्द उसके दिमाग में गूँज रहा था । क्या मतलब हो सकता है इसका ? वह बहुत देर सोचता रहा । पर उसकी समझ में कुछ न आया । तब वह पेट के बल लेट कर सङक पर जलती मरकरी को फ़ालतू में ही देखने लगा । उसे एक बात में खासी दिलचस्पी थी । जमीन के नीचे । अंधेरा बन्द कमरा । पर ये कमरा कहाँ था ? ये पता करने का कोई तरीका उसे समझ में न आ रहा था । जाने क्यों उसे लग रहा था । इस पूरे झमेले के तार उसी कमरे से जुङे हुये हैं । या हो सकते हैं । उस कमरे का एक स्पष्ट चित्र उसके दिमाग में था । पूरी तरह याद था । कमरा सामान्य बङे भूमिगत कक्ष जैसा ही था । पर जाने क्यों उसे रहस्यमय लगा था । जाने क्यों । जैसी रहस्यमय वह औरत थी । पदमा ।
सोचते सोचते उसका दिमाग झनझनाने लगा । तब वह उठकर छत पर ही टहलने लगा । समय दस से ऊपर हो रहा था । उसने एक निगाह बङे तखत पर रखे तकिया चादर पर डाली । जिन्हें वह साथ ही लाया था । क्या अजीव बात थी । जो वाकया कल यकायक उसके साथ घटा था । आज वह उसके फ़िर से होने के ख्वाव देख रहा था । बल्कि कहो । उस स्थिति को खुद क्रियेट कर रहा था । और उसके लिये उसे पदमा के ऊपर आने की सख्त आवश्यकता थी । पर क्या वो आयेगी ? शायद आये । शायद न आये । लेकिन जाने क्यों बार बार उसका दिल कह रहा था । वह आयेगी । और जरूर आयेगी । और वह इसी बात का तो इंतजार कर रहा था ।
तभी अचानक घुप अंधेरा हो गया । यकायक उसकी समझ में नहीं आया कि ये अक्समात क्या हो गया । लेकिन अगले ही क्षण वह समझ गया । बिजली चली गयी थी । और मरकरी बुझ गयी थी । शायद अंधेरा पक्ष शुरू हो गया था । रात बेहद काली काली सी हो रही थी ।
शायद ये सच है । इंसान जो सोचता है । वैसा कभी होता नहीं है । और जो वह नहीं सोचता । वह अक्सर ही हो जाता है । यदि सोचा हुआ ही होने लगे । तब जिन्दगी शायद इतनी रहस्यमय न लगे । सोची सोच न होवई । जे सोची लख बार । उसने एक गहरी सांस ली । और फ़िर कब उसे नींद आ गयी । उसे पता ही न चला ।
यकायक अपने बदन पर रेंगते नाजुक मुलायम स्त्री हाथों से उसकी चेतना सी लौटी । वह उसके पैरों के आसपास हाथ फ़िरा रही थी । वह सोये रहने का बहाना किये रहा । वह हाथ को उसके पेंट के अन्दर ले गयी ।
ऐऽऽ जागोऽ ना । वह उसके कानों में फ़ुसफ़ुसाई - फ़िर मेरा इंतजार क्यों कर रहे थे । लो मैं आ गयी । मैं जानती थी तुम्हारे मन की बात कि तुम भी बहुत बैचेन हो मेरे लिये ।
- तुम्हें । वह कुछ घबराये से स्वर में बोला - बिलकुल भी डर नहीं लगता । उनमें से कोई आ जाये तब ?
- जलती जवानी की एक एक रात । वह उसके ऊपर होती हुयी थरथराते स्वर में बोली - बेहद कीमती होती है । इसे ये वो किन्तु परन्तु में नष्ट नहीं करना चाहिये । तुम उनकी फ़िक्र न करो । क्योंकि तुम नहीं जानते । वे कमजोर थके घोङे से घोङे बेच कर सोते हैं । मनोज चरस का नशा भी कर लेता है । और अनुराग भी थकान दूर करने को ड्रिंक करता है । इसलिये वे अक्सर जागते हुये भी सोये से ही रहते हैं ।
- अधिकतर प्रेत बाधाओं का कारण । भूतकाल का मनसा प्रकट सा हुआ - या इंसान का प्रेत योनि में चले जाने का कारण । उसकी अतृप्त या दमित इच्छायें ही अधिक होती हैं । अतृप्त काम वासना । बदले की आग । किसी कमजोर पर ताकतवर का जबरदस्ती का जुल्म । दूसरे के धन पर निगाह । जान बूझ कर किये किसी गलत कर्म का बाद में घोर पश्चाताप होना आदि कारण ऐसे हैं । जो प्राप्त आयु को भी स्वाभाविक ही तेजी से क्षीण करते हैं । घटा देते हैं । और इंसान अपने उसी नीच कर्म के संजाल में लिपटता चला जाता है । ये स्थितियाँ प्रेतत्व को आमंत्रित करती हैं । और वास्तव में इंसान मरने से पूर्व ही जीवित शरीर में ही प्रेत होना शुरू हो जाता है । प्रेतों के लिये भूत शब्द का खास इसीलिये प्रचलन है कि उसके भूतकाल की कहानी । भूतकाल का परिणाम ।
उसके भूतकाल की कहानी । नितिन जैसे अचानक सचेत हुआ । यदि तुम इस रहस्य को वाकई जानना चाहते हो । उसके कानों में अपने गुरु की सलाह फ़िर गूँजी - तो पहले तुम्हें उसके भूतकाल को जानना होगा ।
- पदमा जी ! उसे खुश रखने के उद्देश्य से वह उसकी नंगी पीट को सहलाता हुआ बोला - आपने कई बार अपने प्रेम या प्रेमी का जिक्र किया है । मेरी बङी उत्सुकता है कि वह कहानी क्या थी । जो उस पागल इंसान ने आप जैसी अति रूपसी की उपेक्षा की ।
- भूतकाल । वह धीमे से उसी विशेष स्वर में बोली - भूतकाल को.. छोङो । जो बीत गया । उसे छोङो । सेक्स .सेक्स..सिर्फ़ सेक्स । एक भरपूर जवान और अति सुन्दर औरत इस तन्हा काली रात में खुद चलकर तुम्हारे पहलू में आयी है । और तुम बासी कहानियों को पढना चाहते हो । कोई नयी कहानी लिखो ना । कोई नया मधुर गीत । मेरे रसीले होठों पर । पर्वत शिखर से वक्षो पर । गहरी खाई सी मेरी नाभि पर । नागिन सी बलखाती कमर पर । फ़िसलन भरी योनि की घाटियों पर । काली घटाओं सी जुल्फ़ों पर । देखो..मेरा हर अंग एक सुन्दर रंगीली नशीली कविता जैसा ही तो है ।
जैसे फ़िर एक नया चैलेंज । जैसे उसके दिमाग से उसका दिमाग ही जुङा हो । कहीं ये कर्ण पिशाचनी तो नहीं ? भूतकाल शब्द को जिस तरह उसने एकाएक जिस व्यंगात्मक अन्दाज में बोला था । और कई बार उसकी सोची बात को तुरन्त प्रकट किया था । उससे यही साबित होता था । तब फ़िर उसे क्या हासिल हो सकता था ? जब वह उसकी हर बात को पहले ही जान जाती थी । तब । तब तो वह उसके हाथों में उलट पलट होता एक सेक्स टाय जैसा भर ही था । सेक्स टाय । जिससे वह मनमाने तरीके से खेल रही थी ।
खुद को बेहद असहाय सा महसूस करते हुये उसने एक लम्बी गहरी सांस भरी । क्या इस अनोखी औरत को खोलने की कोई चाबी कहीं थी । या फ़िर चाबी बनाने वाला इसकी चाबी बनाना ही भूल गया था । या वो चाबी किन्हीं तिलिस्मी कहानियों जैसे अजीव से गुप्त स्थान पर छुपी रखी थी । चाबी ।
और तव घोर निराशा में आशा की किरण खोजते हुये उसे रामायण याद आयी । कामी रावण की काम चाहत के चलते सोने की लंका विनाश के कगार पर पहुँच गयी थी । तमाम महाबली योद्धा मौत के मुँह में जा चुके थे । मगर इस सबसे बेखबर कुम्भकरण गहरी निद्रा में सोया पङा था । अब उसको जगाना आवश्यक हो गया था । रावण ने स्वयं जाकर उसे जगाया ।
एक लम्बी स्वस्थ भरपूर नींद के बाद उसका तामसिक राक्षसी मन भी भोर जैसी सात्विकता से परिपूर्ण हो रहा था । ज्ञान जैसे उसमें स्वतः स्थिति ही था । और समस्त वासनायें अभी सांसारिक भूख से रहित ही थी । तब वह रावण की सहयोगी आशा के विपरीत उल्टा उसे ही सीख देने लगा । और पर स्त्री से काम वासना की चाहत रखने से होने वाले विनाश पर धर्म नीति बताने लगा । हर तरह से उसकी गलती दोष बताने लगा । सीता के रूप में जगदम्बा को वह साफ़ साफ़ पहचान रहा था ।
साम दाम दण्ड भेद का चतुर खिलाङी रावण तुरन्त उसकी स्थिति को समझ गया । और फ़िलहाल विषयान्तर करते हुये उसने उसके लिये मांस मदिरा के साथ सुन्दर अप्सराओं के नृत्य जैसे भोग विलासों की भरपूर व्यवस्था की । और तब कुम्भकरण के मन पट पर वही कहानी लिखने लगी । जो रावण चाहता था ।
जो रावण चाहता था । जो नितिन चाहता था । सेक्स ..सेक्स..सिर्फ़ सेक्स..। पदमा की सुरीली आवाज जैसे फ़िर गूँजी । अगर उसकी ये जिद बन गयी थी कि वह इस रहस्य की तह में जाकर ही रहेगा । तो फ़िर उसे उसकी इच्छानुसार उसके रंग में रंगना ही होगा । और खास तब । जब वह असल उसी तरह प्रकट होगी ।
- ओ के । वह उसके ब्लाउज में हाथ डालता हुआ बोला - तुम ठीक कहती हो । भूतकाल को छोङो । जिन्दगी बहुत छोटी है । हमें इसे भरपूर जीना चाहिये ।
- ह हाँ हाँऽऽ । वह उसे अपने ऊपर खींचती हुयी बोली - यहाँ हर इंसान की जिन्दगी रेगिस्तान में भटके मुसाफ़िर के समान है । सुनसान वीरान रेतीला सूखा उजाङ रेगिस्तान । जिसमें पानी बहुत कम । प्यास बहुत ज्यादा है । इसीलिये तो हम सब प्यासे ही भटक रहे हैं । फ़िर यकायक आगे कहीं दूर पानी नजर आता है । झिलमिलाता स्वच्छ पारदर्शी कांच की लहरों के समान मनमोहक जल । आहऽऽ ..पानी । प्यासा तप्त इंसान उसकी तरफ़ तेजी से दौङता है । मगर पास जाकर अचानक हताश हो जाता है । क्योंकि वह जिसे शीतल मधुर मीठा जल समझ रहा था । वह सिर्फ़ मृग मरीचिका ही थी । मृग मरीचिका । झूठा जल । मायावी ।
नितिन ने अचानक उसके हमेशा रहने वाले विशेष स्वर के बजाय उसकी आवाज में एक भर्राया पन महसूस किया । लेकिन घुप अंधेरा होने से वह उसके भाव देखने में नाकाम रहा ।
- इसीलिये । जैसे अचानक वह संभल कर बोली - सदियों सदियों से भटकती हम सब प्यासी रूहें उसी मधुर शीतल जल की तलाश में बैचेन घूम रही हैं । जल । मीठा मधुर जल । जो रेगिस्तान में भी कभी कभी कहीं मिल जाता है । और तब उसको पीकर उस बेहद तप्त जलती सुलगती भूमि में कोई मामूली छायादार कंटीला छोटा वृक्ष भी अति सुखदाई मालूम होता है । जैसे जन्म जन्म से प्यासी रूह को अब कुछ चैन आया हो ।
- आऽऽह । वह एकदम मचलने लगी - मैं प्यासी हूँ ।
वह समझ गया । वह जो खेल में किसी बाह्य सहयोगी की भांति बेमन से खेलता हुआ अपना काम निकालना चाहता था । उससे काम नहीं चलने वाला था । उसे फ़ुल फ़ार्म में आना ही होगा । और उसका वास्तविक कामना पुरुष बनना ही होगा । जैसा वह चाहती थी । वैसा ।
तब उसने उस रहस्य आदि झमेले को दिमाग से दूर निकाल फ़ेंका । और उसका ब्लाउज ऊपर खिसका दिया । उसके मजबूत पंजे में भिंचते उसके स्तन मानों दर्द से चीख उठे । तेज दर्द से वह एकदम बल खाकर ऊपर से नीचे तक लहरा गयी । उसने किसी हल्की रजाई की तरह उसे ऊपर खींचा । और उसके होठों को किसी लालची बच्चे की भांति लालीपाप सा चूसा । अनमना पन त्याग कर जब पुरुष अपनी पूर्ण भूमिका में आता है । तव वह होता है । एक कुशल कामयाव खिलाङी । चैंपियन ।
अब यदि वह कला थी । तो वह नट था । वह उमङती नदी थी । तो वह सफ़ल तैराक था । वह जहरीली नागिन थी । तो वह खिलाङी नेवला था । नेवला ।
वास्तव में वह बारबार नागिन सी बलखाती हुयी ही उसकी पकङ से फ़िसल रही थी । उसे उत्तेजित कर रही थी । जैसे मछली हाथ से फ़िसल रही हो । और वह भूखे बाज सा उस पर झपट रहा था ।
- आऽऽह । वह बुदबुदाकर बोली - मैं प्यासी हूँ ।
एक तरफ़ वह उसकी उत्तेजना को चरम पर पहुँचा रही थी । दूसरी ओर वह उसको हर कदम पीछे भी धकेल देती थी । फ़िर नयी उत्तेजना । फ़िर नया कदम । दो नंगे तार । उसके कानों में उसकी नशीली आवाज फ़िर से गूँजी - आपस में कभी नहीं मिलते । लेकिन जब कभी मिलते हैं । तो पैदा होती है । एक अदभुत चिंगारी । एक दिव्य चमक । और उसको कहते हैं । रियल सेक्स । सेक्स ..सेक्स..सिर्फ़ सेक्स ।
और तब मानों उसकी चाल को भांप कर उसके अन्दर स्वतः ही एक पूर्ण पुरुष जागृत हुआ । और उसने अपने मजबूत हाथों में किसी कपङे की हल्की सी गुङिया की भांति उसे हवा में उठा लिया । और सरकस के कुशल कलावाज की तरह ऊपर नीचे झुलाने लगा
और तब । जादूगरनी जैसे अपना सब जादू भूली । नटनी सारे करतब भूल गयी । फ़ुंकारती नागिन जैसे वश में होकर बीन के इशारे पर नाचने लगी । खूँखार शेरनी जैसे पिंजङे में फ़ँस गयी । लकङी के इशारे पर बन्दरिया नाचने लगी । घायल चुहिया बिलौटे के जबङे में आ गयी । उङते लहराते शक्तिशाली बाज के नुकीले पंजो में घायल चिङिया फ़ङफ़ङाई ।
उसकी बेतहाशा चीखें निकलने लगी । चीखें । जिनकी अब उस क्रूर शिकारी को कोई परवाह न थी । और अपने शिकार के लिये उसके मन में कोई दया भी न थी ।
- बस..बस..बस..। वह आकुल व्याकुल होकर दर्द से चिल्लाई - रुक जाओ । रुक जाओ । और नहीं । अब और नहीं ।.. मैं तुम्हारी गुलाम हुयी । जो बोलोगे । करूँगी । ये मेरा वादा है । हाँ साजन । ये मेरा वादा है ।
और तभी अचानक बिजली आ गयी । घुप अंधेरे में डूबी छत पर हल्का सा उजाला फ़ैल गया । वे दोनों उठ कर टहलने लगे । और टहलते टहलते छत के किनारे आ गये ।
- कोई भी स्त्री । फ़िर वह एक जगह रुक कर बोली - सदैव बहुत दयालु और कोमल स्वभाव की होती है । और नितिन जी ! वह जिसके प्रति दिल से भावना से समर्पित होती है । उसके लिये जान भी दे देती है । लेकिन नितिन ऐसा बहुत ही कम होता है कि कोई एक 1 भी आय रिपीट कोई एक 1 भी पुरुष ऐसा हो । जो स्त्री में ऐसी पूर्ण समर्पण की भावना को जगा सके । स्वतः स्फ़ूर्त प्रेम भावना को जगा सके । ऐसा अभिन्न । दो 2 जिस्म । एक 1 रूह । प्रेम जगा सके । तब अधिकतर पति पत्नी प्रेमी प्रेमिका स्त्री पुरुषों नर मादा अण्डरस्टेंड आय रिपीट अगेन नर मादा का प्रेम प्रेम नहीं । स्वार्थी प्रेम की दैहिक वासना ही होती है । एक सौदा । व्यापार । जिन्दगी की जरूरतें पूरी करने भर का सौदा । फ़िर..फ़िर बोलो आप । इसमें प्यार कहाँ ? समर्पण कहाँ ।
- आह ऽऽ । उसके कलेजे में अचानक जैसे अनजान हूक सी उठी - मैं प्यासी हूँ ।
हाँ नितिन ! दरअसल रहस्य शब्द एक ही बात कहता है कि हम किसी चीज को अन्दर तक नहीं देखना चाहते । सिर्फ़ स्थूल सतही व्यवहार को बरतने की हमें आदत सी बन गयी है । इसीलिये हर साधारण बात भी रहस्यमय मालूम होती है । इसलिये नितिन जी स्त्री को सदा अपने अनुकूल रखने के लिये किसी झूठे वशीकरण की नहीं । शुद्ध पवित्र पावन निश्छल दिली आत्मिक प्रेम की आवश्यकता होती है । आत्मिक प्रेम ।
आहऽऽ । अचानक आतुर सी वह दौङकर उससे लिपट गयी - मैं प्यासी हूँ ।
स्वतः ही नितिन ने उसे बाँहों में भर लिया । और अपने मजबूत आगोश में कसते हुये दीवाना सा चूमने लगा । जैसे सदियों से बिछुङे प्रेमी जन्म जन्म के बाद मिले हों । उनके होंठ आपस में चिपके हुये थे । और वे लगातार एक दूसरे को चुम्बन किये जा रहे थे । लगातार । लगातार । अनवरत । और फ़िर वे एक दूसरे में उतरने लगे । पदमा नितिन के शरीर में समा गयी । और वह पदमा के शरीर में समा गया ।
उसका शरीर बहुत ही हल्का हो रहा था । बल्कि शरीर अब था ही नहीं । वे शरीर रहित होकर खुद को अस्तित्व मात्र महसूस कर रहे थे । हवा । वायु । और फ़िर उसी अवस्था में उनके पैर जमीन से उखङे । और वे आकाश में उढते चले गये । अज्ञात । अनन्त । नीले आकाश में किसी छोटे पक्षी के समान
मितवाऽऽ.. भूल नऽऽ जानाऽऽ । निमाङ की हरी भरी वादियों में अचानक ये करुण पुकार दूर दूर तक गूँज गयी - मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ ।
छत पर खङी उदास रोमा के दिल में धक्क सी हुयी । आसमान जैसे वह शब्द उसके पास ले आया था - मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । किसी सच्चे प्रेमी के दिल से उठती आसमान का भी कलेजा चीर देने वाली पुकार । उसके कलेजे में एक तेज हूक उठी । उसकी निगाह निमाङ की उन्हीं वादियों की तरफ़ ही थी । घबराकर उसने मुँडेर पर सिर टिका लिया । और बेतरह दोनों हाथों से कलेजा मसलने लगी । ये अजीब सा दर्द उसे चैन न लेने दे रहा था । वादियों में गूँजती उस सच्चे प्रेमी की विरह पुकार वादियों से आती हवायें उस तक निरन्तर पहुँचा रही थी - मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ ।
- ये तुम क्या करते हो.. विशाल । वह फ़फ़क फ़फ़क कर रो पङी - मैं कैसे.. भूल जाऊँगी तुम्हें । पर कुछ तो मेरा.. भी ख्याल करो । मैं कितनी.. मजबूर हूँ ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । वादियों से आते रोते पक्षी संदेश सुनाते हुये गुजर गये ।
- नहींऽऽ ।..नहींऽऽ भगवान नहीं । वह दिल ही दिल में चीख पङी - ऐसा मत करो । प्रभु हमारे साथ । ऐसा मत करो । वह मर जायेगा । प्रभु..उस पर कुछ तो दया करो ..प्रभु कुछ तो दया करो । कहती कहती वह जमीन पर गिरकर जोर जोर से रोने लगी ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । घाटियों से आते बादल तङप कर फ़िर बोले ।
- खुद कोऽऽ संभालो विशाल । वह सुबक कर बोली - हिम्मत से काम लो । हाँ साजन ! यदि तुम ही यूँ टूट गये
तो फ़िर मुझे हिम्मत कैसे बंधेगी । ..तुम्हारे बिना फ़िर मैं भी न जी पाऊँगी ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । दसों दिशायें भीगे स्वर में एक साथ बोली ।
- नहीं..नहीं विशाल नहीं । वह पागल हो गयी - खुद को संभालो प्रियतम ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । वादियों से आते उदास पथिक बोले ।
- हे राम । हे राम । वह सीने पर मुक्के मारती हुयी बोली - विशाल क्या करूँ मैं । अब क्या करूँ मैं ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । वादियों से आते दुखी रास्ते वोले ।
और तब । उसके बरदाश्त के बाहर हो गया । वह गला फ़ाङकर चिल्लाई - विऽऽशालऽऽ । और गिर कर बेहोश हो गयी ।
- रोमा ।.. रोमा ।.. मेरी जान ।.. तू आ गयी ना.. रोमा । वह पागल दीवाना दौङकर उससे लिपट गया - रोमा ..मेरी जान । मुझे मालूम था । तू जरूर आयेगी ..हाँ ।
- ह हाँ.. हाँ विशाल । वह कसकर उसके सीने से लिपटती हुयी बोली - मैं आ गयी । अब हमें कोई जुदा न कर पायेगा ।
वे दोनों कसकर लिपटे हुये थे । और एक दूसरे की तेजी से चलती धङकन को सुन रहे थे । ये दो अभिन्न प्रेमियों का मधुर मिलन था । पर फ़िजा किसी अज्ञात भय से सहमी हुयी थी । वादियाँ भी जैसे किसी बात से डरी हुयी थीं । पेङ पौधे उदास से शान्त खङे थे । पक्षी चहकना भूलकर गुमसुम से गरदन झुकाये बैठे थे । हवा मानों बहना भूलकर एक जगह ही ठहर गयी थी । आसमान में छाये बादल सशंकित से जैसे उनकी रखवाली में लगे थे । पर वे दोनों प्रेमी इससे बेपरवाह एक दूसरे में खोये हुये थे । और लिपटे हुये एक दूसरे के दिल को अपने सीने में धङकता महसूस कर रहे थे । ये मधुर आलिंगन उन्हें अदभुत आनन्द दे रहा था ।
- व विशाल । अचानक सहमी सी रोमा कांपते स्वर में बोली - ये दुनियाँ हमारे प्यार की दुश्मन क्यों हो गयी ? हमने इनका क्या बिगाङा है ?
- पता नहीं रोमा । वह दीवाना सा उसको यहाँ वहाँ चूमता हुआ मासूमियत से बोला - मैं भला क्या जानूँ । मैंने तो बस तुम्हें प्यार ही किया है । और तो कुछ भी नहीं किया ।
हाँ विशाल । वह उसके कन्धे पर सर रख कर बोली - शायद ..शायद ये दुनियाँ प्यार करने वालों से जलती है । ये दो प्रेमियों को प्यार करते नहीं देख सकती.. है ना ।
- नहीं जानता । वह उसकी सुन्दर आँखों में झांक कर बोला - पर मैं ये जानता हूँ कि मैं तुम्हारे बिना नहीं जी पाऊँगा । अगर ये लोग हमें मिलने नहीं देंगे । फ़िर हम यहाँ से दूर चले जायेंगे । दूर । बहुत दूर । बहुत दूर ।
- कितनी दूर ? अचानक वह उदास हँसी हँसती हुयी बोली - विशाल..कितनी दूर ?
- शायद । वह कहीं खोया खोया सा बोला - शायद..इस धरती के पार भी । किसी नयी दुनियाँ में । जहाँ दो प्रेमियों के मिलने पर कोई रोक न होती हो ।
- चल पागल । वह खिलखिला कर बोली - वहाँ कैसे जायेंगे भला । तुम सचमुच दीवाने हो ।
- मेरा यकीन कर प्यारी । वह उसका चेहरा हाथों में भर कर बोला - मैं सच कह रहा हूँ । एकदम सच ।
वह तो भौंचक्का ही रह गयी । लेकिन वह जैसे पूरे विश्वास से कह रहा था । भला ऐसी भी कोई जगह है ? उसने कुछ देर सोचा । पर उसे कुछ समझ में न आया । तब वह उसकी गोद में सर रख कर लेट गयी । विशाल उसके बालों में उँगलियाँ फ़िराने लगा ।
- रोमा । अचानक वह बोला - तू ठीक से जानती है । मेरे अन्दर ऐसी कोई इच्छा नहीं । पर कहते हैं । दो प्रेमी तब तक अधूरे हैं । जब तक उनके शरीरों का भी मिलन नहीं हो जाता । तब तू बार बार मुझे क्यों रोक देती है । क्या तुझे मुझसे प्यार नहीं है ?
वह उठकर बैठ गयी । उसके चेहरे पर गम्भीरता छायी हुयी थी । और वह जैसे दूर शून्य 0 में कहीं देख रही थी । फ़िर उसने उसका हाथ पकङा ।
और हथेली अपने गालों से सटा कर बोली - ऐसा नहीं है विशाल । मेरा ये तन मन अब तुम्हारा ही तो है । मैं अपना सर्वस्व तुम्हें सौंप चुकी हूँ । फ़िर मैं मना क्यों करूँगी । सच तो ये है कि खुद मेरा दिल ऐसा करता है । हम दोनों प्यार में डूबे रहें ।
पर हमेशा से मेरे दिल में एक अरमान था । जो शायद हर कुँवारी लङकी का ही होता है । उसकी सुहाग रात का ।
यादगार सुहाग रात । मैंने देवी माँ से मन्नत मानी थी कि मैं अपना कौमार्य सदैव बचा कर रखूँगी । और अपनी सुहाग रात को उसे अपने पति को ही भेंट करूँगी । हे देवी माँ ! मुझे मेरी इच्छा का ही पति देना । और माँ ने मेरी बात सुन ली । मेरी मुराद पूरन हो गयी । और तुम मुझे मिल गये । तब ये मन्नत तुम्हारे लिये ही तो है । बस हमारी शादी हो जाये ।
लेकिन..यदि तुम इस बात पर उदास हो । और मुझे पाना ही चाहते हो । तो फ़िर मुझे कोई ऐतराज भी नहीं । क्योंकि मैं तो तुम्हारी ही हूँ । आज । या कल । मुझे खुद को तुम्हें ही सौंपना है । और मैं मन से तुम्हारी हो ही चुकी हूँ । सिर्फ़ चार मन्त्रों की ही तो बात है ।..मेरे प्रियतम ! तुम अभी यहीं अपनी इच्छा पूरी कर सकते हो ।
वह जैसे बिलकुल ठीक कह रही थी । वह प्यार ही क्या । जो शरीर का भूखा हो । वासना का भूखा हो । जब उसने अपनी अनमोल अमानत उसी के लिये बचा कर रखी थी । तब उसे जल्दी क्यों हो । उसका ध्यान ही इस बात से हट गया ।
यकायक जैसे फ़िजा में अजीव सी बैचेनी घुलने लगी । भयभीत पक्षी सहमे अन्दाज में चहचहाये । विशाल बेखुद सा बैठा था । पर रोमा की छठी इन्द्रिय खतरा सा महसूस करते हुये सजग हो गयी । उसकी निगाह पहाङी से नीचे दूर वादी में गयी । और..
- विशाऽऽल । अचानक वह जोर से चीखी - भागो.. विशाल..भागो ।
शायद दोनों इस स्थिति के पूर्व अभ्यस्त थे । विशाल हङबङा कर उठा । और दोनों तेजी से अलग अलग भागने लगे । भागा भाग । भागा भाग । जितना तेज भाग सकते थे । रोमा तेजी से घाटी में उतर गयी । और एक झाङी की आङ में खङी होकर हाँफ़ने लगी । उसका सीना जोर जोर से धङक रहा था । फ़िर वह छुपती छुपाती दूसरी पहाङी पर सिर नीचा किये थोङा ऊपर चढी । और उधर ही देखने लगी ।
उन चारों ने उसके पीछे आने की कोई कोशिश नहीं की । उनका लक्ष्य सिर्फ़ विशाल था । वे चारों अलग अलग उसको घेरते हुये तेजी से उसी की तरफ़ बढ रहे थे । और काफ़ी करीब पहुँच गये थे । रोमा का कलेजा मुँह को आने लगा । वह एकदम घिर चुका था ।
जब वे उससे कुछ ही दूर रह गये । तब विशाल ने तेजी से घूम कर चारों तरफ़ देखा । पर भागने के लिये कोई जगह ही न बची थी । वह बहुत घबरा गया । और बिना सोचे समझे ही एक तरफ़ भागा ।
जोरावर के हाथ में दबी कुल्हाङी उसके मजबूत हाथों से निकल कर हवा में किसी चक्र की भांति तेजी से घूमती चली गयी । और सनसनाती हुयी विशाल की पीठ से जाकर टकराई । रोमा की दिल दहलाती चीख से मानों आसमान भी थर्रा गया । विशाल दोहरा होकर वहीं गिर गया । भागना दूर । यकायक उठ सके । ऐसी भी हिम्मत उसमें नहीं बची थी । भयानक पीङा से उसकी आँखें उबली पङ रही थी ।
मैं मना कियो तेरे कू । जोरावर जहर भरे स्वर में नफ़रत से बोला - ठाकुरन की इज्जत से कभी न खेलियो । पर तू नई मानियो ।
रोमा ने घबरा कर उसे देखा । वह दर्द से बुरी तरह तङप रहा था । और कुछ भी नहीं बोल सकता था । पर उन हैवानों पर इस बात का कोई असर न था । वह अभी ज्यादा दूर न भागी थी । विशाल को यूँ घिरा देख कर उसके चेहरे पर एक अजीव सी दृढता आ गयी । और वह वापिस भाग कर वहीं जा पहुँची । वहाँ । जहाँ विशाल उन राक्षसों से घिरा हुआ था । उन चारों ने बेहद नफ़रत से एक निगाह उसे देखा । और फ़िर वापिस विशाल को देखने लगे ।
- जोरावर । अचानक उन तीनों में से एक ऊबता हुआ सा पंछी बोला - के सोच रहा अब । के करूँ हरामजादे का ? और के करेगा । जोरावर घृणा से बोला - खत्म कर साले को ।
पंछी ने कुल्हाङी उठा ली । और सधे कदमों से उसकी ओर बढा । रोमा को एकदम तेज चक्कर सा आया । वह गिरने को हुयी । फ़िर पूरी ताकत से उसने अपने आपको संभाला । और दौङकर जोरावर के पैरों से लिपट गयी ।
- पापा नहीं । वह गिङगिङा कर बोली - नहीं । मत मारो उसे । छोङ दो ।
- ऐ छोरी । जोरावर उसे लाल लाल आँखों से घूरता हुआ बोला - बन्द कर ये बेहयापन ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । हवा के झोंके उसे छूकर बोले ।
वह हङबङा कर उठ बैठी । तेज धूप की तपिश से उसको पसीना आ रहा था । आँसू उसकी आँखों के कोर से बह कर गालों पर आ रहे थे । वह फ़िर ऊँची मुँडेर के सहारे खङी हो गयी । और व्याकुल भाव से वादियों की ओर देखने लगी । यूँ ही । बेवजह । क्योंकि वहाँ से कुछ भी नजर न आ रहा था ।
तभी जीने का दरबाजा खुलने की आवाज आयी । और ऊपर आते कदमों की आहट आने लगी ।
- बीबी । उसकी भाभी बेहद दुख से उसे देखते हुये बोली - मेरी जान के बदले भी यदि तुम्हारा प्रेम मिल जाये । तो मैं अपनी जिन्दगी तुम्हें निछावर करती हूँ । तुम जैसा बोलो । मैं करूँगी । मुझसे तुम्हारा दुख नहीं देखा जाता ।
उसने बङी उदास नजरों से भाभी को देखा । वह उसके लिये खाना लेकर आयी थी । और सिर्फ़ यही वो समय था । जिसमें वह उससे बात कर सकती थी । उसका हाल चाल जान सकती थी । वह नजरबन्द थी । और जीने पर हमेशा भारी ताला लगा रहता था । उसकी जरूरत दिनचर्या का सभी सामान उसे ऊपर ही उपलब्ध होता था । छत पर ।
उसने घोर नफ़रत और उपेक्षा से खाने की थाली को देखा । खाना । उसकी आँखों से आँसू बह निकले । उसे मालूम था । वह खाना तो दूर । पानी भी नहीं पीता होगा । पानी भी । फ़िर वह खाना कैसे खा सकती है ?
- ये लो । भाभी एक कौर बना कर उसको स्वयं खिलाती हुयी बोली - बीबी ! तुम्हें मेरी कसम । मुझे मालूम है । तुम सारा खाना नीचे कूढे पर फ़ेंक देती हो ।..ऐसे तो तुम मर ही जाओगी । लेकिन इससे क्या फ़ायदा ?
प्रेम और जिन्दगी । जिन्दगी और प्रेम । शायद दोनों एकदम अलग चीजें हैं । दोनों के नियम अलग हैं । दोनों की कहानी अलग है । दोनों के रास्ते अलग हैं । प्रेमियों को दुनियाँ कभी रास नहीं आती । और दुनियाँ को कभी प्रेमी रास नहीं आते । इनका सदियों पुराना वैर चला आ रहा है ।
रोमा की दुनियाँ भी जैसे उजङ चुकी थी । उसके जीवन में अब कुछ न बचा था । वह छत पर खङी खङी सूनी आँखों से वादियों की ओर ताकती थी । और अनायास ही उसके आँसू बहने लगते । प्रेमियों के आँसू । प्रेम के अनमोल मोती । जिनका दुनियाँ वालों की नजर में कोई मोल नहीं होता ।
- मैं वचन देती हूँ पापा । वह आँसुओं से भरा चेहरा उठाकर रोते हुये बोली - मैं आज के बाद इससे कभी न मिलूँगी । लेकिन भगवान के लिये इस पर दया करो । इसे छोङ दो ।..लेकिन । अचानक वह आँसू पोंछकर उसकी आँखों में आँखें डालकर दृढ स्वर में बोली - यदि इसे कुछ हो गया । तो फ़िर मैं खुद को भी गोली मार लूँगी ।
जोरावर के बेहद सख्त चेहरे पर क्रूरता के भाव आये । उसने पंछी को इशारा किया । वह जीत की मुस्कान लिये रुक गया । फ़िर जोरावर ने झटके से उसका हाथ थामा । और लगभग घसीटता हुआ वहाँ से ले जाने लगा । उसका चेहरा फ़िर आँसुओं से भर उठा । और उनके साथ घिसटती हुयी वह बारबार मुढ कर विशाल को देखने लगी । जो लगभग बेहोशी की हालत में पङा दर्द से कराह रहा था ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । आसमान में उङते हुये हरे हरे तोते उसको देख कर बोले ।
- कभी नहीं भूलूँगी । उसके आँसू सूख चुके थे । वह दृढता से बोली - हरगिज नहीं । मरते दम तक नहीं ।
- तू पागल हो गयी है छोरी । उसकी माँ भावहीनता से कठोर स्वर में बोली - तू मरवायेगी उस लङके को । ठाकुर उसे जीता न छोङेगा ।..मेरी बात समझ । ठाकुरों की लङकियाँ कभी प्रेम व्रेम नहीं करती । वे खूँटे से गाय की तरह बाँध दी जाती हैं । जिसके हाथ में उनकी रस्सी थमा दी जाती है । वही उसकी जिन्दगी का मालिक होता है । इसके अलावा किसी दूसरे के बारे में वे सोच भी नहीं सकती । फ़िर क्यों तू उस छोरे की जान की दुश्मन बनी है । भूल जा उसे । और नया जीवन शुरू कर ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । आसमान में चमकते तारे उसको देख कर बोले ।
- तुम सच ही कहते हो । वह उदासी से हँसकर बोली - नहीं भूलूँगी । नहीं भूल सकती । कभी नहीं ।
कितने बजे होंगे ? यकायक उसने सोचा । कितने भी बजे हों । उसे नींद ही कहाँ आती है । वह छत पर अकेली टहलती हुयी सुन्दर शान्त नीले आकाश में झिलमिलाते चमकते तारों को देखने लगी । जाने क्यों आज उसे आसमान पर चमकते तारों को देखना बहुत अच्छा लग रहा था । बहुत अच्छा ।
- नहीं जानता । अचानक तारों के बीच से झांकता हुआ विशाल बोला - पर मैं ये जानता हूँ कि मैं तुम्हारे बिना नहीं जी पाऊँगा । अगर ये लोग हमें मिलने नहीं देंगे । फ़िर हम यहाँ से दूर चले जायेंगे । दूर । बहुत दूर । बहुत दूर । बहुत दूर ।
- कितनी दूर ? वह उदास हँसी हँसती हुयी आसमान में उसकी ओर देख कर बोली - विशाल..कितनी दूर ?
- शायद । वह बेहद प्रेम से उसको देखता हुआ बोला - शायद..इस धरती के पार । किसी नयी दुनियाँ में । वहाँ । जहाँ दो प्रेमियों के मिलने पर कोई रोक न हो ।
- चल पागल । अचानक वह जोर से खिलखिलाई - वहाँ कैसे जायेंगे भला । तुम सचमुच दीवाने हो ।
यकायक वह जोर जोर से पागलों की भांति हँसने लगी । फ़िर वह लहरायी । और चक्कर खाती हुयी छत पर गिर गयी ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । चाँद जैसे उसको देख कर रो पङा ।
- हा..। अचानक वह चौंक कर उठ बैठी । उसके सीने पर हाथ रखकर किसी ने हिलाया था । उसके मुँह से चीख निकलने को हुयी । पर तभी उसने उसके मुँह पर हाथ रख दिया । रोमा का कलेजा जोरों से धक धक कर रहा था ।
रात को टहलते टहलते उसकी याद में रोते हँसते हुये वह अचानक चक्कर खाकर गिर गयी थी । और पता नहीं कितनी देर बेहोश रही थी । कई दिनों से उसने ठीक से खाना भी न खाया था । और बेहद कमजोर हो चुकी थी ।
- तुमऽऽ । वह हैरत से फ़ुसफ़ुसा कर बोली - तुम ऊपर कैसे आ गये ? भाग जाओ विशाल । वरना ये लोग तुम्हें मार डालेंगे ।
- परवाह नहीं । वह दीवाना सा उसको चूमता हुआ बोला - वैसे ही तेरे बिना कौन सा जीवित हूँ मैं । ऐसे जीने से हमारा मर जाना ही अच्छा है ।
वह बिलकुल ठीक कह रहा था । वह ही कहाँ इस तरह जीना चाहती है । उनका जीना एक दूसरे के लिये हो चुका था
उसके मुर्दा जिस्म में वह अचानक प्राण बन कर आया था । और खुशियाँ जैसे अचानक उस रात उसकी झोली में आ गिरी थी । जैसे भाग्य की देवी मेहरबान हुयी हो ।
- खाना । वह कमजोर स्वर में बोला - मुझसे खाना भी न खाया गया । मैं भूखा हूँ ।
उसके आँसू निकल आये । अब खाना कहाँ से लाये वो । खाना तो उसने शाम को ही फ़ेंक दिया था । और जीने में ताला लगा था । खाने का कोई उपाय ही न था । वेवशी में वह रोने को हो आयी । और अभी कुछ कहना ही चाहती थी ।
- चल । वह कुछ खोलता हुआ सा बोला - हम दोनों खाना खाते हैं । माँ ने हम दोनों के लिये पराठें बनाये हैं । बहुत सारे ।
दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम । वो भूखा उठाता अवश्य है । पर भूखा सुलाता नहीं । जलचर जीव बसे जल में । उनको जल में भोजन देता । नभचर जीव बसे नभ में । उनको नभ में भोजन देता । कहीं भी कैसी भी कठिन से कठिन स्थिति हो । वो भूखे को भोजन देता है । वो अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकता । भूखा नहीं रहने देता । फ़िर दो प्रेमियों को कैसे रहने देता ?
नीबू के अचार से वो माँ की ममता के स्वादिष्ट पराठें एक दूसरे को अपने हाथ से खिलाने लगे । वो खा रहे थे । और निशब्द रो रहे थे । आँसू जैसे उनके दिल का सारा गम ही धोने में लगे थे ।
- विशाल । वह निराशा से बोली - हमारा क्या होगा ? हम कैसे मिल पायेंगे ।
- तू चिन्ता न कर । वह उसको थपथपा कर बोला - हम यहाँ से भाग जायेंगे । बहुत दूर । फ़िर हमें कोई जुदा न कर पायेगा ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । रात की रानी उसको अकेला देख कर बात करती हुयी बोली ।
- कभी नहीं । वह चंचल मुस्कान से उत्तर देते हुये बोली - कैसे भूल सकती हूँ ।
कहाँ और किस हाल में होगा वह ? उसने टहलते हुये सोचा । उस रात तब उसकी जान में जान आयी । जब दो घन्टे बाद वह सकुशल वापिस उतर कर चला गया । और कहीं कैसी भी गङबङ नहीं हुयी । पर अभी आगे का कुछ पता न था । क्या होगा ? कैसे होगा ? कोई उपाय भी न था । जिससे वह कुछ खोज खबर रख सकती थी ।
उसकी रात ऐसे ही टहलते हुये बीतती थी । उसकी माँ भाभी घर के और लोग उसकी हालत जानते थे । लेकिन शायद कोई कुछ न कर सकता था । सब जैसे अपने अपने दायरों में कैद थे । दायरे । सामाजिक दायरे । जैसे वह छत के दायरे में कैद थी ।
प्यार उसे आज कैसे मोढ पर ले आया था । प्यार से पैदा हुयी तनहाई । जुदाई से पैदा हुयी तङप । विरह से पैदा हुयी कसक । शायद आज उसे वास्तविक प्यार से रूबरू करा रही थी । वास्तविक प्यार । जिसमें लङके को सुन्दर लङकी का खिंचाव नहीं होता । लङकी को उसके पौरुषेय गुणों के प्रति आकर्षण नहीं होता । यह सब तो वह देख ही नहीं पाते थे । सोच ही नहीं पाते थे । वह तो मिलते ही एक दूसरे की बाहों में समा जाते । और एक दूसरे की धङकन सुनते । बस इससे ज्यादा प्यार का मतलब ही उन्हें न पता था ।
दैहिक वासना ने जैसे उनके प्यार को छुआ भी न था । उस तरफ़ उनकी भावना तक न जाती थी । कभी कोई ख्याल तक न आता ।
उसने उसके वक्षों पर कभी वासना युक्त स्पर्श तक न किया था । उसने कभी वासना से उसके होंठ भी न चूमे थे । उसने कभी जी भर कर उसका चेहरा न देखा था । उसकी आँखों में आँखें न डाली थी । और खुद उसे कभी ऐसी चाहत न हुयी कि वह ऐसा करे । फ़िर उनके बीच किस प्रकार के आकर्षण का चुम्बकत्व था ? जो वे घन्टों एक दूसरे के पास बैठे एक अजीब सा सुख महसूस करते थे । बस एक दूसरे को देखते हुये । एक दूसरे की समीपता का अहसास ।
मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । रात में जागने वाली टिटहरी उससे बोली ।
- हाँ री । वह प्यार से बोली - तू सच कहती है । नहीं भूलूँगी । कभी नहीं ।
क्या अजीब होता है ये प्यार भी । क्या कोई जान पाया । उसने टहलते हुये सोचा । शायद यही होता है प्यार । जो आज उसने इस नजरबन्दी में महसूस किया । प्यार पे जब जब पहरा हुआ है । प्यार और भी गहरा गहरा हुआ है । ये दुनियावी जुल्म उसे प्यार से दूर करने के लिये किया गया था । पर क्या ये पागल दुनियाँ वाले नहीं जानते थे । इससे उसका प्यार और भी गहरा हुआ था । अब तो उसकी समस्त सोच ही सिर्फ़ विशाल पर ही जाकर ठहर गयी थी । सिर्फ़ विशाल पर ।
प्यार तो जैसे दो शरीरों का नहीं । दो रूहों का मिलन होता है । जन्म जन्म से एक दूसरे के लिये प्यासे दो इंसान । सदियों से एक दूसरी की तलाश में भटकते हुये । फ़िर कभी किसी जन्म में जब मिलते हैं । एक दूसरे को पहचान लेते हैं । और एक दूसरे की ओर खिंचने लगते हैं । और एक दूसरे के आकर्षण में जैसे किसी अदृश्य डोर से बँध जाते हैं ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । रात में फ़ैली खामोशी बोली ।
- हाँ । वह शून्य 0 में देखती हुयी बोली - प्यार नहीं भुलाया जा सकता ।
- बेटी । उसकी माँ बोली - आखिर तूने क्या सोचा । ऐसा कब तक चलेगा ।
- माँ ! वह उस उदास रात में छत पर टहलती हुयी भावहीन सी कहीं खोयी खोयी उसको देखते हुये बोली - शायद तुम प्यार को नहीं जानती । प्यार क्या अजीव शै है । इसे सिर्फ़ प्रेमी ही जान सकते हैं । प्यार की कीमत सिर्फ़ प्रेमी ही जान सकते हैं । जिसके दिल में प्यार ही नहीं । वो इसे कभी नहीं समझ सकते । हाँ माँ कभी नहीं समझ सकते ।
प्यार के लिये तो । वह मुँडेर पर हाथ रख कर बोली - अगर जान भी देनी पङे । तो भी प्रेमी खुशी खुशी सूली चढ जाते हैं । प्यार की ये शमा अपने परवाने के लिये जीवन भर जलती ही रहती है । पर..पर तुम दुखी न हो माँ । मुझे तुझसे और अपने बाबुल से कोई शिकायत नहीं । शायद विरहा की जलन में सुलगना हम प्रेमियों की किस्मत में ही लिखा होता है ।
मजबूर सी ठकुराइन यकायक रो पङी । उसने अपनी नाजों पली बेटी को कस कर सीने से लगा लिया । और फ़ूट फ़ूट कर रोने लगी । वह दीवानी सी इस पगली मोहब्बत को चूम रही थी । उसकी फ़ूल सी बेटी के साथ अचानक क्या हुआ था । उसकी किस्मत ने एकाएक कैसा पलटा खाया था ।
- हे प्रभु ! उसने दुआ के हाथ उठाये - मेरी बेटी पर दया करना । दया करना प्रभु । इसके जीवन की गाङी कैसे चलेगी ।
छुक..छुक..छुक का मधुर संगीत गुनगुनाती रेल मानों प्यार की पटरी पर दौङते हुये मंजिल की ओर जाने लगी । किसी बुरे ख्वाव की तरह दुखद अतीत जैसे पीछे छूट रहा था । उसने खिङकी से बाहर झाँका ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । ट्रेन के साथ साथ तेजी से पीछे छूटते हुये पेङ बोले ।
- हाँ हाँ नहीं भूलूँगी । वह शोख निगाहों से बोली - कभी नहीं ।
जिन्दगी का सफ़र भी जैसे रेल की तरह उमृ की पटरी पर दौङ रहा है । गाङी दौङने लगी थी । किसी समाज समूह की तरह अलग अलग मंजिलों के मुसाफ़िर अपनी जगह पर बोगी में बैठ गये थे । रोमा के सामने ही एक युवा प्रेमी लङका खिङकी से बाहर झांकता हुआ अपने मोबायल पर बजते गीत भाव में बहता हुआ अपनी प्रेमिका की याद में खोया हुआ था - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । प्यार क्या शै है मियाँ.. प्यार की कीमत जानो । प्यार कर ले कोई उसे । तो गनीमत जानो । ये दुनियाँ प्यार के किस्से । ये दुनियाँ प्यार के किस्से । मुझे जब भी सुनाती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है ।
- बेटी । उसकी माँ बोली - जिद्दी ठाकुर ने फ़ैसला किया है । तुझे शहर के मकान में रखेंगे । तू वहीं रह कर अपनी पढाई करेगी । आखिर तुझे कब तक यूँ कैद में रखें । मुझे दुख है । भगवान ने जाने क्या तेरी किस्मत में लिखा है ।
- माँ । वह भावहीन स्वर में बोली - हम प्रेमियों की किस्मत भगवान नहीं लिखते । प्रेमी स्वयं अपनी किस्मत लिखते हैं । प्रेमियों की जिन्दगी के प्रेम गृन्थ के हर पन्ने पर सिर्फ़ प्रेम लिखा होता है । एक दूसरे के लिये मर मिटने का प्रेम ।
वह ठाकुर की पत्नी थी । लेकिन उससे ज्यादा उसकी माँ थी । अपनी पगली दीवानी लङकी के लिये वह क्या करे ।
जिससे उसे सुख हो । शायद वह किसी तरह भी न सोच पा रही थी ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । खिङकी से नजर आते गाँव बोले ।
- तुम ठीक कहते हो । वह प्यार से बोली - नहीं भूलूँगी ।
न चाहते हुये भी उस विरहा गीत के मधुर बोल फ़िर उसे खींचने लगे । किस प्रेमी के दिल की तङप थी यह - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । कभी खुशबू भरे खत को सिरहाने रख कर सोती थी । कभी यादों में बिस्तर से लिपट कर खूब रोती थी । कभी आँचल भिगोती थी । कभी तकिया भिगोती थी । कभी तकिया भिगोती थी । ये उसकी सादगी है जो । ये उसकी सादगी है जो । हमें अब भी रुलाती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है ।
जुदाई में याद की तङप से और भी तङपाते मधुर गीत ने डिब्बे में एक सन्नाटा सा कर दिया था । हरेक को जैसे अपना प्रेमी याद आ रहा था । लङके के चेहरे पर प्रेम उदासी फ़ैली हुयी थी । ठीक सामने बैठी सुन्दर जवान लङकी रोमा तक में उसकी कोई दिलचस्पी न थी । उसने उसे एक निगाह तक न देखा था । और अपनी प्रेमिका की विरह याद में खोया वह लगातार खिङकी से बाहर ही देख रहा था । पता नहीं इसकी प्रेमिका कहाँ थी ? उसने सोचा । और पता नहीं उसका प्रेमी कहाँ था ?
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । गीत के बोलों में प्रेमियों की रूह बोली ।
- नहीं भूलूँगी । वह गुनगुनाई - मैं नहीं भूल सकती ।
दीन दुनियाँ से बेखबर वह प्रेमी नम आँखों से जैसे रेल के सहारे दौङती अधीर प्रेमिका को ही देख रहा था । दोनों की एक ही बात थी । उसकी कल्पना में प्रेमी था । और उसकी कल्पना में उसकी प्रेमिका - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम ।
चली आती थी मिलने के लिये । मुझे वो बहाने से । गुजरती थी कयामत । दिल पर उसके लौट जाने से । मुझे बेहद सुकूं मिलता । हाँ उसके मुस्काराने से । उतर कर चाँदनी सी जब वह । छत पर मुस्कराती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । खिङकी से नजर आते बच्चे हाथ हिलाकर बोले ।
- ना ना । वह मुस्करा कर बोली - नहीं भाई । कैसे भूलूँगी ।
प्रेमियों को ये दुनियाँ शायद कभी नहीं समझ सकती । डिब्बे में आते जाते लोग अपनी अपनी धुन में खोये हुये थे । जैसे सबको अपनी मंजिल पर पहुँचने का इंतजार हो । शायद उनमें से बहुतों की मंजिल कुछ ही आगे आनी वाली थी । लेकिन उसकी मंजिल तक पहुँचने के लिये गाङी कैसे टेङे मेङे रास्तों पर और जायेगी । उसे पता न था । कुछ भी पता न था । वो अभी भी किसी कैदी की भांति एक जेल से दूसरी जेल में जा रही थी । लेकिन क्या सारे प्रेमियों की कहानी एक ही होती है ? फ़िर क्यों उन दोनों को ये प्रेम गीत अपना ही गीत लग रहा था । हाँ बिलकुल अपना - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना वो मेरा नाम । वो मेरा नाम । वो मेरा नाम गीतों के । बहाने गुनगुनाती थी । मैं रोता था तो वो भी आँसुओं में डूब जाती थी । मैं हँसता था तो मेरे साथ । वो भी मुस्कराती थी । वो भी मुस्कराती थी । अभी तक याद उसकी प्यार के मोती लुटाती है । वो लङकी याद आती है ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । गाङी में चढती हुयी छात्र लङकियाँ बोली ।
- ना भई ना । वह अदा से बोली - कैसे भूलूँगी भला ।
- समय । उसकी माँ बोली - ये क्रूर समय इंसान को बङी से बङी अच्छी बुरी बात भुला देता है । मुझे उम्मीद है बेटी । समय के साथ साथ तू अपना अच्छा बुरा खुद सोच पायेगी । देख बेटी । किसी भी इंसान को उसका मनचाहा हमेशा नहीं मिलता । जिन्दगी के रास्ते बङे टेङे मेङे हैं । उतार चढाव वाले हैं । तू अभी कमसिन है । नादान है । तुझे जिन्दगी की समझ नहीं । उसकी हकीकत से तेरा अभी कोई वास्ता नहीं ।
जिन्दगी की हकीकत । क्या है जिन्दगी की हकीकत ? वह नहीं जानती थी । बस उसे प्यार की हकीकत पता थी । इस प्यार के रोग की सिर्फ़ वह अकेली तो रोगी नहीं थी । ये लङका भी था । जिसे उसी की तरह दीन दुनियाँ से कोई मतलब न रहा था । मतलब था । तो ख्यालों में मचलती अपनी हसीन प्रेमिका से - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । जहाँ मिलते थे दोनों । वो ठिकाना याद आता है । वफ़ा का दिल का चाहत का । फ़साना याद आता है कि उसका ख्वाव में आकर । सताना याद आता है । सताना याद आता है । वो नाजुक नर्म अकेली अब भी । मुझको खुद बुलाती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है । वो लङकी याद आती है ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । रास्ते में आये शहर बोले ।
- ओ हो.. नहीं नहीं । वह उस उदास प्रेमी को देखती हुयी बोली - हाँ नहीं भूलूँगी ।
- माँ । वह बोली - मैं कोशिश करूँगी कि सबका साथ निभा सकूँ । तेरा । बाबुल का । अपने राँझे का । देख ना माँ । अगर मैं बेवफ़ाई करूँगी । तो सच्चे प्रेमी बदनाम हो जायेंगे । प्रेमियों के अमर किस्से झूठे हो जायेंगे । फ़िर एक लङका लङकी आपस में प्रेम करना ही छोङ देंगे । सबका प्रेम से विश्वास जो उठ जायेगा । तुम बताओ माँ । क्या गलत कह रही हूँ मैं ? माँ इस दुनियाँ में प्रेम ही सत्य है । बाकी रिश्ते झूठे हैं ।
अगर ये सत्य न होता । उसके दिल ने कहा । तो फ़िर इस दुनियाँ में इतने प्रेम गीत भला क्यों गूँजते । सृष्टि के कण कण में गूँजते प्रेम गीत - तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । तुम ताना तुम । तुम ताना तुम । धीम धीम तन न ना । वो कालिज का जमाना मुझे नश्तर चुभोता है । और उसकी याद का सावन । किताबों को भिगोता है । अकेले में अभी मुझको । यही महसूस होता है कि जैसे आज भी..कि जैसे आज भी । कालिज में पढने रोज जाती है ।
- मितवाऽऽ ..भूलऽऽ न जानाऽऽ । उदास खामोश सूना सूना घर उससे बोला ।
- अरे नहीं । वह प्रेमियों की मन पसन्द तनहाई में विचरती हुयी बोली - नहीं भूल पाऊँगी ।
विरहा की आग ने उस प्रेमिका को जलाते हुये उसकी मोहब्बत को दीवानगी में बदल दिया था । वह पगली हो गयी थी । दीवानी हो गयी थी । समस्त प्रेमियों की आत्मा जैसे उसमें समा गयी थी । अब वह रोमा न रही थी । लैला हो गयी । हीर हो गयी । शीरी । जुलियट हो गयी । ये जुदाई । ये तन्हाई । ये सूनापन उसका साथी था । बङा ही प्यारा साथी । क्योंकि यहाँ उसकी कल्पना में बेरोक टोक उसका प्रेमी उसके साथ था । शायद यही प्रेम है । शायद यही प्रेम है ।
उसने एक बार घूम फ़िर कर पहले से ही देखे हुये अपने उस बाप दादा के घर को देखा । और नल से मुँह धोने बङी ।
तभी मुख्य दरवाजे पर दस्तक हुयी । आश्चर्य से उसने दरवाजा खोला । और फ़िर उसका मुँह खुला का खुला रह गया । दरवाजे पर विशाल खङा था । सूनी सूनी आँखों से उसे ताकता हुआ ।
- तुम । वह भौंचक्का होकर बोली ।
- जिन्दा रहने के लिये । वह बेहद कमजोर स्वर में बोला - तेरी कसम । एक मुलाकात जरूरी है सनम । हाँ रोमा । मैं तेरे साथ ही आया हूँ । उसी ट्रेन से । पर तू अकेली नहीं थी । इसलिये तेरे पास नहीं आया । मुझे पता चल गया था । ठाकुर साहब तुझे शहर भेज रहे हैं । जहाँ तेरा पुश्तैनी मकान है । फ़िर मैं यहाँ आ गया ।
और फ़िर स्वाभाविक ही वे एक दूसरे से लिपट गये । उन्होंने अब तक जो नहीं किया था । वो खुद हुआ । उनके होंठ आपस में चिपक गये । और वे एक दूसरे को सहलाते हुये पागलों की भांति चूमने लगे ।
- ये घर । रोमा बिस्तर ठीक करती हुयी उसे आराम से बैठाकर बोली - हमारी पुरानी जायदाद है । जिसका इस्तेमाल अब हमारे कारोबार के सामान आदि रखने के लिये गोदाम के रूप में किया जाता है । इसकी बन्द घर जैसी बनाबट भी किसी गोदाम के समान ही है । और इसमें सबसे अच्छी बात है । वह कमरे में एक निगाह डालकर बोली - यह तलघर । इसमें तुम आराम से छुप कर रह सकते हो । भले ही हमारे घर के लोग कभी कभी आते जाते बने रहे ।
पर दीवानों को ये सब कहाँ सुनायी देता है । वह तो अपलक उसे ही देखा जा रहा था । अपनी माशूका को । जिसे आज बहुत दिनों बाद देखने का मौका मिला था । बहुत दिनों बाद छूने का मौका मिला था । रोमा को छोङने आये
लोग उनके ट्रांसपोर्ट कारोबार आफ़िस चले गये थे । और शायद ही आज लौटते । रात को कोई नौकर भले ही आ जाता ।
शाम के चार बज चुके थे । उसने पूरी तरह से सुहागिन का श्रंगार किया था । और दरवाजा ठीक से लाक करके आराम से उसके पास तलघर में बैठी थी । आज उसने एक फ़ैसला किया था । पूरी सुहागिन होने का । आज वह अपना सर्वस्व उसे अर्पित कर देना चाहती थी । जिसकी विशाल को कोई ख्वाहिश न थी । पर उसको थी । और जाने कब से थी । क्या पता कल क्या हो जाये ? फ़िर उसके पास उन दोनों के मधुर मिलन की यादें तो थी । उसके मांग में सजी सिन्दूर की मोटी रेखा । माथे पर दमकती बिन्दियाँ । होंठों पर चमकती लाली । और हाथों में खनकते कंगन । उस एकदम नयी नवेली दुलहिन के लिये जैसे विवाह गीत गा रहे थे । वह खामोश तलघर उनके मधुर मिलन के इन क्षणों को यादगार बनाने के लिये जैसे बैचेन हो रहा था ।

उफ़ ! आज कितने मुद्दत के बाद यह समय आया था । जब वह अपने राँझे के सीने पर सर रख कर लेटी थी । और समय जैसे ठहर गया था । काफ़ी देर हो चुकी थी । और वह विशाल की तरफ़ से किसी पहल का इंतजार कर रही थी । पर वह उसकी पीठ सहलाता हुआ खामोश छत को देख रहा था । जैसे शून्य 0 में देख रहा हो । आखिरकार उसकी सांकेतिक चेष्टाओं से वह प्रभावित होने लगा । और उसने रोमा के ब्लाउज पर हाथ रखा ।
और तभी खट की आवाज से दोनों चौंक गये । उन्होंने घूमकर आवाज की दिशा में देखा । तलघर की सीङियों पर उसका बाप ठाकुर जोरावर सिंह एक आदमी के साथ खङा था । उसकी पत्थर सी सख्त आँखों में क्रूरता की पराकाष्ठा झलक रही थी । उसके हाथ में रिवाल्वर चमक रहा था । एक पल को रोमा के होश उङ गये । पर दूसरे ही पल उसके चेहरे पर दृढता चमक उठी ।
- तूने वचन भंग किया बेटी । वह भावहीन खुरदुरे स्वर में बोला - अब मैं मजबूर हुआ । अब दोष न दियो मुझे ।
वह बिस्तर से उठकर खङी हो गयी । और सूनी आँखों से उस प्यार के दुश्मन जल्लाद को देखने लगी । जिसके साथी के चेहरे पर हैरत नाच रही थी । यकायक उसे कुछ न सूझा । क्या करे । क्या न करे । रहम की भीख माँगे । या बेटी बाबुल से प्यार माँगे । कैसे और क्या माँगे । उस पत्थर दिल इंसान में कहीं कोई गुंजाइश ही नजर न आती थी ।
- पापा । फ़िर स्वतः ही उसके मुँह से निकला - वचन भंग हुआ । उसके लिये । मैं माफ़ी चाहती हूँ आपसे । पर ये मेरा प्यार है ।.. मैं क्या करूँ । हम दोनों एक दूजे के बिना नहीं रह सकते ।.. नहीं रह सकते बाबुल । अगर मारना ही है । तो उसको मारने से पहले मुझे मारना होगा । हम साथ जीयेंगे । साथ मरेंगे । और ये उस लङकी की आवाज है । जिसकी रगों में आपके ही खानदानी ठाकुर घराने का खून दौङ रहा है । हमारे जिस्म मर जायेंगे । पर हमारी मोहब्बत कभी नहीं मरेगी ।..पापा मैं तो आपकी बेटी ही हूँ । वह भर्रायी आवाज में बोली - आपने ही मुझे जन्म दिया बाबुल । आपकी ही गोद में खेलकर बङी हुयी हूँ । आप ही मार भी दोगे । तो क्या दुख । कैसा दुख ।
वाकई आज ये एक कमजोर लङकी की आवाज नहीं थी । ये मोहब्बत की बुलन्द आवाज थी । उसकी आवाज उस जालिम की आवाज को भी कमजोर कर रही थी । उसमें एक चट्टानी मजबूती थी । उसमें ठाकुरों के खून की गर्मी थी । जोरावर का रिवाल्वर वाला हाथ कांप कर रह गया ।
इतना सस्ता भी नहीं होता । दो इंसानों का जीवन । मारने का ख्याल करना अलग बात है । और मारना अलग बात । क्रोध में अँधा होकर क्या करने जा रहा था वह ? उसने सोचा । आखिर क्या गलती की उसकी मासूम बेटी ने ? जोरावर ये क्या अनर्थ करने जा रहा है तू । उसका कलेजा कांप कर रह गया । अन्दर ही अन्दर वह कमजोर पङने लगा ।
खुद ब खुद उसके दिमाग में उसके नन्हें बचपन की रील चलने लगी । जब वह अपनी फ़ूल सी बेटी को एक कंकङ चुभना भी बरदाश्त नहीं कर सकता था । वह अपनी ही गलती से गिर जाती थी । और वह आग बबूला होकर तमाम नौकरों को कोङे मारता था । आखिर मेरी बेटी गिरी तो गिरी क्यों । क्यों ? उसके मुँह से निकली बात आधी रात को भी पूरी की जाती । उसकी एक मुस्कान के लिये वह हीरे मोती लुटा डालता । कितने ख्वाव थे उसके । उसको अपने हाथों डोली में विदा करने के मधुर ख्यालों में वह कितनी बार रोया । और आज । आज क्या हो गया उसे ? अगर उसकी बेटी ने अपने सपनों का राजकुमार खुद चुना था । तो इसमें कौन सा आसमान टूट गया था । नहीं । वह ऐसा कभी नहीं कर सकता कि अपनी ही राजकुमारी को अपने ही हाथों से मार डाले ।
- हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह । उसके दिमाग में ठाकुरों के सख्त चेहरे अट्टाहास कर उठे - तेरी बेटी ने खानदान की नाक कटवा दी । एक गङरिया ही मिला तुझे दामाद बनाने को । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह । एक पाल लङका । हा ..हा..हा ठाकुरों ! तुम्हारी औरतें बाँझ हो गयी । अब ठाकुरों की बेटियाँ ऐसी जातियों में शादियाँ करेगी । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह । तेरी गर्दन नीची कर दी । इस नीच वैश्या लङकी ने । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह ।..अरे नहीं नहीं । ठाकुर जोरावर सिंह नहीं ।.. जोरावर गङरिया । जोरावर गङरिया ।. जोरावर पाल । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह ।. जोरावर पाल । हा ..हा..हा ठाकुर जोरावर सिंह ।
वह पागल हो उठा । और न सुन सका । एक क्रूरता फ़िर से उसके कठोर चेहरे पर छा गयी । उसने उन दोनों की तरफ़ से नजर फ़ेर ली । और रिवाल्वर वाला हाथ सीधा किया ।
एक । दो । तीन । एक के बाद एक तीन गोलियाँ दनदनाती हुयी उसके रिवाल्वर से निकली । और विशाल के सामने तनकर खङी हो गयी रोमा के बदन में समा गयी । खामोश शान्त तलघर उन प्रेमियों की हाहाकारी चीखों से गूँज उठा ।
यकायक । यकायक । जैसे जोरावर होश में आया । ये तो रोमा की चीख थी । उसकी प्यारी बेटी की चीख । उसकी मासूम फ़ूल सी बच्ची की चीख । उसने चौंककर निगाह सीधी की । रोमा की आँखे पथरा सी गयी थी । विशाल उससे लिपट कर रो रहा था । उसने फ़िर से हाथ सीधा किया । और दीवानगी में घोङा दबाता चला गया । विशाल का सर किसी फ़टे तरबूज की भांति ऐसे बिखर गया । जैसे सिर कभी था ही नहीं । सिर्फ़ धङ ही था । उसने घोर नफ़रत से रिवाल्वर को फ़ेंका । और दोनों लाशों से लिपट कर फ़ूट फ़ूट कर रोने लगा ।
- मुझे माफ़ कर देना बेटी । वह जार जार रोता हुआ दीवाना सा उसे चूमता हुआ बोला -. मुझे माफ़ कर देना । तुझे तेरे बाबुल ने नहीं मारा ।.. तुझे ठाकुर ने मारा ।.. ठाकुर जोरावर सिंह ने । हत्यारे ठाकुर जोरावर सिंह ने ।..सब ठाकुरों ने मिलकर.. मेरी प्यारी बेटी को मार डाला ..उठ बेटी ..उठ..मैं तेरा बाबुल । एक बार ..बस एक बार..एक बार..अपने बाबुल को गले लग कर बोल - पापा मैंने तुम्हें माफ़ किया ।
मितवाऽऽ.. भूल नऽऽ जानाऽऽ । निमाङ की हरी भरी वादियों में उस सच्चे प्रेमी की आवाज जैसे अभी भी गूँज रही थी - नहीं जानता रोमा ।..पर मैं ये जानता हूँ कि मैं तुम्हारे बिना नहीं जी पाऊँगा । अगर ये लोग हमें मिलने नहीं देंगे । फ़िर हम यहाँ से दूर चले जायेंगे । दूर । बहुत दूर । बहुत दूर । बहुत दूर ।
- कितनी दूर ? वह उदास हँसी हँसती हुयी बोली - विशाल..कितनी दूर ?
- शायद । वह प्रेम से उसको देखता हुआ बोला - शायद..इस धरती के पार । किसी नयी दुनियाँ में । वहाँ । जहाँ दो प्रेमियों के मिलने पर कोई रोक न हो ।
- चल पागल । अचानक वह जोर से खिलखिलाई - वहाँ कैसे जायेंगे भला । तुम सचमुच दीवाने हो ।
- नितिन जी ! वह पहाङी पर चहलकदमी सी करती हुयी बोली - हम जहाँ खङे हैं । ये वही वादियाँ हैं । जहाँ कभी हमारे प्यार के गीत गूँजे थे । विशाल ने एकदम सच ही कहा था । हम एक नयी दुनियाँ में । उस दुनियाँ से.. बहुत दूर आ गये थे । मुझे दो गोली छाती में । एक पेट में लगी थी । पर मेरे प्राण नहीं निकल रहे थे । वे तो जैसे विशाल का इंतजार कर रहे थे । वह मुझसे लिपट कर रो रहा था । तभी कुछ क्षणों बाद मुझे उसकी दर्दनाक चीख सुनायी दी । और इसके साथ ही मेरी रूह ने शरीर को छोङ दिया ।
मौत । क्या होती है मौत ? हमें पता ही न चला । क्योंकि हम तो मरे ही न थे । गोलियाँ हमारा कुछ न बिगाङ सकी थी । हम तो ज्यों के त्यों जीवित थे । और एकदम ठीक थे । मौत हुयी थी । पर हमारी नहीं । शरीर की । हम तो जैसे के तैसे जमीन से उठकर जैसे वापिस बिस्तर पर आ गये थे । मेरा बाप हम दोनों के शरीर से लिपट कर रो रहा था । बार बार हमारे पैर पकङ कर माफ़ी माँग रहा था । तुम्हें हैरानी होगी नितिन । मुझे उस पर सचमुच दया आ रही थी ।
क्योंकि वास्तव में उसने मुझे नहीं मारा था । एक बाबुल अपनी बेटी को कभी मार भी नहीं सकता । हमें कट्टर ठाकुर जाति ने मारा था । एक झूठी शान की हिंसक खूनी परम्परा पर उसने अपनी नाजों पली बेटी की बलि चढा दी । फ़िर मुझे अपने बाप से क्या शिकायत होती । मुझे मारने वाला ठाकुर था । और अब फ़ूट फ़ूट कर रो रहा मेरा बाप था । तब मुझे भी रोना आ रहा था । मैं उसको तसल्ली देना चाहती थी । पर कैसे ? नितिन जी कैसे ? क्योंकि अब हम उस दुनियाँ में थे ही नहीं ।
- फ़िर आपने । अचानक नितिन बोला - पदमा जी के रूप में जन्म लिया । और विशाल जी ने ?
वह यकायक खिलखिला कर हँसने लगी । अतीत के उस दुखद उदास कथानक की धुँध जैसे नितिन के उस मासूम से सवाल पर उस दिलकश औरत की मधुर हँसी के साथ खील खील होकर बिखर गयी ।
- अरे कहाँ नितिन जी । वह शोख मुस्कान के साथ उसको देखती हुयी बोली - आप भी कैसी बातें करते हो । मैंने पदमा क्या । किसी भी रूप में कोई जन्म ही नहीं लिया । अभी तक नहीं लिया । पदमा अलग है । मैं अलग हूँ । आप भी कमाल के हो ।
उसके दिमाग में मानों भयंकर विस्फ़ोट हुआ । पदमा अलग है । मैं अलग हूँ । फ़िर ये कौन है ? उसने एकदम चौंक कर उसकी ओर देखा । उसे । जो बेहद शरारत से उसी को देखती हुयी हँस रही थी । और जैसे आँखों ही आँखों में मौन खुला चैलेंज कर रही थी - क्या कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने । राजीव । .. कहानी जो उसने शुरू की । उसे कैसे कोई और खत्म कर सकता है । ये कहानी है ।..
फ़िर अचानक वह सब कुछ भूल कर उससे लिपट गयी । और दीवानी सी उसके होंठ चूमने लगी । नितिन का बदन फ़िर फ़ूल सा हल्का होने लगा । और उन दोनों के पैर वादियों की सर जमीं से उखङ गये
नितिन जी ! प्यार शायद कुछ अलग ही होता है । पदमा छत पर किनारे की ओर बढती हुयी बोली - शायद प्यार को समझ पाना हरेक के बस की बात नहीं । दरअसल हम जिसे प्यार मान लेते हैं । वह हमारे अंतर में कहीं गहरे छुपी दैहिक वासना ही होती है । प्यार की सही अनुभूति के लिये इंसानी शरीर का होना बहुत आवश्यक है ।..और ये सत्य । जिसे मैं जीते जी न जान सकी । मरने के बाद बिना किसी प्रयास के मेरी समझ में आ गया । अनुभव में आ गया ।
कहते भी हैं । दो प्रेमियों को जब ये बेरहम दुनियाँ जीते जी नहीं मिलने देती । तब वे मर कर एक हो जाते हैं । कम से कम ये बात हमारे ऊपर तो सत्य हुयी थी । हम एक हो चुके थे । अब कोई कैसी भी रोक टोक नहीं थी । हम में एक दूसरे के लिये प्यार भी था । पर प्यार की वह तङप जाने क्यों खत्म हो गयी थी । जो मजा उस वक्त जुदाई में था । मिलन में न रहा । हमारे सीने में दिल तो था । पर उस दिल में प्रेम की सुलगती हूक न थी । वह अनजान जजबाती आग जैसे बुझ ही गयी ।
तब मैंने कई बार इस बात पर सोचा । और यही निष्कर्ष निकाला कि मनुष्य शरीर में कोई खास बात ऐसी है । जो प्यार की अलग ही अनुभूति कराती है । पर अब क्या हो सकता था । हम बाजी हार चुके थे । कुछ भी हो । मैं सत्य कहती हूँ । जो प्यार की आग तब मैं जलती हुयी महसूस करती थी । वो बाद में न रही । विशाल की भी वो तङप वो बेकरारी खत्म सी हो गयी ।
हम इसी बन्द घर में रहने लगे । प्रेमी मिल गये । पर प्रेम खो गया । ठाकुर जोरावर सिंह को जैसे इस घर से नफ़रत ही हो गयी । घर । जो उसकी बेटी का हत्यारा था । कब्रगाह था । उसने इस घर में ताला डाल दिया । पर शायद..शायद उसको भी मालूम न था कि उसकी बेटी अपने प्रेमी के साथ इसी घर में रहती है । और फ़िर धीरे धीरे समय गुजरने लगा ।
समय । जो एक छोटी बालिका को लङकी में बदल देता है । लङकी को जवान लङकी में । और जवान लङकी को जवान औरत में । और जवान औरत को परिपक्व औरत में । परिपक्व औरत । सेक्स की भूखी । और अभ्यस्त औरत । भूख । सेक्स..सेक्स..सिर्फ     सेक्स ।
- आऽऽह । वह कराही - मैं प्यासी हूँ ।
- नितिन जी ! मौत के बाद 5 तत्वों का स्थूल शरीर छूट जाने पर इस अजीव शरीर में इंसानी शरीर जैसे बदलाव नहीं होते । वह वैसा का वैसा ही ठहर जाता है । जैसा मौत के समय था । बच्चा मरे तो बच्चा । बूढा मरे तो बूढा ही रहेगा । पर कामनायें जवान हो जाती हैं । तब एक बूढा अशरीरी भी वासना का ऐसा ही भूखा हो जायेगा । क्योंकि उसके इस शरीर में बुढापे की निर्बलता नहीं होती । और आप जानते ही हैं । इंसान हमेशा शरीर से बूढा होता है । दिल से जवान ही रहता है ।
रात धीरे धीरे अपने सफ़र को पूरा कर रही थी । वह बङे कृमबद्ध ढंग से बाकायदा कहानी को सुना रही थी । पर उसकी समझ में जैसे कुछ भी नहीं आ रहा था । क्या अजीब घनचक्कर कहानी थी । ये ही नहीं पता लग रहा था । शुरू हो रही है । खत्म हो रही है । या बीच में ही अटक गयी । या फ़िर कोई कहानी है भी या नहीं ? वह जितना आगे कहानी सुनाती जा रही थी । कहानी सुलझने के बजाय और उलझती ही जा रही थी । आखिर क्या एण्ड है इस कहानी का ? उसका दिमाग जैसे घूमकर रह गया ।
आऽऽह । अचानक वह तङप उठी - मैं प्यासी हूँ ।
- तब नितिन जी ! वह झुक कर नीचे आँगन में झांकती हुयी बोली - मेरे अन्दर भी भयंकर काम वासना जाग उठी । मेरा समस्त चिन्तन सिर्फ़ दैहिक वासना को तृप्त करने पर केन्द्रित हो गया । योनि वासना । और इसीलिये फ़िर धीरे धीरे मुझे मनुष्यों से नफ़रत होने लगी । घोर नफ़रत । क्योंकि इसी मनुष्य के सामाजिक नियमों ने हमारा वह शरीर हमसे छीन लिया था । जो सही अर्थों में काम वासना को सन्तुष्ट कर सकता है । तृप्त कर सकता है । और मैंने जाना । मेरे अन्दर काम वासना की अग्नि प्रचण्ड रूप से दहक रही थी । प्रचण्ड काम वासना । सेक्स.. सेक्स.. सिर्फ़ सेक्स । और फ़िर मैं आसपास के लोगों को अपनी वासना का शिकार बनाने लगी ।
वह सिर्फ़ तंत्र मंत्र जानता था । कुछ हद तक ऐसी बातों की किताबी जानकारी भी उसे थी । पर प्रेतों से सीधा सम्पर्क और उनकी असल स्थिति से उसका वास्ता पहली बार ही पङा था । इसलिये जब वह कोई बात बताती थी
तब बीच बीच में उसके दिमाग में सवाल पैदा हो जाते थे । लेकिन रोका टोकी करने से उसके बहाव में बाधा आ सकती थी । उसका रुख कहीं ओर भी मुढ सकता था । हो सकता था । वह आवेश ही खत्म हो जाये । और तब वह परिणाम होना । सिर्फ़ समय की बरबादी और खुद की गयी मूर्खता ही होती । इसलिये कसमसाता हुआ भी वह चुप ही रह जाता ।
वे दोनों जैसे खङे खङे थक गये थे । तब वह जाकर बैंच पर बैठ गयी ।
- एक बात बताईये नितिन जी । अचानक वह मधुर स्वर में अदा से बोली - कल्पना करिये । एक स्त्री पुरुष हैं । उनका कोई परिवार नहीं । कोई बच्चे आदि नहीं । जिन्दगी की कोई जिम्मेदारी । कोई तनाव नहीं । यहाँ तक कि कपङे भी न पहनें । और पूर्णतः नग्न रहें । आप इस तरह समझिये । दो नग्न स्त्री पुरुष जंगल में हैं । पेट की भूख के लिये फ़ल खा लेते हैं । और नींद आने पर पत्तों पर सो जाते हैं । तब बाकी समय उनके दिमाग में क्या घूमेगा ?
वह कुछ न बोला । और चुप ही रहा । क्योंकि उसे पता था कि आगे वह क्या कहने वाली हैं ।
- सेक्स ..सेक्स..सिर्फ़ सेक्स..आऽऽह । वह होंठ काटती हुयी बोली - मैं प्यासी हूँ ।
यकायक वह कुछ देर के लिये शान्त हो गयी । और दूर शून्य 0 में घूरती रही । फ़िर उसने एक गहरी सांस सी ली ? और बङी अजीव नजरों से उसे देखा ।
- फ़िर क्या हुआ ? वह उत्सुकता से बोला ।
- फ़िर । उसने नजरें झुका कर उंगलियाँ चटकाते हुये कहा - फ़िर कहानी की हीरोइन को बहुत जोर से प्यास लगी । और वह कहानी ही भूल गयी । क्योंकि..प्यास .. बहुत जोर से ।..प्यास ।..प्यास लगी ।..फ़िर ।..फ़िर । बहुत जोर से प्यास लगी ।..प्यास ।
अगर वह उससे कुछ चाहता था । तो फ़िर वह भी उससे कुछ चाहती थी । जीवन शायद इसी सौदे का ही नाम है । अपनी अपनी चाहतों का मुनाफ़े युक्त सौदा । फ़िर कौन नहीं करता । पति पत्नी । बाप बेटा । माँ बेटा । भाई भाई । प्रेमी प्रेमिका । सभी रिश्ते । सम्बन्ध के अनुसार अपने अपने स्वार्थ से ही जुङे हैं ।
सभी जैसे कुछ देकर कुछ खरीदते हैं । कुछ लेकर कुछ बेचते हैं । तब वह अपनी कीमत चाहती थी । तो उसमें गलत क्या था ? कुछ भी नहीं । कुछ भी तो नहीं ।
वह किसी मोल चुकायी महारानी द्वारा खरीदे दास की तरह उसकी ओर बढा । और उसे अपनी गोद में उठा कर तखत पर डाल दिया । एक सधे मशीनी अन्दाज में उसने उसका ब्लाउज ऊपर कर दिया । और उसके मुलायम स्तनों को मसलने लगा । वह जल बिन मछली सी तङपने लगी ।
- आऽऽह । वह उसके बलिष्ठ चंगुल में फ़ङफ़ङाई - मैं प्यासी हूँ ।
नौकर । मोल लेकर सेवायें देने वाला सेवक । शायद किये जा रहे किसी भी कार्य में उसकी निजी अपनत्व भावना कभी नहीं होती । कम से कम अभी तो वह वही था । तब उसने उसके स्तनों पर वही कठोरता दिखाई । जैसी उसकी चाहत थी । अगर वह पूरी कीमत दे रही थी । तो फ़िर उसे भी सच्चा सौदा ही करना चाहिये था । भरपूर कीमत । तो खरा माल ।
उसने उसके दोनों स्तनों को जकङ लिया । पदमा उसकी बेहद सख्त पकङ से छूटने के लिये ऐसे छटपटाने लगी । जैसे उसके बदन में विधुत के झटके से लग रहे हों । सख्ती । इस मीठे दर्द से बेतरह तङपती भूखी औरत आखिर उस समय और चाहती भी क्या है । सख्ती । भरपूर सख्ती । जैसे उसे महीन महीन पीस डाला जाये । जैसे उसको कतरा कतरा काट दिया जाये । जैसे उसकी धज्जियाँ उङा दी जायें । जैसे उसको रुई सा धुन दिया जाये । और जैसे उसके बखिये से उधेङ दिये जायें ।
इसलिये उसे उसकी चाहत से भरपूर तङप से । दर्द से । चीखों से । जैसे कोई कैसी भी सहानुभूति नहीं थी । वह तो किसी पूर्णतया निर्दयी कसाई की भांति लम्बा पैना धारदार चमकता लपलपाता छुरा लेकर उसको सिर्फ़ हलाल करना चाहता था । उस घबरायी सहमी डरी बकरी की मिमियाहट उसमें उल्टा जोश भर रही थी । उसके बदन में जैसे जोश का लावा सा फ़ूट रहा था ।
- म.म..मैंऽऽ मोंऽऽ मंयऽऽ । वह तेजी से उलटी पलटी - छोङ मुझे.. निर्दयी.. मैंऽ मुंऽ आंऽ आंऽऽ आऽऽई मर गयी ।
उसने किसी माँस से लबालब भरी मोटी बकरी की तरह ही उसे पकङ कर खींचा । और उसको कमर से घुमाकर उलटा किया । खून पीने को आतुर गर्म छुरे को अन्दर महसूस करते ही वह गला फ़ाङकर चिल्लाई । उसके कण्ठ से निरन्तर दर्द की चीखें निकलने लगी । पर कसाई अपनी पूरी कारीगरी दिखाता हुआ उसे बङी शान्ति से हलाल कर रहा था । और फ़िर तङपते तङपते वह शान्त हो गयी ।
कभी कभी जीवन की कोई रात बङी लम्बी बङी रहस्यमय सी हो जाती है । जैसे कयामत की ही रात हो । ये रात उसके लिये ऐसी ही थी । कयामत की रात । उसे लग रहा था । जैसे सैकङों वर्ष गुजर गये हों । और दूसरे ही ऐसा भी लग रहा था । जैसे वक्त ही ठहर गया हो । हाँ । शायद कभी कभी निरन्तर गतिमान समय ठहर भी तो जाता है । जैसे आज ठहर गया था ।
- पदमा जी । अचानक वह कुछ सोचता हुआ सा बोला ।
- अरे पागल हो क्या । वह किसी मनचली औरत की भांति तेजी से बात काटती हुयी बोली - कहा ना । मैं पदमा नहीं हूँ । पदमा अलग है । मैं अलग हूँ । नितिन जी आप भी पूरे लल्लू मालूम होते हो । एकदम बुद्धू ।
वह फ़िर चुप रह गया । अब कहता भी तो क्या कहता ? बस उसके बोलने का इंतजार ही करता रहा ।
- मुझे हँसी आती है । अचानक वह कुछ गम्भीर होकर बोली - संसार के मनुष्यों की प्रेतों को लेकर कैसी अजीव अजीव सी सोच हैं । जैसे प्रेत किसी मायावी राक्षस जैसे खतरनाक होते हैं । वह उनको मार डालेंगे । उनका बङा नुकसान कर देंगे । और नितिन जी । आश्चर्य इस बात का है । जबकि उन्हें अच्छी तरह मालूम है । कोई भी मरा हुआ इंसान ही प्रेत बनता है । है ना कमाल की बात । जिन्दा इंसान मरे इंसान से डरता है । जिस जीव की वासना नियम अनुसार उन जटिल कर्म गुच्छों में उलझ जाती है । अटक जाती है । जिनसे प्रेतत्व का निर्माण होता है । तब सीधी सी बात है । वह मर कर प्रेत ही बनेगा ना ।..है ना । और इन वासनाओं में सबसे प्रमुख वासना होती है - कामवासना । सेक्स ..सेक्स..सिर्फ़ सेक्स ।
और मुझे हैरानी थी कि मुझ लैला मुझ हीर मुझ शीरीं मुझ जूलिय़ट जैसी प्रेमिका में । जिस वासना का उसके मनुष्य जीवन में नामोनिशान भी शायद नहीं था । वह मरने के बाद । किसी ज्वालामुखी सी फ़टी । नितिन जी यही है । शायद सदियों सदियों से प्यासी औरत । भूखी औरत ।
पर सबके साथ ही ऐसा होता हो । ऐसा भी शायद मैं निश्चय से नहीं कह सकती । क्योंकि मरने के बाद विशाल में ऐसी कोई उत्तेजना नहीं थी । वह ज्यादातर शान्त ठण्डे तलघर में पङा रहता । और रात होते ही वीरानों में निकल जाता । पर मैं कहीं नहीं जाती थी । मैं यहाँ आसपास की बस्ती की सोयी स्त्रियों में प्रवेश कर जाती । और उनके माध्यम से उनके पतियों का रस चूसती । काम रस । इससे मुझे एक अजीव सी तृप्ति हासिल होती ।
फ़िर कई साल और गुजर गये । और अचानक इस मनहूस बन्द घर में जीवन की नयी चहल पहल शुरू हो गयी ।
उजाङ पङा ये घोंसला जैसे आवाद हो गया । इसमें प्रेम परिन्दे एक बार फ़िर से चहचहाने लगे । एक बार तो मैं आश्चर्य चकित ही रह गयी । ठाकुर जोरावर ने ये घर बेच दिया था । और एक पति पत्नी एक जवान लङके के साथ इस घर के नये मालिक बन कर आये थे ।
उस बेहद सुन्दर सरल अप्सरा सी औरत का नाम पदमा था । उसके सीधे साधे पति का नाम अनुराग था । और पदमा के गठीले जवान देवर का नाम मनोज था ।
यकायक जैसे उस पर उदासी सी छा गयी । एक गहन अपराध बोध जैसे उसके भावों में घुलने लगा । एक प्रायश्चित की पीङा सी बार बार उसके चेहरे पर आने जाने लगी । कुछ कहने से पहले ही उसका कण्ठ भर्रा गया । फ़िर जैसे तैसे करके उसने अपने आपको संभाला ।
- नफ़रत । जलन । वह कुछ कुछ भर्राये स्वर में बोली - इंसान से गहरे पाप करा कर उसे पतन के अथाह गर्त में गिरा देती है । विशाल को इस परिवार के अचानक आ जाने से बहुत खुशी हुयी । वह इनकी खुशियाँ ही देख कर जैसे खुश हो जाता था । चिङिया सी चहकती । कोयल सी कूकती । तितली सी उङती । मोरनी सी चलती । हिरनी सी उछलती । फ़ूलों सी महकती पदमा ..पदमा जैसे कोई औरत न होकर जीती जागती बहार थी । बहार जो फ़िजा में रंग भर देती है । बहार जो हर दिल को मचलने पर मजबूर कर देती है ।
खुद मुझे भी उसे देखना बहुत अच्छा लगता था । उस स्त्री में जो सबसे खास बात थी । उसे किसी से भी कोई शिकायत ही न थी । वह तो जैसे हर रंग अपनी मस्ती में मस्त रहती थी ।
कई महीने गुजर गये । हम दोनों तो इन नये प्रेम पंछियों को देख कर मानों खुद को ही भूल गये । कभी कभी मैं सोचती थी । पदमा पर सवार हो जाऊँ । और उसके द्वारा अपनी हवस पूरी करूँ । पर उसके अस्तित्व में जो एक अजीव सा देवत्व था । उससे मुझे एक अनजाना सा भय होता है । वह इतनी प्यारी लगती थी कि उसके प्रति कोई बुरा सोचना भी नहीं अच्छा लगता था ।
और फ़िर मैंने पदमा का एक नया रूप देखा । उन्मुक्त यौवन की मुक्त बहारें लुटाने वाला रूप । उसकी नजर में संसार के सारे सम्बन्ध बनाबटी थे । बेमानी थे । सिर्फ़ जीवन व्यापार को सुचार रूप से चलाने के लिये तमाम सम्बन्ध गढे गये थे । वरना संसार में सिर्फ़ दो ही सम्बन्ध असली थे । स्त्री और पुरुष । जो एक दूसरे की इच्छाओं के पूरक थे ।
उसका मानना था कि वह अपने प्यासे देवर को यौन क्रिया सन्तुष्टि से सन्तुष्ट कर दे । इसमें कुछ भी गलत नहीं था । वह अपने देवर से खुद की यौन भावनाओं को सन्तुष्ट करे । इसमें भी कुछ गलत नहीं था ।
क्योंकि अगर प्यास है । तो प्यासा कहीं न कहीं प्यास बुझायेगा ही । उसका देवर बाहर किसी कुँवारी व्याही औरत से यही तृप्ति पाता है । तब भी यही बात है । वह खुद के लिये बाहर उपाय तलाशती है । तब भी यही बात है । फ़िर इस तरह का स्त्री पुरुष परिचय । इस तरह का स्त्री पुरुष मिलन । घर में क्या गलत था । इसलिये देवर भाभी भी अपनी जगह । और स्त्री पुरुष भी अपनी जगह ।
हाँ लेकिन कुछ खास रक्त सम्बन्धों के प्रति उसका ऐसा नजरिया नहीं था । जैसे बाप बेटी । माँ बेटा । भाई बहन । क्योंकि उनकी कोई आवश्यकता भी नहीं थी । लेकिन बाकी सभी सम्बन्ध उसकी नजर में स्त्री पुरुष सम्बन्ध ही थे ।
और नितिन जी । तब शायद मुझे पदमा ने प्रेम की एक नयी परिभाषा सिखाई । एक नया पाठ पढाया । वह खुले अधखुले अंगो से अक्सर मनोज के सामने भी आ जाती । और वे एक दूसरे से आकर्षित होकर मधुर काम क्रीङायें करने लगे । और मैं । मैं मन मसोस कर रह जाती । दूसरे स्त्री पुरुषों के पास जाने की मेरी इच्छा ही खत्म हो गयी । अब मैं सिर्फ़ पदमा को चाहती थी । पदमा होना चाहती थी । सिर्फ़ पदमा ।
मेरे अन्दर एक अतृप्त आग सी लगातार जलने लगी । मैं अपने ही दाह से जल जल कर कोयला राख होने लगी ।
उनके प्रेम में कुछ अलग सा था । कुछ अलग सा ? शायद उस अलग से की ही प्यास हर स्त्री पुरुष में है । उनकी वासना कामवासना भी थी । और पवित्र प्रेम भी । वे पति पत्नी का भोग भी करते थे । और बङे प्यासे भाव से एक दूसरे की तरफ़ खिंचते भी थे । जैसे जन्म जन्म के प्रेमी प्रेमिका हों । मैं पदमा का यह विशेष गुण देख कर अति हैरान थी । भोग के समय वह एक पूर्ण परिपक्व स्त्री होती थी । कामवासना के चरम पर पहुँचने और पहुँचाने वाली । और प्रेम किल्लोल करते हुये वह एक अनछुयी कुंवारी लङकी सी सहमी सकुचाती शरमाती नयी नयी प्रेमिका सी नजर आती । वह एक पूर्ण पत्नी भी थी । और एक आदर्श भाभी भी । वह एक कुशल गृहणी भी थी । और उन दोनों इंसानों के लिये ममतामयी माँ जैसी भी ।
हाँ नितिन ममतामयी माँ । अपने पति और देवर की माँ । इस औरत को पढना बहुत मुश्किल था । जानना असंभव था ।
तब मुझे उस सुखी औरत के अति सुखी जीवन से जलन होने लगी । बेहद जलन । इंसानों से मुझे वैसे भी नफ़रत हो चली थी । तब खास प्रेम में सफ़ल इसानों के प्रति वह और भी ज्यादा थी । और वह वही थी । प्रेम रस में नहायी हुयी । अंग अंग सराबोर प्रेम माधुरी पदमा । इसलिये अब हर हालत में मैं उसका वह सुख खुद प्राप्त करना चाहती थी ।
और फ़िर हर रोज शाम ढले इस घर में होने वाली दिया बाती एक दिन बन्द हो गयी । ये घर फ़िर मनहूस वीरान शमशान सा प्रेतवासा हो गया । इसमें प्यार के पंछी चहकने बन्द हो गये ।
- रोमा ! फ़िर विशाल बेहद नफ़रत से मुझसे बोला - हत्यारिन । नीच । तूने ये क्या किया ? किसी की खुशियाँ तुझसे बरदाश्त नहीं हुयी । और कमीनी तूने उन सबको मार डाला ।
- ह हाँ । मैंने नफ़रत युक्त मगर अपराध बोध भाव से कहा - शायद इस संसार में ऐसा ही होता है । इसका यही नियम है । हम किसी दूसरे को खुश होता नहीं देख सकते । हमारे तन बदन में आग लग जाती हैं । तब हम हर संभव उपाय कर उसकी खुशियाँ छीन ही लेते हैं । सब यही तो करते हैं । फ़िर मैंने क्या गलत किया विशाल ?
- ये अपने दिल से पूछ हत्यारिन । वह बेहद घृणा से बोला - तूने क्या गलत किया । क्या सही किया । तेरा दिल
खुद तुझे इसकी सच्ची गवाही देगा ।..अरे तू कैसी प्रेमिका है ? तेरे अन्दर तो जहरीली नागिन बैठी हुयी है ।
नितिन भी एकदम हक्का बक्का सा रह गया । उसके दिल पर जैसे किसी ने जबरदस्त चोट मारी हो । लेकिन वह जो कह रही थी । उसे सुनकर तो उसका दिमाग न सिर्फ़ आसमान में उङ रहा था । बल्कि उसे भयंकर घूमा आ रहा था । क्योंकि जो कह रही थी । जो सामने बैठी थी । वह उसके हिसाब से पदमा ही थी । हंड्रेड परसेंट पदमा । अब क्या करे वह ? कैसे ये गुत्थी सुलझे । अगर बीच में रोका । तो कहानी बिना एण्ड के समाप्त हो सकती है ।
विशाल को मुझसे घोर नफ़रत हो गयी थी । वह आगे बोली । वह मुझे मेरे हाल पर छोङकर उसी समय कहीं चला गया । और मैंने भी उसके पीछे जाने की कोशिश नहीं की । क्योंकि अब मुझे उसमें कोई दिलचस्पी भी नहीं थी ।
- लेकिन नितिन जी ! वह भर्राये स्वर में बोली - मेरे प्रेमी ने ठीक ही कहा था । मैंने उनके खुशहाल जीवन को जला डाला था । उसमें आग लगा दी थी । पर..पर क्या मैं ऐसा जीवन किसी का बना भी सकती थी ?
हाँ नितिन जी ! जब एक दिन वह परिवार छुट्टियों में कार से घूमने गया था । पता नहीं । मेरी जलन के चलते मुझे क्या सनक सवार हो गयी । मैंने उनकी गाङी का सन्तुलन बिगाङ दिया । और वह गहरी खाई में जा गिरी । वही तो वो दिन था । जब इस घर में सांझ का दीपक जलना बन्द हो गया । क्योंकि वो दीपक जलाने वाली तीनों जिन्दगियों के ही दीपक बुझ चुके थे ।
इस रहस्यमय कहानी की तरह आज की रात भी बेहद रहस्यमय थी । और जैसे इसका रहस्य खुलने के इंतजार में ही रुकी हुयी थी । जिन्दगी ने उसे कैसे घनचक्कर में लाकर फ़ँसाया । उसने सोचा ।
- नितिन जी ! वह आगे बोली - यह बात एक मजेदार अटल सच की तरह है कि - जो होता है । वह दिखाई नहीं देता । और जो दिखाई देता है । वह होता नहीं है । यदि तुम इसी बात पर ध्यान देते । तो इस कहानी में कोई रहस्य था ही नहीं ।
इस कहानी के तलघर का दरवाजा इसी जीने के नीचे बने स्टोर के अन्दर से गया है । पर मुझे नहीं लगता कि उस तलघर में अब आपकी कोई दिलचस्पी होगी । उस शमशान में जो काली छाया औरत तुम्हें दिखाई देती थी । वह रोमा थी । एक शक्तिशाली प्रेतनी । मगर इस परिवार की हत्या के प्रायश्चित और घोर अपराध बोध से घिरी ।
रोमा ही तुम्हें यहाँ इस घर तक लायी थी । जब उसने तुम्हें अक्सर शमशान में बैठे देखा । वहाँ जो लङका मनोज दीपक जलाने जाता था । वह दरअसल कोई इंसान नहीं । प्रेत का भासित छाया रूप था । जो रोमा के कमाल से तुम्हें जीवन्त दीख रहा था । वैसे प्रेत असल स्थिति में उसी तरह दिखते हैं । जैसा तुमने उस काली छाया औरत को देखा ।
दरअसल नितिन तुमने गौर भी नहीं किया । और तुम तबसे लेकर अब तक मेरे एक खास प्रकार के प्रेतक सम्मोहन में बँधे हुये हो । इसलिये तुम्हारा उधर ध्यान भी नहीं गया । जब मनोज तुम्हें यहाँ लाया था । तब वह घर के मुख्य द्वार से न लाकर पीछे के द्वार से लाया था । इस घर के मुख्य द्वार पर तो सालों से ताला लटक रहा है । क्योंकि ये घर खाली पङा रहता है । इसका पिछला द्वार खुला हुआ है ।
जब तुम गली से आगे चौराहे पर सिगरेट लेने गये । तब भी तुम अपनी उधेङ बुन में ठीक से यह न देख पाये कि वह गली एकदम सूनी और इंसानी जीवन से रहित है । इस घर के पिछवाङे जो गिने चुने मकान है । वह इसी की तरह बन्द रहते हैं । और बरसों से खाली पङे हैं । क्योंकि इस मकान में रहने वाली प्रेतनी की वजह से लोग धीरे धीरे अपना घर छोङ गये ।
जैसा कि मैंने कहा । तुम्हें शमशान से यहाँ तक लाने वाली । मैं एक शक्तिशाली प्रेतनी हूँ । इसलिये यहाँ आने से लेकर अब तक के समय में जो तुमने पदमा आदि के अतीत के रंगीन चित्र देखे । वह मेरी वजह से संभव हुये । मैंने तुम्हें इस घर में गुजरा अतीत वर्तमान की तरह दिखाया । जो कि तुमने खास सम्मोहित अवस्था में एक रंगीन सपने की तरह देखा । पर वास्तव में उसके पात्र सिर्फ़ छाया थे । जो तुम्हें असल जैसे महसूस हो रहे थे । जैसे अभी मैं हो रही हूँ ।
तुम्हें याद होगा । तुम्हारे परिचय पूछने पर मैंने दो बदन कहा था । पदमा और उसके घर वालों के मर जाने पर हमारी आपस में मित्रता हो गयी । हम सब यहीं एक साथ अब भी रहते हैं । जो सुन्दर शरीर तुम देखते थे । वह पदमा का था । जो मधुर मनचली लुभावनी हरकतें तुमने देखी । वह भी पदमा की थी । लेकिन जव वह विकृत रूप हो उठती थी । वह रोमा थी । और रोमा की अतृप्त काम वासना । इस तरह तुमने अक्सर मिली जुली पदमा रोमा को साथ साथ देखा ।
रोमा के सूक्ष्म शरीर में कुछ विशेष गुण थे । जो मेरे शरीर में नहीं हैं । इसलिये वह मेरी ताकत से असली जैसा शरीर प्रकट कर लेती है । पर वह असली दिखता ही है । होता नहीं । हम दोनों अलग अलग भी रहते हैं । और कभी एक ही शरीर में भी हो जाते हैं । जैसे किसी इंसान में प्रेत आवेश होता है । तब उसके जिस्म में दो रूहें होती हैं कि नहीं । वास्तव में तो एक इंसानी शरीर में आठ रूहें हो जाना भी कोई बङी बात नहीं ।
अब वह सुनो । खास जिसके लिये मैंने यह सब किया । और तुम्हें यहाँ तक लायी । तुम्हारे गुरु से मेरी पहले ही बात हो चुकी है । दरअसल मैं पदमा और उसके परिवार को लेकर बहुत अपराध बोध महसूस करती हूँ । और प्रायश्चित करना चाहती हूँ । इस परिवार के लोगों का शायद ऐसा कोई नहीं है । जो इनका सही प्रेतक संस्कार कर सके । और जो हैं । उन्हें सही बात मालूम नहीं होगी कि ये प्रेत बन चुके हैं । और इनका क्या संस्कार होना चाहिये ? क्योंकि तुम इस विधा के पण्डित हो । और प्रयोग भी करना चाहते थे । इसलिये मैंने तुम्हें चुना । जिसमें तुम्हारे गुरु की पूरी सहमति है । ये संस्कार पूरा होते ही कुछ समय बाद ये तीनों रूहें प्रेत योनि से मुक्त होकर फ़िर नया मनुष्य जीवन प्राप्त कर लेगीं । जबकि मैं ऐसा नहीं कर सकती । क्योंकि मैंने अपराध भी किया । और अपनी प्रचण्ड कामवासना के चलते मेरा प्रेतत्व और भी मजबूत और स्थायी हो गया । अब । अचानक वह उसके पैरों से लिपट कर विनती करती हुयी बोली - मेरी आपसे विनती है कि पदमा अनुराग और मनोज का संस्कार करा कर उसे प्रेत योनि से मुक्त कराने में मेरी सहायता करें । ताकि मेरे दिल से यह बोझ हमेशा के लिये उतर जाये
एकाएक कोई बात नहीं सूझी । एक अजीव सा सन्नाटा उसके दिमाग में जैसे सांय सांय कर रहा था । और फ़िर जैसे धीरे धीरे वह होश में आने लगा । तब सामने बैठी पदमा के रंग धुंधले होने लगे ।
- पर । वह बेहद असमंजस से बोला - अब तो ये बता दो । अभी तुम पदमा हो । या रोमा ?
शायद अन्तिम बार उसने एक दिलकश शोख मुस्कराहट से उसे देखा । और बेहद शरारत से आँख मारती हुयी बोली - क्या कमाल की कहानी लिखी है । इस कहानी के लेखक ने । .. कहानी जो उसने शुरू की । उसे कैसे कोई और खत्म कर सकता है । ये कहानी है ।..
अचानक उसकी भासित आकृति बहुत ही धुंधली हो गयी । और फ़िर वह उसकी निगाहों से अदृश्य हो गयी । अब वह नहीं रुका । भोर का हल्का हल्का सा धुंधलका फ़ैलने लगा था । वह तेजी से जीना उतर कर नीचे आया । जाने से पहले एक निगाह उसने घर में चारों तरफ़ डाली । वह मनहूस बन्द घर हर तरह के जीवन से शून्य 0 था । और बेहद खामोश था । उसमें चारों तरफ़ बस धूल उङ रही थी ।
उसने अपना स्कूटर बाहर निकाल कर स्टार्ट किया । और सिगरेट सुलगाते हुये एक बार बङे गौर से उस बन्द घर को देखा । फ़िर उसकी निगाह बन्द गली पर गयी । बन्द मकानों पर गयी । उसके होंठो पर अजीव सी मुस्कराहट तैर गयी । और फ़िर वह तेजी से अपने घर की तरफ़ जाने लगा

। समाप्त ।

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